आत्मा की संतुष्टि
प्रश्न: आत्मा क्या पहले से ही क्रियाशील रहती है या अध्ययन पूर्ण होने के बाद क्रियाशील होगी?
उत्तर: आत्मा क्रियाशील रहती ही है, अधिकार संपन्न रहता है - किन्तु प्रमाणित होने की योग्यता और पात्रता नहीं रहता। अभी मानव परंपरा में भ्रम और अपराध ही प्रचलित है या मानव कल्पना में मान्य है। आत्मा और बुद्धि भ्रम या अपराध को स्वीकारता नहीं है। इसलिए संतुष्ट होता नहीं है। भ्रमित रहते तक तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया होता नहीं है। भ्रमित रहते तक मानव अपराध को ही सही मानता है। उससे आत्मा का संतुष्टि होता नहीं है।
आत्मा की संतुष्टि के लिए अध्ययन है। अध्ययन में पहले सही बात को "विकल्प स्वरूप में" सुनना होता है। अभी तक के जिए हुए से जोड़ कर सुनते हैं तो नहीं बनता। अध्ययन = संस्कार संपन्न होना। संस्कार है - पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति। पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता। गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी है। क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता ज्ञान के अर्थ में हैं।
हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है। हर मानव संतान में यह बात समान है। उसमें कोई परेशानी नहीं है। उसके बाद बच्चा परंपरा के अनुसार ढलता है। अपराधिक परंपरा के अनुसार ढलता है तो अपराध करता है। मानवीय परंपरा में यदि जन्म लेता है तो अध्ययन और अभ्यास पूर्वक संस्कार को ग्रहण करता है। बच्चों में पायी जाने वाली कामना के अनुसार यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
प्रश्न: "बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है।" क्या सभी बच्चों की क्षमता जन्म के समय एक जैसी होती है?
उत्तर: हाँ। सारी मानव जाति के साथ ऐसा "अधिकार" है।
प्रश्न: यदि जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो आपमें जो जिज्ञासा उदय हुई, दूसरों में क्यों नहीं होती दिखती?
उत्तर: उसका कारण है, मैं जहाँ जन्मा था - वहाँ की परम्परा में तीन बात लेकर चले थे - घोर परिश्रम, घोर सेवा और घोर विद्वता। उस विद्वता को लेकर मैं राजी नहीं हुआ, बाकी दो बातों में राजी हो गया।
मैं उस "विद्वता" से इसलिए राजी नहीं हो पाया क्योंकि मैंने देखा कि जैसा मेरे परिवार में "कहते" हैं, वैसा वे "जीते" नहीं हैं। यही मेरी जिज्ञासा का आधार हुआ। "कहने" और "करने" में साम्यता कैसे हो? - यह जिज्ञासा हुई। यही "पात्रता" है। पात्रता के आधार पर ही समझ हासिल होता है।
प्रश्न: जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो - आपके भाई-बंधु तो उस विद्वता से राजी हो गए, फिर आप क्यों राजी नहीं हो पाए?
उत्तर: "राजी हो पाने" या "राजी नहीं हो पाने" की बात जन्म के बाद, शरीर यात्रा के साथ शुरू होती है। यह हर शरीर यात्रा (हर व्यक्ति) के साथ भिन्न-भिन्न होता है - क्योंकि हर शरीर भिन्न है। जन्म के समय सबकी क्षमता समान होने का कारण है - (जन्म के समय) जीवन की समान क्षमता व्यक्त होती है। उसके अनुकूल वातावरण मिलता नहीं है, क्योंकि अभी तक मानव शरीर के आधार पर जिया है, जीवन के आधार पर जिया नहीं है। जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर स्वयं को शरीर ही मान लेता है। इस कारण जन्म के समय क्षमता एक जैसी होते हुए भी अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग स्वीकृतियाँ हो जाती हैं। प्रधान रूप में जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उसके अनुसार स्वीकृतियाँ होती हैं। बच्चा परिवार को मानने, परिवार के कार्यक्रम को मानने और परिवार के फल-परिणाम को मानने से शुरू करता है।
प्रश्न: क्या आप अपने बचपन में जैसा "कहते" थे, वैसा "जीते" थे?
