ज्ञान को परम्परा में प्रमाणित होना है, यह आदर्शवाद ने माना ही नहीं. व्यक्ति ज्ञानी हो सकता है, यह माना। इससे लोगों की मान्यता में यह आया कि हर व्यक्ति को पूरा समझने की ज़रुरत नहीं है. एक व्यक्ति समझेगा, बाकी लोग उसका अनुकरण करेंगे। अनुकरण विधि से हम सही हो सकते हैं, समझना बहुत ज़रूरी नहीं है. इसको चाहे आदर्शवाद का उपकार मानो या बर्बादी मानो! जबकि यहाँ हम कह रहे हैं - समझना ही प्रधान है, अनुकरण करना दूसरे नंबर पर है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)
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