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Monday, March 27, 2017

सत्ता में प्रकृति की सम्पृक्त्ता

मैं क्रियाशील हूँ, सब कुछ क्रियाशील है - यह प्राकृतिक है। मैं कैसे क्रियाशील हूँ? सब कुछ कैसे क्रियाशील है? - यह मनुष्य को समझने की आवश्यकता है। यह समझ में आना = सत्ता में प्रकृति की सम्पृक्त्ता समझ में आना = अस्तित्व में व्यवस्था का सूत्र समझ में आना = स्वयम का व्यवस्था में होने, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप समझ में आना।

प्रश्न: हमको तो व्यापक एक खाली स्थान दीखता है, इससे ज्यादा नहीं! यह खाली स्थान "ऊर्जा" है, इस बात को कैसे समझें?

उत्तर: व्यापक में हम भीगे हैं, डूबे हैं, घिरे हैं - इस तरफ़ आदमी ने सोचा ही नहीं है! हम चारों तरफ़ से व्यापक से घिरे हैं, इस बात से प्रमाण आता है - हम इसमें डूबे हैं। इसके बाद मनुष्य में कल्पनाशीलता है। कल्पनाशीलता केवल मनुष्य में ही है। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम "ज्ञान" तक पहुँचते हैं। व्यापक ही ज्ञान है।

इस प्रस्ताव को जब जीने में परीक्षण करने जाते हैं, तब यह स्वीकार हो जाता है।

प्रश्न: परीक्षण कैसे करें?

उत्तर: इस समझ से जीना ही इसका परीक्षण है। आपके जीवन में ज्ञान (व्यापक) कल्पनाशीलता के रूप में है ही। आपके शरीर में व्यापक ऊर्जा-सम्पन्नता के रूप में है ही। इसी को अनुभव करने की बात है। स्वयं का निरीक्षण-परीक्षण करने से ही अनुभव होगा।

कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम ज्ञान तक पहुँचते हैं। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता प्राकृतिक विधि से एक अधिकार है। उस अधिकार को अध्ययन के लिए प्रयोग करने की बात है।

समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि प्रमाणित होती है।

[भोपाल, अक्टूबर २००८]

सत्ता का स्वरूप है: - पहला, सर्वत्र विद्यमानता या व्यापकता। दूसरा, पारदर्शीयता - हर परस्परता के बीच में, हर जर्रे-जर्रे के बीच में। तीसरे, पारगामियता।

प्रत्येक इकाई में, से, के लिए मध्यस्थ-सत्ता साम्य रूप से प्राप्त है। सत्ता जड़-प्रकृति को साम्य-ऊर्जा के रूप में प्राप्त है। सत्ता चैतन्य-प्रकृति को चेतना के रूप में प्राप्त है। यह सत्ता का वैभव है। सत्ता प्रकृति को नित्य प्राप्त है - इसलिए प्रकृति नित्य-वर्तमान है।

इकाई क्रियाशील है, इसलिए उसमें 'पूर्णता' की बात है। हर क्रियाशीलता 'सम्पूर्ण' है। प्रत्येक इकाई अपने वातावरण सहित 'सम्पूर्ण' है। सम्पूर्णता से पूर्णता तक विकास-क्रम है। पूर्णता है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता। सम्पूर्णता के साथ ही पूर्णता का प्रमाण है।

हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता ही है। कितनी भी सूक्ष्म इकाई हो... कितनी भी स्थूल इकाई हो। एक समझने वाला, एक समझाने वाला - इनके मध्य में सत्ता रहता ही है। तभी समझ पाते हैं, तभी समझा पाते हैं। मध्य में सत्ता न हो, तो न समझ पायेंगे - न समझा पायेंगे। वैसे ही हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता है, जिससे उनमें परस्पर पहचान होती है, निर्वाह होता है।

साधना के फल-स्वरूप मुझे समाधि हुआ। समाधि में गहरे पानी में डूब कर आँखे खोल कर देखने में मधुरिम प्रकाश जैसा दिखता है, वैसा मुझे दिखता रहा। समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप रही, यह आंकलित हो गया। इसमें 'ज्ञान' नहीं हुआ। फिर संयम में सत्ता में अनंत प्रकृति को भीगा हुआ देख लिया। समाधि में जो दिख रहा था, वह 'सत्ता' है - यह स्पष्ट हो गया। समाधि के बाद ही संयम होता है।

