मानव जाति ने व्यापार और नौकरी में विश्वास को ढूँढने का प्रयास किया - जबकि व्यापार और नौकरी जिम्मेदारी लेने से मुकरा हुआ है। नौकरी भी व्यापार के लिए ही है। व्यापार और नौकरी द्वारा सुविधा-संग्रह की तलाश है। इससे पहले मानव-जाति में कुछ लोग भक्ति-विरक्ति की तलाश में थे, और उनका सम्मान करते हुए बाकी लोग थे। अब भक्ति-विरक्ति छूट गया - और अब सभी के सभी सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर खड़े हैं। नौकरी और व्यापार में विश्वास को ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के चलते ही धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया। अब पुनर्विचार की आवश्यकता है।
[अप्रैल २००६, अमरकंटक]
भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।
भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड या universal standard नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।
मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का universal standard है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
भ्रम-मुक्ति का प्रमाण अपराध-मुक्ति है। अपना-पराया से मुक्ति है। इस जगह पर आने के लिए यह प्रस्ताव रखे हैं। वह प्रस्ताव आपको ठीक लग रहा है। यहाँ आने से पहले आप जैसे भी जिए, उससे संतुष्टि नहीं मिली - पर अच्छी तरह जीने के अरमान में आप जिए।
अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।
अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।
प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?
उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।
प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?
उत्तर: गलत है! जीव-चेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।
अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको एडजस्ट करने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।
आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिये!
अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीव-चेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।
आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!
अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिये। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दूसरे की पहचान में आना चाहिये। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।
अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।
देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।
यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।
अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया।
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।
[अगस्त २००६]
अभी तक हम जैसे जी रहे हैं उससे हमको तृप्ति हो रहा है या नहीं इसका निरीक्षण। यदि तृप्ति मिल गया है, तो उसी को किया जाए. यदि तृप्ति नहीं मिला है तो हमको और कुछ समझने की ज़रुरत है, यह निष्कर्ष निकलता है. तब यह प्रस्ताव सामने आता है.
स्वनिरीक्षण ही आधार है, मानव में समझ के लिए प्रयास उदय होने के लिए. दबाव या आरोप से यह नहीं निकलता।
इस क्रम में - चर्चा में, सूचना में और तर्क में यह आता है - "अभी हम सुविधा-संग्रह के लिए काम कर रहे हैं, जिसका कोई तृप्ति-बिंदु ही नहीं है." सूचना के आधार पर स्व निरीक्षण पूर्वक यह निष्कर्ष निकल जाता है. फिर समझदारी को परिपूर्ण करने की प्रवृत्ति होती है. "तृप्ति बिंदु कहाँ है?" - वहाँ पहुँचने के लिए सोच शुरू हो जाती है. हम यहाँ से कैसे निकलें - यह सोच शुरू हो जाती है. तृप्ति को लेकर समझ की सूचना प्रस्ताव के रूप में फिर मिलती है.
कैसे निकलें - यह लोगों की अलग-अलग परिस्थिति अनुसार उनका अलग-अलग फॉर्मेट होगा, लेकिन सभी में साम्य बात होगी - अध्ययन विधि।
अध्ययन का स्त्रोत (प्रमाणित व्यक्ति) और अध्ययन की इच्छा (जिज्ञासु विद्यार्थी) - ये दोनों मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि मानव के जीने का लक्ष्य क्या है, मानव के जीने का सही तौर तरीका क्या है, वैसे जीने के फल-परिणाम क्या है. इस तरह स्वयं में वरीयता (प्राथमिकता) बन जाती है कि हमको समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना है.
प्रश्न: आज की स्थिति में मैं नौकरी कर रहा हूँ, इस प्रस्ताव को सुनने पर वह मुझे "गलत" लगता है. क्योंकि मुझे लगता है - मैं अव्यवस्था में भागीदार हूँ...
उत्तर: उसको अभी "गलत" या "सही" मत ठहराओ। यह पूरा नहीं पड़ रहा है - इतना रखो. तृप्ति के लिए क्या हो सकता है, इसके लिए आपके पास सूचना आया - समाधान-समृद्धि पूर्वक तृप्ति हो सकती है, जिसके लिए दर्शन का अध्ययन पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना आवश्यक है.
अध्ययन से अनुभव पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान स्पष्ट हो जाता है. ज्ञान-विवेक-विज्ञान को जीने का डिज़ाइन समाधान-समृद्धि स्वरूप में मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट हो जाता है. उसको प्रमाणित करने के लिए अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है. उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए शिक्षा विधि स्पष्ट हो जाती है. इसको आचरण करने पर तृप्त रहना बन जाता है, समाधानित रहना बन जाता है, समृद्ध रहना बन जाता है.
प्रश्न: आप कहते हैं अनुभव से पहले मानव में सही जीने का डिज़ाइन ही नहीं बनता। तो क्या आप यह कह रहे हैं कि मैं नौकरी करते-करते अध्ययन करता रहूँ और फिर अनुभव करूँ और फिर जीने का डिज़ाइन बनाऊं?
नहीं। इसमें थोड़ा और सोचने की ज़रूरत है. आप जहाँ हैं वहाँ रहते हुए इस बात का पठन तो कर ही सकते हैं. फिर उसके बाद समझने की बात आती है. अध्ययन विधि से आप वहाँ रहते हुए साक्षात्कार-बोध तक पहुँच सकते हैं, पर अनुभव बिंदु छुटा रहेगा। अनुभव हुआ तो वह नौकरी वाला स्वरूप रहेगा नहीं।
प्रश्न: अनुभव बिंदु कब तक छुटा रहेगा?