उत्तर: नहीं। मैं भी जैसा कहता था, वैसा जीता नहीं था। "जीना" अभी आया - यह समझ हासिल होने के बाद। जैसा "कहते" हैं वैसा "जीते" नहीं हैं - यह गलत है, ऐसा मुझे स्वीकार हुआ। सही क्या है - यह तब पता नहीं था। साधना के बाद "सही" का पता चला। अब अध्ययन विधि से सबको "सही" का पता चलेगा, ऐसा स्वीकार के इस प्रस्ताव को मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।
[जनवरी २०१३, अमरकंटक]
आत्मा की स्थिति
जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन का मध्यांश है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाएं चुप रहती हैं। आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप रहने के फलन में ही भ्रमित-मनुष्य में "सुख की आशा" बनी हुई है।
प्रश्न: अध्ययन-काल में आत्मा की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: अनुभव के प्रकट होते तक आत्मा चुप रहता है। अध्ययन काल में आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। प्रबोधन को स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा क्रियाशील हो जाता है। अनुभव-संपन्न हो जाता है। अनुभव-सम्पन्नता जीवन में तृप्ति का आधार है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव-शीलता (अनुभव की निरंतरता) है। अनुभव पूर्वक मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, और संतुलन प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक मनुष्य-प्रकृति के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होता है।
[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
पूर्णता के अर्थ में वेदना
जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मानता है। जीवन अपनी आवश्यकताओं को शरीर से पूरा करने की कोशिश करता है, जो पूरा होता नहीं है, इसलिए अतृप्त रहता है। शरीर में होने वाली संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उनको चुप नहीं कराया जा सकता। संवेदनाओं का चुप होना समाधि की अवस्था में होता है, जब आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं। मानव-परंपरा को संवेदनाओं के नियंत्रण की जरूरत है, न कि संवेदनाओं को चुप करने की।
समाधान या पूर्णता के अर्थ में वेदना ही संवेदना है। वेदना के निराकरण में विचार-प्रवृत्ति के बदलते बदलते सच्चाई के पास पहुँच ही जाते हैं। नियति विधि से मानव में संवेदना जो प्रकट हुई, उसमे तृप्त होने की अपेक्षा है। आदर्शवादियों ने संवेदनाओं को चुप कराने के लिए कोशिश किया – वह सफल नहीं हुआ। भौतिकवादियों ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए कोशिश किया – उससे धरती ही बीमार हो गयी।
आत्मा में अनुभव की प्यास है, इसीलिए संवेदना होती है। इतनी ही बात है। संवेदनाएं होने के आधार पर ही जिज्ञासाएं बनते हैं। जितनी सीमा में मनुष्य जीता है या अभ्यास करता है, उससे अधिक का विचार करता है, बात करता है। अध्ययन पूर्वक आत्मा की प्यास बुझती है। अनुभव होता है, जो जीने में प्रमाणित होने पर आत्मा की प्यास बुझी यह माना जाता है।
प्रश्न: अनुभव पूर्वक जो आत्मा की प्यास बुझती है, क्या उससे आत्मा का कार्य-रूप पहले से बदल जाता है?
उत्तर: नहीं। आत्मा का कार्य-रूप नहीं बदलता। आत्मा की प्यास बुझने पर जीवन में कार्य करने की प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। इस तरह जीवन की दसों क्रियाएँ प्रमाणित होती हैं। अभी ४.५ क्रिया में मानव जी रहा है, इसीलिये उसमे अनुभव का प्यास बना है। ४.५ क्रिया में जीने में तृप्ति नहीं है। ४.५ क्रिया में शरीर-मूलक विधि से जीते हुए तृप्ति के बारे में जो भी सोचा वह गलत हो गया, सभी अपराधों को वैध मान लिया गया।
[सितम्बर २०११, अमरकंटक]
प्रामाणिकता की मुहर
अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!
आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।
अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।
[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]
बुद्धि और आत्मा
प्रश्न: भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा का कार्य-रूप क्या है?
उत्तर: बुद्धि और आत्मा जीवन में अविभाज्य है। भ्रमित-अवस्था में भ्रमित-चित्रणों को बुद्धि अस्वीकारता है और वह चित्रण तक ही रह जाता है, बोध तक नहीं जाता। इसी से भ्रमित-मनुष्य को "गलती" हो गयी - यह पता चलता है। बुद्धि और आत्मा ऐसे भ्रमित-चित्रणों के प्रति तटस्थ बना रहता है - इसके प्रभाव-स्वरूप में कल्पनाशीलता में "अच्छाई की चाहत" बन जाती है। यही भ्रमित-मानव में शुभ-कामना का आधार है। भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा में "सही" के लिए वस्तु नहीं रहती, पर गलती के लिए अस्वीकृति रहती है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
भ्रमित मनुष्य में जीवन की स्थिति
प्रश्न: आपने लिखा है - "मैं निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ, और भ्रमित अवस्था में अंहकार हूँ", उसका क्या मतलब है?
उत्तर: भ्रमित अवस्था में शरीर को ही "मैं" माने रहते हैं। जागृत होने पर जीवन को "मैं" के रूप में जानते और मानते हैं। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जिसका मध्यांश आत्मा है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य में इस मध्यांश का क्या कार्य रूप होता है?
उत्तर: भ्रमित मनुष्य में मध्यांश का कोई कार्य रूप ही नहीं है। भ्रमित मनुष्य में मध्यांश "होने" के रूप में है, "रहने" के रूप में नहीं! "होना" प्राकृतिक-विधि से हो गया। "रहना" - जागृति-विधि से होता है। बुद्धि के साथ भी वैसे ही है। चित्त में न्याय-धर्म-सत्य तुलन दृष्टियों के साथ भी वैसे ही है। जीवन में कल्पनाशीलता- कर्म-स्वतंत्रता वश भ्रमित स्थिति में भी ज्ञान का अपेक्षा बना रहता है।
प्रश्न: कोई आदमी गलती करता है, उसको फ़िर बुरा लगता है - यह कैसे होता है?
उत्तर: हम अच्छा होना चाह रहे हैं, पर अच्छा हो नहीं पा रहे हैं - इसलिए होता है ऐसा।
प्रश्न: "अच्छा होना चाहने" की बात कहाँ से आ गयी?
उत्तर: अच्छा होना चाहने की बात हर मनुष्य में है। अच्छे होने की कल्पना जीवन की ४.५ क्रिया में ही हो जाती है। हम अपने घर-परिवार, गाँव, देश के लोगों से अच्छा होना चाहते ही हैं। यह ४.५ क्रिया में हुई कल्पना ही है। यह अच्छा होना चाहना ही आगे अध्ययन का आधार है।
प्रश्न: अध्ययन-रत मनुष्य के साथ बुद्धि और आत्मा की क्या स्थिति है?
उत्तर: अध्ययन-काल में साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि सही पन को स्वीकारता है। अनुभव में पहुँच के, आत्मा और बुद्धि ही प्रमाण रूप में प्रकट होती है।
[भोपाल, अक्टूबर २००८]
प्रश्न: अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?
उत्तर: अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है. दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है। इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं। परंपरा विधि से अध्ययन है।
प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो". अध्ययन के लिए क्या हमें आपको "मानना" होगा?
उत्तर: यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है। अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो। अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?