प्रकृति की वस्तु में अपने में कोई ताकत नहीं है। ताकत सत्ता है। यदि प्रकृति की इकाई स्वयं में ताकतवर होता, तो उसे सत्ता से अलग होना था! लेकिन सत्ता सब जगह है, सत्ता से इकाई बाहर जा ही नहीं सकती। प्रकृति की इकाई कहीं भी जाए, रहती सत्ता में ही है। इसलिए इकाई ऊर्जामय है। इकाई ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर क्रियाशील है।

ऊर्जा की प्यास वस्तु को है। वस्तु को ऊर्जा की प्यास है। ऊर्जा वस्तु को छोड़ नहीं सकती। वस्तु ऊर्जा को छोड़ नहीं सकती। चैतन्य-प्रकृति चेतना के बिना नहीं रह सकती। जड़-प्रकृति ऊर्जा के बिना नहीं रह सकती। चेतना और ऊर्जा सत्ता ही है। सत्ता के प्रकटन के लिए प्रकृति है। प्रकृति की क्रियाशीलता के लिए सत्ता है। इसके आधार पर दोनों निरंतर अविभाज्य साथ-साथ हैं। जिसको हम "सह-अस्तित्व" नाम दे रहे हैं।

सत्ता में प्रकृति की वस्तु को मिटाने या बनाने की कोई "चाहत" नहीं है। चाहत निश्चित दायरे में होती है। सत्ता निश्चित दायरे में नहीं है। इसलिए उसमें चाहत नहीं है।

[जुलाई २०१०, अमरकंटक]

मैंने जो साधना, समाधि, संयम पूर्वक अध्ययन किया, उसमें  सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा (मतलब समझा)।  सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में मैंने सह-अस्तित्व को पहचाना।  सहअस्तित्व स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति को जो देखा - यही "परम सत्य" है, "नित्य वर्तमान" यही है.  उससे यह स्पष्ट हो गया कि जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है.  जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया.  (जड़-जगत में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमें गठनशील परमाणुओं के रूप में परिणाम की अवधियां हैं.  चैतन्य जगत में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमे गठनपूर्ण परमाणु के रूप में 'परिणाम का अमरत्व' है.)  जड़-जगत में रचना-विरचना होती है, नाश कुछ नहीं होता।  (चैतन्य-प्रकृति में नाश भी नहीं होता और रचना-विरचना भी नहीं होती)

प्रश्न: सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति किस प्रकार से चार अवस्थाओं को प्रकट करती है?

उत्तर: सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है.  सहअस्तित्व के चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए प्रकृति में तीन प्रकार की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया।  इन तीनों क्रियाओं का एक दूसरे से जोड़-जुगाड़ से चार अवस्थाएं बनते हैं.  यदि इनके आपस में जुड़ने से कुछ रह गया तो चार अवस्थाएं प्रकट नहीं होता।  इस प्रकटन को "करने वाला" कोई नहीं है।  यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त होता है, किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण नहीं होता।

प्रश्न:  चार अवस्थाओं के प्रकटन में सत्ता का क्या रोल है?  

उत्तर: सत्ता या परमात्मा का "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है.  सत्ता जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा स्वरूप में प्राप्त है. परमात्मा में भीगे रहने से जड़ प्रकृति में क्रिया करने के लिए प्रेरणा है.  यह प्रेरणा न कभी बढ़ता है न घटता है.

प्रश्न:  प्रकृति की क्रियाशीलता से सत्ता (व्यापक वस्तु) पर क्या प्रभाव पड़ता है या सत्ता में क्या अंतर आता है? 

उत्तर: प्रकृति की क्रियाशीलता से व्यापक वस्तु में कोई क्षति (घटना-बढ़ना) होता ही नहीं है.  व्यापक वस्तु में भीगे होने से प्रकृति को क्रिया की प्रेरणा सदा मिलता रहता है.  अभी मिला, बाद में नहीं मिला - ऐसा कुछ होता नहीं है.  यह प्रेरणा हर छोटे से छोटे वस्तु से लेकर बड़े से बड़े वस्तु तक समान स्वरूप में है.  परमाणु अंश में भी क्रियाशीलता देखी जाती है.

प्रश्न: इस प्रकटन क्रम में क्या कोई व्यतिरेक हो सकता है?

उत्तर: सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है.  इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है.  भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है.  भ्रमित मानव यदि परमाणु अंश का भी टुकड़ा कर दे, तो भी हरेक टुकड़ा घूर्णन गति करता रहता है, और एक दूसरे  से जुड़के वे टुकड़े पुनः परमाणु अंश हो जाते हैं.  परमाणु अंश का स्वरूप सभी प्रजातियों के परमाणुओं में समान है.  समानता की शुरुआत परमाणु अंश से है.