जब तक आपमें अनुभव की आवश्यकता सबसे प्राथमिक न हो जाए, और जब तक जिन साधनों को जोड़ने के लिए आप नौकरी करने निकले थे - वह पूरी न हो जाए तब तक. नौकरी छूटने पर आप अनुभव करने के योग्य हो गए क्योंकि नौकरी में रहते हुए अध्ययन पूर्वक आप अनुभव के दरवाजे पर आ चुके होंगे। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होना ही बनता है.
अनुभव के लिए हममे अपेक्षा और साधनों को लेकर हमारी अपेक्षा इन दोनों के बीच में दूरी समाप्त हो जाने पर (यानि अध्ययन को पूरा कर लेने के बाद और साधनों को प्राप्त कर लेने के बाद) अनुभव होता है. इसका कारण है - हम अभी तक जैसा जीने के तरीके को अच्छा मान लिए हैं, जब उसके लिए आवश्यक साधनों के निकटवर्ती स्थिति तक हम पहुँच जाएँ, तभी उसको लेकर जो हम नौकरी आदि उपक्रम किये, उससे हम मुक्त हो सकते हैं.
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
प्रश्न: यदि मेरा नौकरी करना बाधक है, तो उसको मुझे छोड़ देना चाहिए?
उत्तर: समझने के लिए कोई छोड़ने-पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। समझने के बाद "जीने" के लिए आप निर्णय कीजिये - आपको कैसे जीना है? जीने का डिजाईन बनाने की जब बात आती है - तब नौकरी छोड़ना, कुछ नया setup बनाना, या नए setup में शामिल होना - ये सब बात आती है।
प्रश्न: लेकिन इस बात को भी सोचें और नौकरी भी करें - यह बहुत अंतर्विरोधी हो जाता है?
उत्तर: वह तो स्वाभाविक है। नौकरी और व्यापार "जीने" से कोसों दूर हैं। जीने में sincerity है। व्यापार और नौकरी में insincerity है। समझने के बाद निर्णय लेने की ताकत आती है
[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]
प्रश्न: स्वावलंबन के लिए नौकरी करना क्या उचित है?
उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है. भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है. अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है. इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.
स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है. परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है. परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है. इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है.
- (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)
प्रश्न: पैसे के बिना काम कैसे चलेगा?
उत्तर: मानलो आपके पास एक खोली भर के नोट हों. तो भी उससे आप एक कप चाय नहीं बना सकते, एक चींटी तक का पेट उससे नहीं भर सकता। यदि वस्तु नहीं है तो ये नोट या पैसे किसी काम के नहीं हैं. नोट केवल कागज़ का पुलिंदा है, जिस पर छापा लगा है. छापाखाने में छापा लगा देने भर से कागज़ वस्तु में नहीं बदल जाता।
वस्तु को कोई आदमी ही पैदा करता है. वस्तु का मूल्य होता है. नोट पर कुछ संख्या लिखा रहता है. आज की स्थिति में मूल्यवान वस्तु के बदले में ऐसे संख्या लिखे कागज़ (नोट) को पाकर उत्पादक अपने को धन्य मानता है. यह बुद्धूबनाओ अभियान है या नहीं?
नोट अपने में कोई तृप्ति देने वाला वस्तु नहीं है. संग्रह करें तब भी नहीं, खर्च करें तब भी नहीं। नोट का संग्रह कभी तृप्ति-बिंदु तक पहुँचता नहीं है. नोट खर्च हो जाएँ तो उजड़ गए जैसा लगता है. नोट से कैसे तृप्ति पाया जाए? वस्तु से ही तृप्ति मिलती है. वस्तु से ही हम समृद्ध होते हैं, नोट से हम समृद्ध नहीं होते।
प्रश्न: तो हम नोट पैदा करने के लिए भागीदारी करें या वस्तु पैदा करने के लिए भागीदारी करें?
उतर: अभी सर्वोच्च बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग नोट पैदा करने में लगे हैं. सारा नौकरी और व्यापार का प्रपंच नोट पैदा करने के लिए बना है. कोई वस्तु पैदा कर भी रहा है तो उसका उद्देश्य नोट पैदा करना ही है.
इसीलिये सूत्र दिया - "प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है."
कभी कभी मैं सोचता हूँ परिस्थितियों ने मानव को बिलकुल अंधा कर दिया है. मुद्रा (पैसे) के चक्कर में उत्पादक को घृणास्पद और उपभोक्ता को पूजास्पद माना जाता है. उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता - इनके लेन-देन में लाभ-हानि का चक्कर है. उत्पादक लाभ में है या हानि में? व्यापारी लाभ में है या हानि में? उपभोक्ता लाभ में है या हानि में? इसको देखने पर पता चलता है - व्यापारी ही फायदे में है! नौकरी क्या है? व्यापार को घोड़ा बना के सवारी करना नौकरी है. इस तरह नहले पर दहला लगते लगते हम कहाँ पहुँच गए? ऐसे में मानव न्याय के पास आ रहा है या न्याय से दूर भाग रहा है. इस मुद्दे पर सोचने पर लगता है - मानव न्याय से कोसों दूर भाग चुका है.
यह एक छोटा सा निरीक्षण का स्वरूप है. थोड़ा सा हम ध्यान दें तो यह सब हमको समझ में आता है.