[अगस्त 2007, अमरकंटक]
भ्रमित जीवन में अन्तर्निहित अतृप्ति है। इस कारण से किसी भी आवेश को भ्रमित मानव सतही मानसिकता में स्वीकार नहीं कर पाता है। जैसे - लाभोंमादी आवेश, किसी जगह में इस आवेश के साथ चलते हुए, यह "सही" है - हम मान नहीं सकते। कामोंमादी और भोगोंमादी आवेशों के साथ भी ऐसा ही है। यह हमारे जीवन में छिपा हुआ सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत बना हुआ है। इस स्त्रोत के आधार पर अध्ययन पूर्वक हम इन प्रचलित उन्मादों से बच कर निकल सकते हैं।
बुद्धि जीव चेतना के चित्रणों का दृष्टा बना रहता है, किन्तु उसको स्वीकारता नहीं है। बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, वही पीड़ा है। सर्व-मानव में पीड़ा वही है।
आदमी अपने में जो करता है, उसे कहीं न कहीं देखता ही रहता है। क्या देखता है, क्या नहीं देखता है - उसे पता नहीं रहता किन्तु उसमे "उचित"/"अनुचित" को कहीं न कहीं ठहराता ही रहता है। उसी में भ्रमवश हठ-धर्मियता शुरू होती है। उसमे मानव फंस जाता है।
बुद्धि भ्रमित नहीं होती। बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है। बुद्धि की दृष्टि चित्रण की ओर रहता है और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है। प्रामाणिकता न होने से स्वयं में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है। जीव-चेतना की सीमा में कल्पनाशीलता में जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से जीना होता है, उससे बुद्धि में बोध की वस्तु कुछ जाता ही नहीं है। शरीर संवेदना से सम्बंधित बातें बोध की वस्तु नहीं है, इसलिए वह चित्रण से ऊपर जाता नहीं है। उसमे चिंतन की कोई वस्तु नहीं है। उसमे संवेदना है और संवेदनाओं को राजी रखने की प्रवृत्ति है।
भ्रमित-जीवन में बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है.
जीव-चेतना में जीने वाले मनुष्य के जीवन में कल्पनाशीलता प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में क्रियाशील रहता है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जो चित्रण होते हैं, उनको बुद्धि स्वीकारता नहीं है। इस अस्वीकृति से इतना ही निकलता है - "यह ठीक नहीं है!" पर "ठीक क्या है?" - इसका उत्तर नहीं मिलता, क्योंकि बुद्धि में बोध नहीं रहता। मनुष्य प्रिय-हित-लाभ की सीमा में जो भी करता है, वह चित्रण से आगे जाता नहीं है। बुद्धि ऐसे भ्रमित-चित्रणों का दृष्टा बना रहता है।
प्रश्न: तो इसका मतलब भ्रमित-अवस्था में मेरी बुद्धि संकेत तो करती है - यह ठीक नहीं है! लेकिन वह मेरी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि "ठीक क्या है?" इसका उत्तर मेरे पास नहीं रहता। क्या यह सही है?
उत्तर: हाँ, यह सही है। "यह ठीक नहीं है!" - ऐसा अनेक लोगों को लगता है। लेकिन ठीक क्या है, असलीयत क्या है? - यह स्वयं में "अधिकार" नहीं रहता है। उसके लिए क्यों प्रयास नहीं करते? जब आपको लगता है, यह ठीक नहीं है तो सहीपन के लिए आप क्यों प्रयास नहीं करते? इस जगह में सभी को प्राण-संकट है।
बुद्धि द्वारा चित्त में होने वाले चित्रणों को देखने का काम सदा रहता है, सबके पास रहता है। बुद्धि के इस दृष्टा बने रहने से हम यह तो निर्णय ले पाते हैं, कि हम किसी "मान्यता" को लेकर चल रहे हैं। लेकिन असलीयत का अधिकार स्वयं में न होने के कारण हम परम्परा को निभते रहते हैं। यही "हठ-धर्मीयता" है।
भ्रमित-जीवन में बुद्धि जो बोध की अपेक्षा में रहती है, उसकी तृप्ति सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक ही सम्भव है।
[अगस्त 2006, अमरकंटक]
प्रश्न: आत्मा क्या पहले से ही क्रियाशील रहती है या अध्ययन पूर्ण होने के बाद क्रियाशील होगी?
उत्तर: आत्मा क्रियाशील रहती ही है, अधिकार संपन्न रहता है - किन्तु प्रमाणित होने की योग्यता और पात्रता नहीं रहता। अभी मानव परंपरा में भ्रम और अपराध ही प्रचलित है या मानव कल्पना में मान्य है। आत्मा और बुद्धि भ्रम या अपराध को स्वीकारता नहीं है। इसलिए संतुष्ट होता नहीं है। भ्रमित रहते तक तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया होता नहीं है। भ्रमित रहते तक मानव अपराध को ही सही मानता है। उससे आत्मा का संतुष्टि होता नहीं है।
आत्मा की संतुष्टि के लिए अध्ययन है। अध्ययन में पहले सही बात को "विकल्प स्वरूप में" सुनना होता है। अभी तक के जिए हुए से जोड़ कर सुनते हैं तो नहीं बनता। अध्ययन = संस्कार संपन्न होना। संस्कार है - पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति। पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता। गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी है। क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता ज्ञान के अर्थ में हैं।
हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है। हर मानव संतान में यह बात समान है। उसमें कोई परेशानी नहीं है। उसके बाद बच्चा परंपरा के अनुसार ढलता है। अपराधिक परंपरा के अनुसार ढलता है तो अपराध करता है। मानवीय परंपरा में यदि जन्म लेता है तो अध्ययन और अभ्यास पूर्वक संस्कार को ग्रहण करता है। बच्चों में पायी जाने वाली कामना के अनुसार यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।
प्रश्न: "बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा के अनुसार रहता है।" क्या सभी बच्चों की क्षमता जन्म के समय एक जैसी होती है?
उत्तर: हाँ। सारी मानव जाति के साथ ऐसा "अधिकार" है।
प्रश्न: यदि जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो आपमें जो जिज्ञासा उदय हुई, दूसरों में क्यों नहीं होती दिखती?
उत्तर: उसका कारण है, मैं जहाँ जन्मा था - वहाँ की परम्परा में तीन बात लेकर चले थे - घोर परिश्रम, घोर सेवा और घोर विद्वता। उस विद्वता को लेकर मैं राजी नहीं हुआ, बाकी दो बातों में राजी हो गया।
मैं उस "विद्वता" से इसलिए राजी नहीं हो पाया क्योंकि मैंने देखा कि जैसा मेरे परिवार में "कहते" हैं, वैसा वे "जीते" नहीं हैं। यही मेरी जिज्ञासा का आधार हुआ। "कहने" और "करने" में साम्यता कैसे हो? - यह जिज्ञासा हुई। यही "पात्रता" है। पात्रता के आधार पर ही समझ हासिल होता है।
प्रश्न: जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो - आपके भाई-बंधु तो उस विद्वता से राजी हो गए, फिर आप क्यों राजी नहीं हो पाए?
उत्तर: "राजी हो पाने" या "राजी नहीं हो पाने" की बात जन्म के बाद, शरीर यात्रा के साथ शुरू होती है। यह हर शरीर यात्रा (हर व्यक्ति) के साथ भिन्न-भिन्न होता है - क्योंकि हर शरीर भिन्न है। जन्म के समय सबकी क्षमता समान होने का कारण है - (जन्म के समय) जीवन की समान क्षमता व्यक्त होती है। उसके अनुकूल वातावरण मिलता नहीं है, क्योंकि अभी तक मानव शरीर के आधार पर जिया है, जीवन के आधार पर जिया नहीं है। जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर स्वयं को शरीर ही मान लेता है। इस कारण जन्म के समय क्षमता एक जैसी होते हुए भी अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग स्वीकृतियाँ हो जाती हैं। प्रधान रूप में जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उसके अनुसार स्वीकृतियाँ होती हैं। बच्चा परिवार को मानने, परिवार के कार्यक्रम को मानने और परिवार के फल-परिणाम को मानने से शुरू करता है।
प्रश्न: क्या आप अपने बचपन में जैसा "कहते" थे, वैसा "जीते" थे?
उत्तर: नहीं। मैं भी जैसा कहता था, वैसा जीता नहीं था। "जीना" अभी आया - यह समझ हासिल होने के बाद। जैसा "कहते" हैं वैसा "जीते" नहीं हैं - यह गलत है, ऐसा मुझे स्वीकार हुआ। सही क्या है - यह तब पता नहीं था। साधना के बाद "सही" का पता चला। अब अध्ययन विधि से सबको "सही" का पता चलेगा, ऐसा स्वीकार के इस प्रस्ताव को मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।
[जनवरी २०१३, अमरकंटक]
आत्मा की स्थिति
जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन का मध्यांश है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाएं चुप रहती हैं। आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप रहने के फलन में ही भ्रमित-मनुष्य में "सुख की आशा" बनी हुई है।
प्रश्न: अध्ययन-काल में आत्मा की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: अनुभव के प्रकट होते तक आत्मा चुप रहता है। अध्ययन काल में आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। प्रबोधन को स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा क्रियाशील हो जाता है। अनुभव-संपन्न हो जाता है। अनुभव-सम्पन्नता जीवन में तृप्ति का आधार है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव-शीलता (अनुभव की निरंतरता) है। अनुभव पूर्वक मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, और संतुलन प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक मनुष्य-प्रकृति के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होता है।
[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
पूर्णता के अर्थ में वेदना
जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मानता है। जीवन अपनी आवश्यकताओं को शरीर से पूरा करने की कोशिश करता है, जो पूरा होता नहीं है, इसलिए अतृप्त रहता है। शरीर में होने वाली संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उनको चुप नहीं कराया जा सकता। संवेदनाओं का चुप होना समाधि की अवस्था में होता है, जब आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं। मानव-परंपरा को संवेदनाओं के नियंत्रण की जरूरत है, न कि संवेदनाओं को चुप करने की।
समाधान या पूर्णता के अर्थ में वेदना ही संवेदना है। वेदना के निराकरण में विचार-प्रवृत्ति के बदलते बदलते सच्चाई के पास पहुँच ही जाते हैं। नियति विधि से मानव में संवेदना जो प्रकट हुई, उसमे तृप्त होने की अपेक्षा है। आदर्शवादियों ने संवेदनाओं को चुप कराने के लिए कोशिश किया – वह सफल नहीं हुआ। भौतिकवादियों ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए कोशिश किया – उससे धरती ही बीमार हो गयी।
आत्मा में अनुभव की प्यास है, इसीलिए संवेदना होती है। इतनी ही बात है। संवेदनाएं होने के आधार पर ही जिज्ञासाएं बनते हैं। जितनी सीमा में मनुष्य जीता है या अभ्यास करता है, उससे अधिक का विचार करता है, बात करता है। अध्ययन पूर्वक आत्मा की प्यास बुझती है। अनुभव होता है, जो जीने में प्रमाणित होने पर आत्मा की प्यास बुझी यह माना जाता है।
प्रश्न: अनुभव पूर्वक जो आत्मा की प्यास बुझती है, क्या उससे आत्मा का कार्य-रूप पहले से बदल जाता है?
उत्तर: नहीं। आत्मा का कार्य-रूप नहीं बदलता। आत्मा की प्यास बुझने पर जीवन में कार्य करने की प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। इस तरह जीवन की दसों क्रियाएँ प्रमाणित होती हैं। अभी ४.५ क्रिया में मानव जी रहा है, इसीलिये उसमे अनुभव का प्यास बना है। ४.५ क्रिया में जीने में तृप्ति नहीं है। ४.५ क्रिया में शरीर-मूलक विधि से जीते हुए तृप्ति के बारे में जो भी सोचा वह गलत हो गया, सभी अपराधों को वैध मान लिया गया।
[सितम्बर २०११, अमरकंटक]
प्रामाणिकता की मुहर
अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!
आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।
अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।
[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]
बुद्धि और आत्मा
प्रश्न: भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा का कार्य-रूप क्या है?
उत्तर: बुद्धि और आत्मा जीवन में अविभाज्य है। भ्रमित-अवस्था में भ्रमित-चित्रणों को बुद्धि अस्वीकारता है और वह चित्रण तक ही रह जाता है, बोध तक नहीं जाता। इसी से भ्रमित-मनुष्य को "गलती" हो गयी - यह पता चलता है। बुद्धि और आत्मा ऐसे भ्रमित-चित्रणों के प्रति तटस्थ बना रहता है - इसके प्रभाव-स्वरूप में कल्पनाशीलता में "अच्छाई की चाहत" बन जाती है। यही भ्रमित-मानव में शुभ-कामना का आधार है। भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा में "सही" के लिए वस्तु नहीं रहती, पर गलती के लिए अस्वीकृति रहती है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
भ्रमित मनुष्य में जीवन की स्थिति
प्रश्न: आपने लिखा है - "मैं निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ, और भ्रमित अवस्था में अंहकार हूँ", उसका क्या मतलब है?
उत्तर: भ्रमित अवस्था में शरीर को ही "मैं" माने रहते हैं। जागृत होने पर जीवन को "मैं" के रूप में जानते और मानते हैं। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जिसका मध्यांश आत्मा है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य में इस मध्यांश का क्या कार्य रूप होता है?
उत्तर: भ्रमित मनुष्य में मध्यांश का कोई कार्य रूप ही नहीं है। भ्रमित मनुष्य में मध्यांश "होने" के रूप में है, "रहने" के रूप में नहीं! "होना" प्राकृतिक-विधि से हो गया। "रहना" - जागृति-विधि से होता है। बुद्धि के साथ भी वैसे ही है। चित्त में न्याय-धर्म-सत्य तुलन दृष्टियों के साथ भी वैसे ही है। जीवन में कल्पनाशीलता- कर्म-स्वतंत्रता वश भ्रमित स्थिति में भी ज्ञान का अपेक्षा बना रहता है।
प्रश्न: कोई आदमी गलती करता है, उसको फ़िर बुरा लगता है - यह कैसे होता है?
उत्तर: हम अच्छा होना चाह रहे हैं, पर अच्छा हो नहीं पा रहे हैं - इसलिए होता है ऐसा।
प्रश्न: "अच्छा होना चाहने" की बात कहाँ से आ गयी?
उत्तर: अच्छा होना चाहने की बात हर मनुष्य में है। अच्छे होने की कल्पना जीवन की ४.५ क्रिया में ही हो जाती है। हम अपने घर-परिवार, गाँव, देश के लोगों से अच्छा होना चाहते ही हैं। यह ४.५ क्रिया में हुई कल्पना ही है। यह अच्छा होना चाहना ही आगे अध्ययन का आधार है।
प्रश्न: अध्ययन-रत मनुष्य के साथ बुद्धि और आत्मा की क्या स्थिति है?
उत्तर: अध्ययन-काल में साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि सही पन को स्वीकारता है। अनुभव में पहुँच के, आत्मा और बुद्धि ही प्रमाण रूप में प्रकट होती है।
[भोपाल, अक्टूबर २००८]
प्रश्न: अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?
उत्तर: अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है. दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है। इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं। परंपरा विधि से अध्ययन है।
प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो". अध्ययन के लिए क्या हमें आपको "मानना" होगा?
उत्तर: यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है। अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो। अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?
[अगस्त 2007, अमरकंटक]
भ्रमित जीवन में अन्तर्निहित अतृप्ति है। इस कारण से किसी भी आवेश को भ्रमित मानव सतही मानसिकता में स्वीकार नहीं कर पाता है। जैसे - लाभोंमादी आवेश, किसी जगह में इस आवेश के साथ चलते हुए, यह "सही" है - हम मान नहीं सकते। कामोंमादी और भोगोंमादी आवेशों के साथ भी ऐसा ही है। यह हमारे जीवन में छिपा हुआ सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत बना हुआ है। इस स्त्रोत के आधार पर अध्ययन पूर्वक हम इन प्रचलित उन्मादों से बच कर निकल सकते हैं।
बुद्धि जीव चेतना के चित्रणों का दृष्टा बना रहता है, किन्तु उसको स्वीकारता नहीं है। बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, वही पीड़ा है। सर्व-मानव में पीड़ा वही है।
आदमी अपने में जो करता है, उसे कहीं न कहीं देखता ही रहता है। क्या देखता है, क्या नहीं देखता है - उसे पता नहीं रहता किन्तु उसमे "उचित"/"अनुचित" को कहीं न कहीं ठहराता ही रहता है। उसी में भ्रमवश हठ-धर्मियता शुरू होती है। उसमे मानव फंस जाता है।
बुद्धि भ्रमित नहीं होती। बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है। बुद्धि की दृष्टि चित्रण की ओर रहता है और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है। प्रामाणिकता न होने से स्वयं में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है। जीव-चेतना की सीमा में कल्पनाशीलता में जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से जीना होता है, उससे बुद्धि में बोध की वस्तु कुछ जाता ही नहीं है। शरीर संवेदना से सम्बंधित बातें बोध की वस्तु नहीं है, इसलिए वह चित्रण से ऊपर जाता नहीं है। उसमे चिंतन की कोई वस्तु नहीं है। उसमे संवेदना है और संवेदनाओं को राजी रखने की प्रवृत्ति है।
भ्रमित-जीवन में बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है.
जीव-चेतना में जीने वाले मनुष्य के जीवन में कल्पनाशीलता प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में क्रियाशील रहता है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जो चित्रण होते हैं, उनको बुद्धि स्वीकारता नहीं है। इस अस्वीकृति से इतना ही निकलता है - "यह ठीक नहीं है!" पर "ठीक क्या है?" - इसका उत्तर नहीं मिलता, क्योंकि बुद्धि में बोध नहीं रहता। मनुष्य प्रिय-हित-लाभ की सीमा में जो भी करता है, वह चित्रण से आगे जाता नहीं है। बुद्धि ऐसे भ्रमित-चित्रणों का दृष्टा बना रहता है।
प्रश्न: तो इसका मतलब भ्रमित-अवस्था में मेरी बुद्धि संकेत तो करती है - यह ठीक नहीं है! लेकिन वह मेरी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि "ठीक क्या है?" इसका उत्तर मेरे पास नहीं रहता। क्या यह सही है?
उत्तर: हाँ, यह सही है। "यह ठीक नहीं है!" - ऐसा अनेक लोगों को लगता है। लेकिन ठीक क्या है, असलीयत क्या है? - यह स्वयं में "अधिकार" नहीं रहता है। उसके लिए क्यों प्रयास नहीं करते? जब आपको लगता है, यह ठीक नहीं है तो सहीपन के लिए आप क्यों प्रयास नहीं करते? इस जगह में सभी को प्राण-संकट है।
बुद्धि द्वारा चित्त में होने वाले चित्रणों को देखने का काम सदा रहता है, सबके पास रहता है। बुद्धि के इस दृष्टा बने रहने से हम यह तो निर्णय ले पाते हैं, कि हम किसी "मान्यता" को लेकर चल रहे हैं। लेकिन असलीयत का अधिकार स्वयं में न होने के कारण हम परम्परा को निभते रहते हैं। यही "हठ-धर्मीयता" है।
भ्रमित-जीवन में बुद्धि जो बोध की अपेक्षा में रहती है, उसकी तृप्ति सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक ही सम्भव है।
[अगस्त 2006, अमरकंटक]
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