प्रश्न:  पदार्थावस्था के परमाणु अंश से शुरू करते हुए ज्ञान-अवस्था के मानव तक के प्रकटन क्रम को समझाइये?

उत्तर: अनेक संख्यात्मक परमाणु अंशों के योग से अनेक प्रजातियों के परमाणु हुए.  ऐसे भौतिक परमाणु जितने प्रजाति के होने हैं, वे सब होने के बाद भौतिक संसार तृप्त हो जाता है.  इस तृप्ति के फलस्वरूप उन परमाणुओं में यौगिक क्रिया करने की प्रवृत्ति बन जाती है.   स्वयंस्फूर्त विधि से यौगिक होते हैं.  यौगिक के प्रकटन में सम्पूर्ण प्रजातियों के परमाणु (भूखे और अजीर्ण) पूरक हो जाते हैं, सहायक हो जाते हैं.  सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता का यह पहला घाट है.

यौगिक विधि में सर्वप्रथम जल का प्रकटन हुआ.  यौगिक विधि द्वारा ही धरती पर प्राणावस्था का प्रकटन हुआ.  प्राणावस्था में जितना प्रजाति का भी झाड़, पौधा, औषधि, वनस्पति सब कुछ होना था, उतना होने के बाद जब प्राणावस्था  तृप्त हो गयी तब जीवावस्था के शरीरों की शुरुआत हुई.  जीवावस्था में भुनगी-कीड़ा से चलकर पक्षियों तक, पक्षियों से चल के पशुओं तक जलचर, थलचर, नभचर जीवों का प्रकटन हुआ, जिसमें अंडज और पिण्डज दोनों विधियों से शरीर रचना का होना स्पष्ट हुआ.  जीवावस्था में अनेक प्रकार के जीवों का प्रकटन हुआ जो उनकी आहार पद्दति के अनुसार दो वर्गों में - शाकाहारी और मांसाहारी हुए.  इनमे शाकाहारी जीवों में मांसाहारी जीवों  की अपेक्षा प्रजनन क्रिया अधिक होना देखा गया.  शाकाहारी जीव संसार के संख्या में संतुलन के अर्थ में माँसाहारी जीवों का प्रकटन हुआ - यह मुझे समझ में आया.  जीवावस्था के सभी वंश परंपराएं स्थापित होने के बाद मानव शरीर रचना प्रकट हुई.  मानव शरीर रचना पहले किसी जीव शरीर में ही तैयार हुआ, उसके बाद मानव शरीर परंपरा शुरू हुई,  हर प्रकटन में ऐसा ही है - अगला स्वरूप का भ्रूण पिछले में तैयार होता है, और अगला स्वरूप पिछले से भिन्न हो जाता है.  जैसे - ४ पत्ती वाले पौधे से ५० पत्ती वाले पौधे का प्रकटन हो जाता है.  प्राणकोशाओं  के प्राणसूत्रों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होने के आधार पर यह होता है.  यह प्रकटन उत्सव, खुशहाली, प्रसन्नता, संतुलन, और नियंत्रण के आधार पर होता है.  मानव के प्रकटन से पहले धरती पर सघन वन, पर्याप्त जल, औषधि और सम्पूर्ण प्रकार के जीव संसार तैयार हो चुका  था.  इन्ही के बीच मानव पला.  इस तरह सहअस्तित्व सहज प्रकटन विधि से घोर प्रयास और घोर प्रक्रिया पूर्वक मानव का धरती पर प्रकटन हुआ.

प्रश्न: तो मानव में परेशानी कैसे और कब से शुरू हुई?

उत्तर:  मानव में परेशानी शुरू हुई भ्रम से!   भ्रम कहाँ से आया?  - जीवचेतना से.  मानव शरीर रचना में यह विशेषता आयी कि जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके.  मानव के प्रकटन से पहले जीव संसार प्रकट हो चुका था, इसलिए मानव ने अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए जीवों का अनुकरण किया, पहले जीवों के जैसा जीने का प्रयत्न किया फिर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया।   इसके लिए जीवचेतना का ही प्रयोग किया।

मानव ने अपने प्रकटन के साथ ही (भ्रम वश) प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ना शुरू किया।  पहले कृषि के लिए वन का संहार करना शुरू किया।  फिर विज्ञान आने के बाद खनिज का शोषण शुरू कर दिया।  वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु  संतुलन है. ऋतु  संतुलन के बिना मानव सुखी नहीं हो सकता।  मानव शरीर के लिए आवश्यक आहार पैदा नहीं हो सकता।  यह जो मैं बता रहा हूँ इसके महत्त्व को कैसे उजागर करोगे, सोचना!  यह वृथा नहीं जाना चाहिए!

मानव ने अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनाकार  को साकार करने का काम आवश्यकता से अधिक कर दिया, जबकि मनःस्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.  मनाकार को साकार करने में अतिवाद किया है यह धरती के बीमार होने से गवाहित हो गया है.  धरती के बीमार होने पर अब हम पुनर्विचार कर रहे हैं - ऐसा कैसे हो गया?  इसका उत्तर यही निकलता है - मानव के जीव चेतना में जीने से ऐसा हुआ.

प्रश्न:  आपके अनुसंधान के मूल में जो जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हुआ?" - उसका क्या उत्तर मिला?

उत्तर:  असत्य पैदा नहीं हुआ है.  अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है.  सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व में असत्य का कोई स्थान ही नहीं है.  इसका मतलब, शास्त्रों में जो 'ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या' लिखा है - यह गलत हो गया.  इसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत'.  इस तरह वेद विचार से मिली मूल स्वीकृति ही बदल गयी.  

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

सभी संसार – एक परमाणु-अंश से लेकर परमाणु तक, परमाणु से लेकर अणु रचित रचना तक, अणु रचित रचना से लेकर प्राण-कोषा से रचित रचना तक – का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त होता हुआ समझ में आया। स्वयं-स्फूर्त विधि से ही परमाणु का गठन-पूर्ण होना समझ में आया।

प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया? 

इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।

सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।

सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।

साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।

सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रकटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।

कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।

कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।

साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।

[अप्रैल २०११, अमरकंटक]

पारगामीयता का मतलब है - सब में निर्बाध प्रवेश पूर्वक चले जाना.  विगत में ब्रह्म के बारे में बताया था – “यह सब में समा गया है.”  समाने वाली बात गलत निकल गयी.  “समाने” का मतलब ऐसा निकलता है – जिसमे समाया उसमे रहा, बाकी में नहीं रहा.  यहाँ बताया है – ब्रह्म (सत्ता) जड़-चैतन्य वस्तु में पारगामी है.  मेरे अनुसंधान का पहला प्रतिपादन यही है.  जड़-चैतन्य में पारगामी होने से जड़ में ऊर्जा-सम्पन्नता और चैतन्य में ज्ञान-सम्पन्नता है.  जड़ प्रकृति में मूल-ऊर्जा यही है.  साम्य-ऊर्जा उसको नाम दिया है.  चैतन्य प्रकृति में ज्ञान यही है.  ज्ञान जीव-संसार में चार विषयों में प्रवृत्ति और संवेदना के रूप में प्रकट है.  मानव में संवेदनाएं प्रबल हुआ, तथा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञान-संपन्न होने के लिए प्रवृत्त हुआ.  ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के लिए मानव के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप में प्रकृति-प्रदत्त है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की तृप्ति के लिए ही पूरा ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर का प्रयोग है.  इन्द्रियगोचर का प्रयोग करने में मानव पारंगत है.  अब ज्ञानगोचर भाग को जोड़ने की आवश्यकता है.  उसको जोड़ने की आवश्यकता क्या है? सुखी होना.  समाधान पूर्वक सुखी होना होता है.  समस्या पूर्वक दुखी होना होता है.  अब प्रोत्साहन है – ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए.  सारा उन्माद इन्द्रिय-गोचर विधि से है.  मानव का अध्ययन इन्द्रिय-गोचर विधि से हो नहीं पाता.  सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना, जीवन को समझना, सार्वभौमता को समझना, अखंडता को समझना, प्रबुद्धता पूर्ण होना यह ज्ञानगोचर विधि से ही होगा.

मानव जो कुछ भी बात-चीत करता है वह ज्ञान की अपेक्षा में ही करता है.  मानव बहुत सारे भाग में ज्ञानगोचर विधि से जीता ही है.  विषयों और संवेदनाओं में भी मानव जो अभी जीता है वह भी ज्ञानगोचर विधि से ही जीता है.  पहले कल्पना से पहचानता है, फिर उसको शरीर द्वारा करता है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञानगोचर ही है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग चेतना-विकास के लिए होने की आवश्यकता है.  इस पर तुलने की ज़रूरत है.  यही मूल मुद्दा है.

प्रश्न: आपने संयम में यह सब देखा/समझा – इसका क्या “प्रमाण” है?