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
समझदारी से समाधान प्रमाणित करने के बाद अपने परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित करना भावी हो जाता है। मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है - "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" , जिसमें विश्व-परिवार तक के दस सोपान हैं। अपने परिवार में समृद्धि को प्रमाणित किए बिना कोई व्यक्ति विश्व-परिवार में भागीदारी नहीं कर सकेगा। चोरी, खींचा-तानी ही करेगा! समृद्धि के आधार पर ही व्यक्ति विश्व-परिवार तक अपनी भागीदारी कर सकता है। इस ढंग से मानवीय-व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रता से मुक्त होगा।
समाधान-समृद्धि प्रमाणित किए बिना एक भी आदमी व्यवस्था में नहीं जी सकता। समझदारी के साथ व्यवस्था की स्वीकृति हो जाती है। अस्तित्व में प्रत्येक एक स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है - यह स्पष्ट हो जाता है। मानव में इस व्यवस्था का स्वरूप है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।
शरीर-पोषण, शरीर-संरक्षण, और समाज-गति के लिए समृद्धि चाहिए। जितनी दूर तक समाज-गति में भागीदारी करना है, उतनी समृद्धि चाहिए। समृद्धि के साथ ही समाधान का प्रमाण दूर-दूर तक पहुँचता है। साधनों के साथ ही हम समझदारी को प्रमाणित करते हैं। साधनों को छोड़ कर हम समझदारी को प्रमाणित नहीं करते। शरीर भी जीवन के लिए एक साधन है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव है। मानव ही समझदारी को प्रमाणित करता है। शरीर-पोषण मनुष्य की एक आवश्यकता है। शरीर-संरक्षण मनुष्य की एक आवश्यकता है। ये दोनों होने पर समाज-गति की बात है। एक व्यक्ति ग्राम-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। दूसरा व्यक्ति विश्व-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। जितनी सीमा तक जो व्यवस्था में भागीदारी करने की अभिलाषा रखता है, उतना उसका साधन संपन्न होना - उसकी आवश्यकता है। इस तरह हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता का निश्चयन कर सकता है।
आवश्यकताओं का निश्चयन आवश्यक है। "सभी की आवश्यकताएं समान होनी चाहिए" - यह जबरदस्ती है। जैसे एक व्यक्ति का पेट २ रोटी से भरता है, दूसरे का ४ रोटी से ही भरता है। एक को ३६ इंच की बनियान आती है, दूसरे को ४० इंच की बनियान ही आती है। इसको कैसे समान बनाया जाए? जितने में जो तृप्त हो, वही उसकी आवश्यकता है। आवश्यकताओं में "मात्रा" के अर्थ में समानता नहीं लाई जा सकती। मनुष्य की आवश्यकताएं "प्रयोजन" के साथ सीमित होती हैं। कार्ल मार्क्स ने नारा दिया था - "मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उपभोग करे, सामर्थ्य के अनुसार काम करे।" यह इसलिए असफल हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण करने का कोई आधार नहीं दिया। समझदारी पूर्वक ही आवश्यकता का ध्रुवीकरण सम्भव है। आवश्यकता का ध्रुवीकरण "प्रयोजन" की समझ में ही होता है।
इसके अलावा - यह भी सोचा गया था, धर्म के काम करने वालों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा। वह सोच भी असफल हो गयी। समाज जो ऐसे लोगों को संरक्षण दिया, लेकिन उनसे समाज-कल्याण का कोई सूत्र निकला नहीं। ऐसे धर्म-कर्म करने वालों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद के अलावा और कुछ निकला नहीं। अब समाज इनको कब तक अघोरे?
भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों विचारधाराओं पर चलने से मनुष्य श्रम से कट जाता है। जो जितना पढ़ा, वह उतना ही श्रम से कट गया। श्रम के बिना समृद्धि होती नहीं है।
कर्म-दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से ही है। नौकरी करना भी एक कर्म-दासत्व है। स्वावलंबन समाधान से आता है। उससे पहले स्वावलंबन आता नहीं है। अभी कुछ भी सेंधमारी, जानमारी, लूटमारी करके "स्वावलंबन" की बात की जाती है। स्वावलंबन वास्तविकता में है - सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) या महत्त्वाकांक्षा (दूर-गमन, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण) संबन्धी कोई भी वस्तु का अपने परिवार के पोषण, संरक्षण, और समाज-गति की आवश्यकताओं के लिए श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना। समाधान के बिना स्वावलंबन का प्रवृत्ति ही नहीं आता।
दासता किसी को स्वीकृत नहीं है। मजबूरी में दासता करता है मनुष्य। यह अभ्यास में आने पर ऐसे होता है - जो करने को कहा है, वैसा नहीं करना। कम काम में ज्यादा पैसा माँगना। दासता के साथ व्यवस्था नहीं हो सकती।
प्रश्न: अभी मैं अध्ययन-क्रम में हूँ, साथ में कहीं नौकरी भी कर रहा हूँ। वह दासता मुझे स्वीकृत नहीं है। अब क्या किया जाए?
उत्तर: आपके सामने कुछ जिम्मेवारियां हैं। मानव-परम्परा अभी जीव-चेतना में ही है। ऐसे में - दाम्पत्य, अभिभावकों, और बच्चों की अपेक्षा रहता है - कमाऊ पूत बाकी लोगों का भरण-पोषण करेगा। इस मान्यता को हमें ध्यान में रख कर चलना है। इनको घायल करके नहीं चलना है। इससे पहले आदर्शवादियों ने कहा - परिवार को छोड़ दो, बच्चों को छोड़ दो, सन्यासी हो जाओ... उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं। परिवार-जनों की अपेक्षाएं पुरुषार्थियों से ही होती हैं। जो पुरुषार्थी नहीं हैं, उनसे परिवारजन अपेक्षा भी नहीं करते। अब हमें पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। उसके लिए समझदारी से संपन्न होना आवश्यक है। समझदारी से संपन्न होते तक जो आप नौकरी के लिए दासता करते हो -वह कोई अड़चन नहीं है।
समझदारी से संपन्न होने के बाद स्वयं में यह विश्वास होता है कि मैं समृद्धि पूर्वक अपने सभी दायित्वों को पूरा कर सकता हूँ। जीव-चेतना में बने हुए अपने इन दायित्वों को पूरा करने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य हो पाते हैं। इनको काट कर, घायल कर के आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है।
[अगस्त २००६, अमरकंटक]
अभी तक हम अपने को समझदार माने थे, पर उससे प्रमाण नहीं हुआ। उससे व्यापार ही प्रमाणित हुआ, नौकरी ही प्रमाणित हुआ। व्यापार और नौकरी में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष होता ही है। इस तरह हम कई गलतियों को सही मान कर के चल रहे हैं। इसका आधार रहा - भय और प्रलोभन। अब भय और प्रलोभन चाहिए या समाधान-समृद्धि चाहिए - ऐसा पूछते हैं, तो समाधान-समृद्धि स्वतः स्वीकार होता है। समाधान के लिए कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहिए। हर अवस्था में, हर व्यक्ति समझदार हो सकता है। चाहे वह एक पैसा कमाता हो, एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। समझदार होने का अधिकार सबमे समान है, उसको प्रयोग करने की आवश्यकता है।
पहला घाट है - हमको समझदार होना है। फिर दूसरा घाट है - हमको ईमानदार होना है। समझदारी के अनुसार हमको जीना है, यह ईमानदारी है। तीसरा घाट है - हमको जिम्मेदार होना है। हर सम्बन्ध में जिम्मेदार होना है। चौथा घाट है - हमको अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था में भागीदारी करना है। मानव के जीने का कुल मिला कर योजना और कार्यक्रम इतना ही है।
[जनवरी 2007, अमरकंटक]
व्यापार भी एक गलती का पुलिंदा है। नौकरी भी एक गलती का पुलिंदा है। कितना खतरनाक बात आपके सामने आ रहा है - आप देख लो! एक तरफ़ ७०० करोड़ आदमी हैं व्यापार और नौकरी के लिए। दूसरी तरफ़ एक आदमी यह प्रस्तुत करता है। एक आदमी! अभी आपके सामने मैंने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया - वह सही है या ग़लत? आप और हम यह परामर्श कर रहे हैं - क्या यह विश्लेषण ग़लत है?
प्रश्न: अध्ययन करने के लिए क्या नौकरी वगैरह छोड़ने की आवश्यकता है?
उत्तर: अध्ययन करना हर व्यक्ति के लिए हर अवस्था में सुगम है। चाहे कोई व्यक्ति एक रूपया कमाता हो, या एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। हर व्यक्ति हर अवस्था में अध्ययन कर सकता है। अध्ययन के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है।
आप ही बताओ - झाड़ से पत्ता तोड़ने, और झाड़ से पत्ता गिरने में कितना अन्तर है? पत्ता जब पेड़ से गिरता है, तो पक कर गिरता है। उसी प्रकार मानव-चेतना से संपन्न होने पर हमारी सारी निरर्थकताएं झड़ जाती हैं। यह एक पूरी तरह woundless process है।
जिस तरीके से आप दाना-पानी उपार्जित करते हो - वह ठीक है, या नहीं है - यह समझदारी के बाद समीक्षित होता है। यदि वह तरीका अर्जित-ज्ञान के अनुकूल है, तो हमको क्या तकलीफ है? यदि वह तरीका ज्ञान के अनुकूल नहीं है - तो वह redesign अपने आप से स्वयं में उभर आता है। वह redesign कोई दूसरा आदमी आ कर नहीं करेगा। समझने के बाद अपने जीने का डिजाईन अपने आप से स्वयं में उभर आता है। यह वैसे ही है - जैसे, प्राण-सूत्रों में नयी रचना-विधि अपने आप से उभर आती है।
एक ही डिजाईन में हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! सभी आदमी एक ही डिजाईन में जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगा। हर डिजाईन के साथ स्वावलंबन की स्थिति ध्रुव रहेगी। हमारा अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक आवर्तनशील विधि से श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना ही "स्वावलंबन" है। मानवीयता संपन्न परिवार की आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में।
श्रम पूर्वक उत्पादन करने का डिजाईन समझदारी संपन्न होने पर आपमें अपने आप से निकलेगा। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इसको यदि हम सही तरह से उपयोग कर लेते हैं, तो संसार के लिए उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।
[अगस्त २००६, अमरकंटक]
[अप्रैल २००६, अमरकंटक]
भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।
भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड या universal standard नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।
मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का universal standard है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
भ्रम-मुक्ति का प्रमाण अपराध-मुक्ति है। अपना-पराया से मुक्ति है। इस जगह पर आने के लिए यह प्रस्ताव रखे हैं। वह प्रस्ताव आपको ठीक लग रहा है। यहाँ आने से पहले आप जैसे भी जिए, उससे संतुष्टि नहीं मिली - पर अच्छी तरह जीने के अरमान में आप जिए।
अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।
अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।
प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?
उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।
प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?
उत्तर: गलत है! जीव-चेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।
अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको एडजस्ट करने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।
आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिये!
अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीव-चेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।
आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!
अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिये। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दूसरे की पहचान में आना चाहिये। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।
अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।
देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।
यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।
अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया।
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।
[अगस्त २००६]
अभी तक हम जैसे जी रहे हैं उससे हमको तृप्ति हो रहा है या नहीं इसका निरीक्षण। यदि तृप्ति मिल गया है, तो उसी को किया जाए. यदि तृप्ति नहीं मिला है तो हमको और कुछ समझने की ज़रुरत है, यह निष्कर्ष निकलता है. तब यह प्रस्ताव सामने आता है.
स्वनिरीक्षण ही आधार है, मानव में समझ के लिए प्रयास उदय होने के लिए. दबाव या आरोप से यह नहीं निकलता।
इस क्रम में - चर्चा में, सूचना में और तर्क में यह आता है - "अभी हम सुविधा-संग्रह के लिए काम कर रहे हैं, जिसका कोई तृप्ति-बिंदु ही नहीं है." सूचना के आधार पर स्व निरीक्षण पूर्वक यह निष्कर्ष निकल जाता है. फिर समझदारी को परिपूर्ण करने की प्रवृत्ति होती है. "तृप्ति बिंदु कहाँ है?" - वहाँ पहुँचने के लिए सोच शुरू हो जाती है. हम यहाँ से कैसे निकलें - यह सोच शुरू हो जाती है. तृप्ति को लेकर समझ की सूचना प्रस्ताव के रूप में फिर मिलती है.
कैसे निकलें - यह लोगों की अलग-अलग परिस्थिति अनुसार उनका अलग-अलग फॉर्मेट होगा, लेकिन सभी में साम्य बात होगी - अध्ययन विधि।
अध्ययन का स्त्रोत (प्रमाणित व्यक्ति) और अध्ययन की इच्छा (जिज्ञासु विद्यार्थी) - ये दोनों मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि मानव के जीने का लक्ष्य क्या है, मानव के जीने का सही तौर तरीका क्या है, वैसे जीने के फल-परिणाम क्या है. इस तरह स्वयं में वरीयता (प्राथमिकता) बन जाती है कि हमको समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना है.
प्रश्न: आज की स्थिति में मैं नौकरी कर रहा हूँ, इस प्रस्ताव को सुनने पर वह मुझे "गलत" लगता है. क्योंकि मुझे लगता है - मैं अव्यवस्था में भागीदार हूँ...
उत्तर: उसको अभी "गलत" या "सही" मत ठहराओ। यह पूरा नहीं पड़ रहा है - इतना रखो. तृप्ति के लिए क्या हो सकता है, इसके लिए आपके पास सूचना आया - समाधान-समृद्धि पूर्वक तृप्ति हो सकती है, जिसके लिए दर्शन का अध्ययन पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना आवश्यक है.
अध्ययन से अनुभव पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान स्पष्ट हो जाता है. ज्ञान-विवेक-विज्ञान को जीने का डिज़ाइन समाधान-समृद्धि स्वरूप में मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट हो जाता है. उसको प्रमाणित करने के लिए अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है. उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए शिक्षा विधि स्पष्ट हो जाती है. इसको आचरण करने पर तृप्त रहना बन जाता है, समाधानित रहना बन जाता है, समृद्ध रहना बन जाता है.
प्रश्न: आप कहते हैं अनुभव से पहले मानव में सही जीने का डिज़ाइन ही नहीं बनता। तो क्या आप यह कह रहे हैं कि मैं नौकरी करते-करते अध्ययन करता रहूँ और फिर अनुभव करूँ और फिर जीने का डिज़ाइन बनाऊं?
नहीं। इसमें थोड़ा और सोचने की ज़रूरत है. आप जहाँ हैं वहाँ रहते हुए इस बात का पठन तो कर ही सकते हैं. फिर उसके बाद समझने की बात आती है. अध्ययन विधि से आप वहाँ रहते हुए साक्षात्कार-बोध तक पहुँच सकते हैं, पर अनुभव बिंदु छुटा रहेगा। अनुभव हुआ तो वह नौकरी वाला स्वरूप रहेगा नहीं।
प्रश्न: अनुभव बिंदु कब तक छुटा रहेगा?
जब तक आपमें अनुभव की आवश्यकता सबसे प्राथमिक न हो जाए, और जब तक जिन साधनों को जोड़ने के लिए आप नौकरी करने निकले थे - वह पूरी न हो जाए तब तक. नौकरी छूटने पर आप अनुभव करने के योग्य हो गए क्योंकि नौकरी में रहते हुए अध्ययन पूर्वक आप अनुभव के दरवाजे पर आ चुके होंगे। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होना ही बनता है.
अनुभव के लिए हममे अपेक्षा और साधनों को लेकर हमारी अपेक्षा इन दोनों के बीच में दूरी समाप्त हो जाने पर (यानि अध्ययन को पूरा कर लेने के बाद और साधनों को प्राप्त कर लेने के बाद) अनुभव होता है. इसका कारण है - हम अभी तक जैसा जीने के तरीके को अच्छा मान लिए हैं, जब उसके लिए आवश्यक साधनों के निकटवर्ती स्थिति तक हम पहुँच जाएँ, तभी उसको लेकर जो हम नौकरी आदि उपक्रम किये, उससे हम मुक्त हो सकते हैं.
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
प्रश्न: यदि मेरा नौकरी करना बाधक है, तो उसको मुझे छोड़ देना चाहिए?
