प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "दिव्य मानव को ब्रह्मानुभूति, देवमानव को ब्रह्म प्रतीति, मानवीयता पूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास, अमानव में भी ब्रह्म का भास होता है." इसको समझाइये.
उत्तर: व्यापक वस्तु का पशुमानव-राक्षसमानव में भी भास होना पाया जाता है. किन्तु भास का प्रमाण नहीं होता, आशा होता है. मानव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का आभास न्याय स्वरूप में प्रमाणित होता है. देव चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म का प्रतीति धर्म (समाधान) स्वरूप में प्रमाणित होता है. दिव्य चेतना संपन्न मानव में ब्रह्म में अनुभव सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित होता है.
इसके पहले आपको बताया था, अनुभव में पूरा ज्ञान रहता है वह क्रम से प्रमाणित होता है. इस तरह अनुभव के उपरान्त मानव चेतना में 'आभास' प्रमाणित होता है. देवचेतना में 'प्रतीति' प्रमाणित होता है. दिव्यचेतना में 'अनुभूति' प्रमाणित होता है.
जीवों में जीवनी-क्रम है. मानव में जागृति-क्रम है. जागृतिक्रम में "ज्यादा समझे - कम समझे" का झंझट आदिकाल से है. धीरे-धीरे चलते-चलते समझदारी के शोध की बात आ गयी. अब जा करके (मध्यस्थ दर्शन के अनुसन्धान पूर्वक) यह बात स्पष्ट हुई. इससे पता चला, ज्यादा समझा-कम समझा कुछ होता नहीं है. समझा या नहीं समझा यही होता है. ज्ञान हुआ, नहीं हुआ - यही होता है. अनुभव में ज्ञान हो जाता है, फिर प्रमाणित होना क्रम से होता है. मैं सम्पूर्ण अस्तित्व को समझा हूँ, अध्ययन किया हूँ, अनुभव किया हूँ, मैं स्वयं प्रमाणित हूँ, किन्तु समझाने/प्रमाणित करने की जगह में क्रम में ही हूँ. पहले न्याय समझाने/प्रमाणित करने के बाद ही धर्म प्रमाणित होगा। धर्म प्रमाणित होने के बाद ही सत्य प्रमाणित होगा. अभी मैं न्याय को प्रमाणित करता हूँ, धर्म को प्रमाणित करता हूँ - लेकिन सत्य को प्रमाणित करने का जगह ही नहीं बना है. कालान्तर में बन जाएगा. सत्य प्रमाणित होना = सहअस्तित्व स्वरूप में व्यवस्था प्रमाणित होना. उसके पहले अखंड समाज सूत्र व्याख्या होना - जिसका आधार समाधान (धर्म) ही है. मैं समाधान प्रमाणित करता हूँ - इस बात की मैं घोषणा कर चुका हूँ. वही प्रश्न-मुक्ति अभियान है. न्याय मैं प्रमाणित करता ही हूँ - अपने परिवार और आगंतुकों के साथ मैं न्याय करता हूँ. मैं न्याय करता हूँ, उससे मुझे स्वयं से तृप्ति मिलती है. दूसरे से भी तृप्ति मिले, इसके लिए मैं प्रयत्न करता हूँ. कुछ संबंधों में ऐसा हो चुका है, कुछ में शेष है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment