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Sunday, August 27, 2023

समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है



समानता का आधार अनुभव मूलक विधि से ही आता है, बोलने की विधि से नहीं आता है.  तीन लोग तीन बात बोलते हैं, उससे तीन रास्ते बन जाते हैं, जबकि अनुभव सभी का एक ही होता है.  सहअस्तित्व में ही अनुभव होता है, दूसरा कुछ होता नहीं है.  सहअस्तित्व में अनुभव होने से अनुभव प्रमाण, व्यव्हार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण होता है.  मैं सोचता हूँ मनुष्य यदि व्यव्हार प्रमाण में जी जाए तब भी शांति पूर्वक जी सकता है.  व्यव्हार प्रमाण में जीना = स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीना।  इसमें से स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष तो इच्छा के आधार पर भी हो जाता है, पर दया पूर्ण कार्य व्यव्हार में जीने के लिए अनुभव करने की आवश्यकता है.  

व्यक्ति में जो अनुभव करने की अर्हता है, क्या उसका हनन किया जा सकता है?  अभी इतना समय तक जो मानव जिया, क्या उसका हनन हुआ?  "गुरु जी अनुभव करेंगे, शिष्यों को अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है" - यह तरीका इसमें नहीं चलता।  इसीलिये ऐसी व्यक्तिवादी बात को गौण कर दिया, समुदायवाद की समीक्षा कर दिया।  व्यक्ति में क्या होना चाहिए, उसको तय कर दिया।

भौतिकवादी विधि से यौन चेतना के लिए सुविधा संग्रह के लिए आदमी फंसा है, और उसका कोई कार्यक्रम नहीं है.  आदर्शवाद में ईश्वर भला करेगा इस आस्था के साथ ईश्वर के भय से लोग त्रस्त होते थे.  स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय रहा.  अब वह समाप्त हो गया और सभी अवैध बातों को वैध मानने के लिए मानव तैयार हो गया.  

अब मानवीयता पूर्वक जीने की आवश्यकता बनेगी तो उसमे हम सफल होंगे.  यह आवश्यकता यदि सर्वोच्च प्राथमिकता में आ जाता है तो जल्दी होगा, यदि प्राथमिकता द्वितीय रहती है तो देर से होगा, यदि तृतीय रहती है तो अगले जन्म में होगा!  प्राथमिकता को हर व्यक्ति को अपने में तय करना होगा।  दूसरा कोई कर नहीं सकता।

इस जगह में आने के पहले से हम व्यव्हार को लेकर प्रयत्न किये रहते हैं, लेकिन व्यव्हार पक्ष में ठीक होते हुए भी स्वयं में तृप्ति नहीं रहती है.  तृप्ति के लिए अनुभव होना आवश्यक है.  अनुभव के लिए या तो अध्ययन है या अनुसन्धान है.  अनुसन्धान पूर्वक अनुभव करो या अध्ययन पूर्वक अनुभव करो!

प्रश्न: अब जब अध्ययन विधि स्थापित हो गयी है तो क्या अनुसन्धान विधि का कोई अर्थ बनेगा?

उत्तर: अध्ययन विधि अभी प्रस्ताव स्तर पर है.  जब परम्परा बन गया तब स्थापित होगा.  तब यह generalise होगा.  अतिवाद में हम जा ही नहीं सकते.  अभी भाषा के रूप में स्थापित हुआ है, अनुभव के रूप में  स्थापित होना अभी शेष है.  अनुभव रूप में स्थापित होने से ही प्रमाण होगा.  दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है।    बातें हम बहुत सी कर सकते हैं, पर रास्ता तो एक यही है.  अभी जैसे बात करते हैं - शिखर पर पहुँचने के कई रास्ते हैं, किसी से भी पहुँच सकते हैं.  कौन पहुंचा?  पूछने पर कोई प्रमाण मिलता नहीं है.  प्रमाण के बिना मार्ग का कोई अर्थ नहीं है.  प्रमाण परम्परा में आने पर हम दावा कर सकते हैं कि हम समझ गए.  तब तक सुने हैं, सुनाते हैं - इतना ही है.  वेद विचार जैसे श्रुति था - वैसे ही.   वेद विचार को श्रुति ही बताया है, अनुभव नहीं बताया है.  वहां बताते हैं, कोई कोई आप्त-पुरुष होता है जिसको अनुभव होता है.  मानवीय परम्परा का जो यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्ताव कर रहे हैं, वह परंपरा में नहीं है.  व्यक्ति कोई जागृत हुआ हो तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि परम्परा में प्रमाण नहीं है.  सारे वेद विचार में इसका जिक्र नहीं है.  वेद विचार को मैंने पूरा जांच लिया।  मैं इतना ही कर सकता था.  आइंस्टीन, न्यूटन, डार्विन, फ्रायड, मार्क्स आदि को मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन समीक्षा किया है कि ये लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी विचार हैं.  

जीवन को सच्चाई चाहिए। सच्चाई को सहअस्तित्व स्वरूप में बताया है.  पहले सहअस्तित्व ज्ञान में ही अनुभव होता है, अनुभव के बिना ज्ञान होता नहीं है.  ज्ञान बोलने में बनेगा, पर स्वत्व के रूप में होता नहीं है.  ज्ञान से संतुष्टि होता है कहा जाए, या और किसी चीज़ से?  अरबों रुपया खर्च करके भी ज्ञान से होने वाला संतुष्टि नहीं हो सकता।  

पूरा मानव जाति भ्रम में फंसा है.  सभी अपराधों को वैध मान लिया है.  अब इस प्रस्ताव को सुनने वाले को पश्चात्ताप तो होता है.  कोई उसी जगह से लौट जाता है, कोई जूझ जाता है.  जूझने वालों का यह जीवन विद्या सम्मलेन है!  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, सितम्बर २०११)

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