उत्तर: समझने के लिए कोई छोड़ने-पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। समझने के बाद "जीने" के लिए आप निर्णय कीजिये - आपको कैसे जीना है? जीने का डिजाईन बनाने की जब बात आती है - तब नौकरी छोड़ना, कुछ नया setup बनाना, या नए setup में शामिल होना - ये सब बात आती है।
प्रश्न: लेकिन इस बात को भी सोचें और नौकरी भी करें - यह बहुत अंतर्विरोधी हो जाता है?
उत्तर: वह तो स्वाभाविक है। नौकरी और व्यापार "जीने" से कोसों दूर हैं। जीने में sincerity है। व्यापार और नौकरी में insincerity है। समझने के बाद निर्णय लेने की ताकत आती है
[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]
प्रश्न: स्वावलंबन के लिए नौकरी करना क्या उचित है?
उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है. भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है. अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है. इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.
स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है. परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है. परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है. इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है.
- (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)
प्रश्न: पैसे के बिना काम कैसे चलेगा?
उत्तर: मानलो आपके पास एक खोली भर के नोट हों. तो भी उससे आप एक कप चाय नहीं बना सकते, एक चींटी तक का पेट उससे नहीं भर सकता। यदि वस्तु नहीं है तो ये नोट या पैसे किसी काम के नहीं हैं. नोट केवल कागज़ का पुलिंदा है, जिस पर छापा लगा है. छापाखाने में छापा लगा देने भर से कागज़ वस्तु में नहीं बदल जाता।
वस्तु को कोई आदमी ही पैदा करता है. वस्तु का मूल्य होता है. नोट पर कुछ संख्या लिखा रहता है. आज की स्थिति में मूल्यवान वस्तु के बदले में ऐसे संख्या लिखे कागज़ (नोट) को पाकर उत्पादक अपने को धन्य मानता है. यह बुद्धूबनाओ अभियान है या नहीं?
नोट अपने में कोई तृप्ति देने वाला वस्तु नहीं है. संग्रह करें तब भी नहीं, खर्च करें तब भी नहीं। नोट का संग्रह कभी तृप्ति-बिंदु तक पहुँचता नहीं है. नोट खर्च हो जाएँ तो उजड़ गए जैसा लगता है. नोट से कैसे तृप्ति पाया जाए? वस्तु से ही तृप्ति मिलती है. वस्तु से ही हम समृद्ध होते हैं, नोट से हम समृद्ध नहीं होते।
प्रश्न: तो हम नोट पैदा करने के लिए भागीदारी करें या वस्तु पैदा करने के लिए भागीदारी करें?
उतर: अभी सर्वोच्च बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग नोट पैदा करने में लगे हैं. सारा नौकरी और व्यापार का प्रपंच नोट पैदा करने के लिए बना है. कोई वस्तु पैदा कर भी रहा है तो उसका उद्देश्य नोट पैदा करना ही है.
इसीलिये सूत्र दिया - "प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है."
कभी कभी मैं सोचता हूँ परिस्थितियों ने मानव को बिलकुल अंधा कर दिया है. मुद्रा (पैसे) के चक्कर में उत्पादक को घृणास्पद और उपभोक्ता को पूजास्पद माना जाता है. उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता - इनके लेन-देन में लाभ-हानि का चक्कर है. उत्पादक लाभ में है या हानि में? व्यापारी लाभ में है या हानि में? उपभोक्ता लाभ में है या हानि में? इसको देखने पर पता चलता है - व्यापारी ही फायदे में है! नौकरी क्या है? व्यापार को घोड़ा बना के सवारी करना नौकरी है. इस तरह नहले पर दहला लगते लगते हम कहाँ पहुँच गए? ऐसे में मानव न्याय के पास आ रहा है या न्याय से दूर भाग रहा है. इस मुद्दे पर सोचने पर लगता है - मानव न्याय से कोसों दूर भाग चुका है.
यह एक छोटा सा निरीक्षण का स्वरूप है. थोड़ा सा हम ध्यान दें तो यह सब हमको समझ में आता है.
[जनवरी २००७, अमरकंटक]
समझदारी से समाधान प्रमाणित करने के बाद अपने परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित करना भावी हो जाता है। मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है - "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" , जिसमें विश्व-परिवार तक के दस सोपान हैं। अपने परिवार में समृद्धि को प्रमाणित किए बिना कोई व्यक्ति विश्व-परिवार में भागीदारी नहीं कर सकेगा। चोरी, खींचा-तानी ही करेगा! समृद्धि के आधार पर ही व्यक्ति विश्व-परिवार तक अपनी भागीदारी कर सकता है। इस ढंग से मानवीय-व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रता से मुक्त होगा।
समाधान-समृद्धि प्रमाणित किए बिना एक भी आदमी व्यवस्था में नहीं जी सकता। समझदारी के साथ व्यवस्था की स्वीकृति हो जाती है। अस्तित्व में प्रत्येक एक स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है - यह स्पष्ट हो जाता है। मानव में इस व्यवस्था का स्वरूप है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।
शरीर-पोषण, शरीर-संरक्षण, और समाज-गति के लिए समृद्धि चाहिए। जितनी दूर तक समाज-गति में भागीदारी करना है, उतनी समृद्धि चाहिए। समृद्धि के साथ ही समाधान का प्रमाण दूर-दूर तक पहुँचता है। साधनों के साथ ही हम समझदारी को प्रमाणित करते हैं। साधनों को छोड़ कर हम समझदारी को प्रमाणित नहीं करते। शरीर भी जीवन के लिए एक साधन है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव है। मानव ही समझदारी को प्रमाणित करता है। शरीर-पोषण मनुष्य की एक आवश्यकता है। शरीर-संरक्षण मनुष्य की एक आवश्यकता है। ये दोनों होने पर समाज-गति की बात है। एक व्यक्ति ग्राम-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। दूसरा व्यक्ति विश्व-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। जितनी सीमा तक जो व्यवस्था में भागीदारी करने की अभिलाषा रखता है, उतना उसका साधन संपन्न होना - उसकी आवश्यकता है। इस तरह हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता का निश्चयन कर सकता है।
आवश्यकताओं का निश्चयन आवश्यक है। "सभी की आवश्यकताएं समान होनी चाहिए" - यह जबरदस्ती है। जैसे एक व्यक्ति का पेट २ रोटी से भरता है, दूसरे का ४ रोटी से ही भरता है। एक को ३६ इंच की बनियान आती है, दूसरे को ४० इंच की बनियान ही आती है। इसको कैसे समान बनाया जाए? जितने में जो तृप्त हो, वही उसकी आवश्यकता है। आवश्यकताओं में "मात्रा" के अर्थ में समानता नहीं लाई जा सकती। मनुष्य की आवश्यकताएं "प्रयोजन" के साथ सीमित होती हैं। कार्ल मार्क्स ने नारा दिया था - "मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उपभोग करे, सामर्थ्य के अनुसार काम करे।" यह इसलिए असफल हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण करने का कोई आधार नहीं दिया। समझदारी पूर्वक ही आवश्यकता का ध्रुवीकरण सम्भव है। आवश्यकता का ध्रुवीकरण "प्रयोजन" की समझ में ही होता है।
इसके अलावा - यह भी सोचा गया था, धर्म के काम करने वालों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा। वह सोच भी असफल हो गयी। समाज जो ऐसे लोगों को संरक्षण दिया, लेकिन उनसे समाज-कल्याण का कोई सूत्र निकला नहीं। ऐसे धर्म-कर्म करने वालों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद के अलावा और कुछ निकला नहीं। अब समाज इनको कब तक अघोरे?
भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों विचारधाराओं पर चलने से मनुष्य श्रम से कट जाता है। जो जितना पढ़ा, वह उतना ही श्रम से कट गया। श्रम के बिना समृद्धि होती नहीं है।
कर्म-दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से ही है। नौकरी करना भी एक कर्म-दासत्व है। स्वावलंबन समाधान से आता है। उससे पहले स्वावलंबन आता नहीं है। अभी कुछ भी सेंधमारी, जानमारी, लूटमारी करके "स्वावलंबन" की बात की जाती है। स्वावलंबन वास्तविकता में है - सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) या महत्त्वाकांक्षा (दूर-गमन, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण) संबन्धी कोई भी वस्तु का अपने परिवार के पोषण, संरक्षण, और समाज-गति की आवश्यकताओं के लिए श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना। समाधान के बिना स्वावलंबन का प्रवृत्ति ही नहीं आता।
दासता किसी को स्वीकृत नहीं है। मजबूरी में दासता करता है मनुष्य। यह अभ्यास में आने पर ऐसे होता है - जो करने को कहा है, वैसा नहीं करना। कम काम में ज्यादा पैसा माँगना। दासता के साथ व्यवस्था नहीं हो सकती।
प्रश्न: अभी मैं अध्ययन-क्रम में हूँ, साथ में कहीं नौकरी भी कर रहा हूँ। वह दासता मुझे स्वीकृत नहीं है। अब क्या किया जाए?
उत्तर: आपके सामने कुछ जिम्मेवारियां हैं। मानव-परम्परा अभी जीव-चेतना में ही है। ऐसे में - दाम्पत्य, अभिभावकों, और बच्चों की अपेक्षा रहता है - कमाऊ पूत बाकी लोगों का भरण-पोषण करेगा। इस मान्यता को हमें ध्यान में रख कर चलना है। इनको घायल करके नहीं चलना है। इससे पहले आदर्शवादियों ने कहा - परिवार को छोड़ दो, बच्चों को छोड़ दो, सन्यासी हो जाओ... उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं। परिवार-जनों की अपेक्षाएं पुरुषार्थियों से ही होती हैं। जो पुरुषार्थी नहीं हैं, उनसे परिवारजन अपेक्षा भी नहीं करते। अब हमें पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। उसके लिए समझदारी से संपन्न होना आवश्यक है। समझदारी से संपन्न होते तक जो आप नौकरी के लिए दासता करते हो -वह कोई अड़चन नहीं है।
समझदारी से संपन्न होने के बाद स्वयं में यह विश्वास होता है कि मैं समृद्धि पूर्वक अपने सभी दायित्वों को पूरा कर सकता हूँ। जीव-चेतना में बने हुए अपने इन दायित्वों को पूरा करने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य हो पाते हैं। इनको काट कर, घायल कर के आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है।
[अगस्त २००६, अमरकंटक]
अभी तक हम अपने को समझदार माने थे, पर उससे प्रमाण नहीं हुआ। उससे व्यापार ही प्रमाणित हुआ, नौकरी ही प्रमाणित हुआ। व्यापार और नौकरी में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष होता ही है। इस तरह हम कई गलतियों को सही मान कर के चल रहे हैं। इसका आधार रहा - भय और प्रलोभन। अब भय और प्रलोभन चाहिए या समाधान-समृद्धि चाहिए - ऐसा पूछते हैं, तो समाधान-समृद्धि स्वतः स्वीकार होता है। समाधान के लिए कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहिए। हर अवस्था में, हर व्यक्ति समझदार हो सकता है। चाहे वह एक पैसा कमाता हो, एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। समझदार होने का अधिकार सबमे समान है, उसको प्रयोग करने की आवश्यकता है।
पहला घाट है - हमको समझदार होना है। फिर दूसरा घाट है - हमको ईमानदार होना है। समझदारी के अनुसार हमको जीना है, यह ईमानदारी है। तीसरा घाट है - हमको जिम्मेदार होना है। हर सम्बन्ध में जिम्मेदार होना है। चौथा घाट है - हमको अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था में भागीदारी करना है। मानव के जीने का कुल मिला कर योजना और कार्यक्रम इतना ही है।
[जनवरी 2007, अमरकंटक]
व्यापार भी एक गलती का पुलिंदा है। नौकरी भी एक गलती का पुलिंदा है। कितना खतरनाक बात आपके सामने आ रहा है - आप देख लो! एक तरफ़ ७०० करोड़ आदमी हैं व्यापार और नौकरी के लिए। दूसरी तरफ़ एक आदमी यह प्रस्तुत करता है। एक आदमी! अभी आपके सामने मैंने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया - वह सही है या ग़लत? आप और हम यह परामर्श कर रहे हैं - क्या यह विश्लेषण ग़लत है?
प्रश्न: अध्ययन करने के लिए क्या नौकरी वगैरह छोड़ने की आवश्यकता है?
उत्तर: अध्ययन करना हर व्यक्ति के लिए हर अवस्था में सुगम है। चाहे कोई व्यक्ति एक रूपया कमाता हो, या एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। हर व्यक्ति हर अवस्था में अध्ययन कर सकता है। अध्ययन के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है।
आप ही बताओ - झाड़ से पत्ता तोड़ने, और झाड़ से पत्ता गिरने में कितना अन्तर है? पत्ता जब पेड़ से गिरता है, तो पक कर गिरता है। उसी प्रकार मानव-चेतना से संपन्न होने पर हमारी सारी निरर्थकताएं झड़ जाती हैं। यह एक पूरी तरह woundless process है।
जिस तरीके से आप दाना-पानी उपार्जित करते हो - वह ठीक है, या नहीं है - यह समझदारी के बाद समीक्षित होता है। यदि वह तरीका अर्जित-ज्ञान के अनुकूल है, तो हमको क्या तकलीफ है? यदि वह तरीका ज्ञान के अनुकूल नहीं है - तो वह redesign अपने आप से स्वयं में उभर आता है। वह redesign कोई दूसरा आदमी आ कर नहीं करेगा। समझने के बाद अपने जीने का डिजाईन अपने आप से स्वयं में उभर आता है। यह वैसे ही है - जैसे, प्राण-सूत्रों में नयी रचना-विधि अपने आप से उभर आती है।
एक ही डिजाईन में हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! सभी आदमी एक ही डिजाईन में जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगा। हर डिजाईन के साथ स्वावलंबन की स्थिति ध्रुव रहेगी। हमारा अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक आवर्तनशील विधि से श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना ही "स्वावलंबन" है। मानवीयता संपन्न परिवार की आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में।
श्रम पूर्वक उत्पादन करने का डिजाईन समझदारी संपन्न होने पर आपमें अपने आप से निकलेगा। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इसको यदि हम सही तरह से उपयोग कर लेते हैं, तो संसार के लिए उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।
[अगस्त २००६, अमरकंटक]
ज्ञानार्जन के बाद कार्यक्रम
ज्ञानार्जन करने में सभी स्वतन्त्र हैं। ज्ञानार्जन करने के बाद शुभ-कार्य में प्रवृत्त होना, प्रमाणित होना - यह वेतन-भोगिता के साथ संभव नहीं है। वेतन-भोगिता विधि से आदमी उपकार नहीं कर सकता। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही वेतन-भोगिता विधि और व्यापार-विधि के अभिशाप से मुक्त होने का उपाय है। कुछ लोगों में इस अभिशाप से मुक्त होने का माद्दा तत्काल है, कुछ में नहीं है। जिनके पास माद्दा है, वे बाकियों का सहयोग करें - यही निकलता है।
जीने के तरीके में परिवर्तन समझने के बाद ही होता है। समझने का अधिकार हर किसी के पास है। चाहे चोर हो, डाकू हो - सभी समझ सकते हैं।
"सभी समझ सकते हैं!" - इसी आधार पर हम इस प्रस्ताव का लोकव्यापीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं।
[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
ज्ञानार्जन करने में सभी स्वतन्त्र हैं। ज्ञानार्जन करने के बाद शुभ-कार्य में प्रवृत्त होना, प्रमाणित होना - यह वेतन-भोगिता के साथ संभव नहीं है। वेतन-भोगिता विधि से आदमी उपकार नहीं कर सकता। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही वेतन-भोगिता विधि और व्यापार-विधि के अभिशाप से मुक्त होने का उपाय है। कुछ लोगों में इस अभिशाप से मुक्त होने का माद्दा तत्काल है, कुछ में नहीं है। जिनके पास माद्दा है, वे बाकियों का सहयोग करें - यही निकलता है।
जीने के तरीके में परिवर्तन समझने के बाद ही होता है। समझने का अधिकार हर किसी के पास है। चाहे चोर हो, डाकू हो - सभी समझ सकते हैं।
"सभी समझ सकते हैं!" - इसी आधार पर हम इस प्रस्ताव का लोकव्यापीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं।
[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
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