उत्तर: मेरा अपने जैसा दूसरे को बना देना ही इसका प्रमाण है। मेरा प्रत्यक्ष होना ही इसका प्रमाण है। मेरा समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही इसका प्रमाण है। ये तीनो मौलिक बातें हैं। इसकी ज़रूरत है या नहीं – इसको पहले तय करो! जरूरत नहीं है - तो इससे दूर ही रहो। जरूरत है - तो इसको समझो! मेरे अकेले के मेहनत करने से सबका काम चल जाएगा – ऐसा नहीं है। सबको नाक रगड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो आपका “नाक” ही अडेगा! “नाक अड़ने” से आशय है – अहंकार। अहंकार से ही अटके हैं।

आदर्शवाद ने भी अहंकार को लेकर बहुत कुछ कहा है। उसमे सत्य उनको कुछ भासा होगा – तभी उन्होंने ऐसा कहा है। वे प्रमाणित नहीं हो पाए, रहस्य में फंस गए – वह दूसरी बात है।

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव की शुरुआत ही यहाँ से है – “मैं समझ गया हूँ, मेरी समझ दूसरे में अंतरित हो सकती है”। किसको समझाओगे? जो समझना चाहते हैं, उनको समझायेंगे। ऐसे शुरुआत हुआ। दूसरा लहर शुरू हुआ – शिक्षकों को समझायेंगे। तीसरा लहर शुरू हुआ – अभिभावकों को समझायेंगे। शिक्षक समझ कर स्वयं बच्चों और अभिभावकों को समझायेंगे – ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ।
 
[दिसम्बर २००८]

व्यापक में प्रकृति डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरा हुआ है। भीगा हुआ से ऊर्जा-सम्पन्नता है। डूबा हुआ से क्रियाशीलता है। घिरा हुआ से नियंत्रण है। भीगा हुआ के साथ डूबा हुआ और घिरा हुआ बना ही है।

प्रश्न: व्यापक से इकाई घिरे होने से वह नियंत्रित कैसे है?

उत्तर: घिरा होना ही नियंत्रण है। व्यापक से इकाई घिरा न हो तो उसका इकाइत्व कैसे पहचान में आएगा? नियंत्रण का मतलब है - निश्चित आचरण की निरंतरता।

प्रश्न: जड़ प्रकृति में नियंत्रण कैसे है?

उत्तर: हर जड़-इकाई व्यापक वस्तु से घिरी है, इसलिए नियंत्रित है। जड़ वस्तु में अनियंत्रित करने वाली कोई बात नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में घिरा है, फिर वह नियंत्रित क्यों नहीं है?

उत्तर: मनुष्य नियंत्रण चाहता है। पर अपनी मनमानी के अनुसार नियंत्रण चाहता है, उसमें वह असफल हो गया है। पूरा मानव-जाति इसमें असफल हो गया है। असफल होने के बाद हम पुनर्विचार कर रहे हैं।

अनियंत्रित होने के लिए मनुष्य ने प्रयत्न किया, पर हो नहीं पाया। इसके आधार पर पता चलता है, नियंत्रित रहना जरूरी है। मनुष्य के लिए क्या नियंत्रित रहना जरूरी है? इसका शोध करने पर पता चलता है - संवेदनाएं नियंत्रित रहना जरूरी है। संवेदनाएं नियंत्रित कैसे रहेंगी? - इसका शोध करते हैं तो पता लगता है - समझ पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहेंगी। सत्ता में हम घिरे हैं - यह समझ में आने पर संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। सत्ता के बिना चेतना नहीं है। चेतना के बिना मानव-चेतना नहीं है। मानव-चेतना के बिना संवेदनाएं नियंत्रित नहीं हैं।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में सदा डूबा-भीगा-घिरा रहता है, फिर अध्ययन-पूर्वक अनुभव के बाद उसमें तात्विक रूप में ऐसा क्या हो जाता है कि वह निश्चित-आचरण को प्रमाणित करने लगता है?

उत्तर: अध्ययन पूर्वक अनुभव करने से जीवन की प्रवृत्ति बदल जाती है। मनुष्य में तात्विकता उसकी प्रवृत्ति भी है। प्रवृत्ति बदलती है तो आचरण परिवर्तित हो जाता है। कल्पनाशीलता प्रवृत्ति के रूप में है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ज्ञानशीलता या समझ है। ज्ञान-पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने पर मनुष्य द्वारा निश्चित आचरण पूर्वक समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बनता है।

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]

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