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Friday, March 24, 2017

समझदारी की घोषणा का मतलब

सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व की वास्तविकताओं को आपने सटीक पहचाना है, इसका प्रमाण आपके जीने में ही आएगा। व्यक्ति के प्रमाणित होने का मतलब - उस व्यक्ति द्वारा अन्य लोगों को समझा देना। प्रमाणित होने का स्वरूप है - समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को कराना। समझदारी का और कौनसा प्रमाण हो सकता है - आप बताओ? समझा देना ही समझे होने का प्रमाण होता है।

प्रश्न: आपने अनुसंधान पूर्वक समझा, उसमें पूरा समझने के बाद ही दूसरों को समझाने की बात रही। लेकिन हम जो अध्ययन विधि से चल रहे हैं, उसमें आप कहते हैं - जितना समझे हो, उतना समझाते भी चलो। इसको समझाइये।

उत्तर: समझाने से अपनी समझ को पूरा करने का उत्साह बनता है। जैसे आपने थोड़ा सा समझा, उसको दूसरे को समझाया - उससे आप में और आगे समझने का उत्साह बनता है। यह खाका ग़लत नहीं है। यह समझने की गति बढाता है। हमें उत्सवित भी रहना है, सच्चाई को समझना भी है, और सच्चाई को प्रमाणित भी करना है। कुछ लोग पूरा समझ के ही समझाना चाहते हैं - वह भी ठीक है। कुछ लोग समझते-समझते समझाना भी चाहते हैं - वह भी ठीक है। लक्ष्य है - समझदारी हो जाए। समझदारी के बिना प्रमाण होता नहीं है। समझदारी के पूरा हुए बिना "जीना" तो बनेगा नहीं। यही कसौटी है। "जीना" बन गया तो समझदारी पूरा हुआ, समझाना बन गया। उसके बाद उत्साहित रहने के अलावा और क्या है - आप बताओ?

इसमें व्यक्तिवाद जोड़ा तो अकड़-बाजी होने लगती है। अकड़-बाजी होती है, तो हम पीछे हो जाते हैं। व्यक्तिवाद जोड़ने से पिछड़ना ही है।

प्रश्न: व्यक्तिवाद के चक्कर से बचने का क्या उपाय है?

उत्तर: स्व-मूल्यांकन को हमेशा ध्यान में रखा जाए। दूसरों को जांचने जाते हैं - तो दिक्कत है। जो स्वयं को पारंगत घोषित किया है, उसे ही जाँचिये। जैसे मैंने अपने को ज्ञान में पारंगत घोषित किया है, आप मुझको जांच ही सकते हैं। मुझको जांचने में किसीको झिझक नहीं होनी चाहिए। मुझको उससे कोई दिक्कत नहीं है।

प्रश्न: समझदारी की घोषणा का क्या मतलब है?

जो स्वयं को समझदार घोषित किया है, उसके परीक्षण से ही अध्ययन करने वाले को अपनी समझ की पुष्टि मिलती है। घोषित किए बिना आपको कोई जांचने जायेगा नहीं।

मैं पहला व्यक्ति हूँ - जिसने स्वयं को समझदारी का प्रमाण घोषित किया। एक आदमी के ऐसे घोषणा किए बिना इस कार्यक्रम में कोई गति हो ही नहीं सकती थी। कितना बड़ा भारी ख़तरा ओढ़ लिया है - आप सोचो!! इसके बावजूद मैं निर्भय हूँ, मुझे कोई आतंक नहीं, कोई शंका नहीं, किसी तरह का प्रतिक्रिया नहीं - क्या बात है यह? क्या चीज है यह? यह एक सोचने का मुद्दा है आप के लिए। मैंने जो समझदारी के प्रमाण होने का जो पहला मील का पत्थर रख कर जो रास्ता शुरू किया - वह ठीक हुआ, ऐसा मैं मानता हूँ।

[अप्रैल २००८, अमरकंटक]

अनुभव एक व्यक्ति को हो सकता है, तो दूसरे को भी हो सकता है.

अनुभव एक व्यक्ति को हो सकता है, तो दूसरे को भी हो सकता है। एक व्यक्ति जो समझ सकता है, कर सकता है - वैसे ही हर व्यक्ति समझ सकता है, कर सकता है। अनुभव संपन्न व्यक्ति के निरीक्षण परीक्षण से एक से दूसरे व्यक्ति के लिए प्रेरणा बनती है। फ़िर उसके लिए दूसरे का प्रयत्नशील होना स्वाभाविक हो जाता है। उसी ढंग से सभी इस बात से जुड़ रहे हैं।

मेरे जीने के तौर-तरीके से जो मैं आप में अनुभव होने का आश्वासन दिलाता हूँ - उसमें तारतम्यता बनता जाता है। उससे आपका विश्वास दृढ़ होता जाता है।

प्रश्न: मुझसे पहले, मुझसे ज्यादा पढ़े- लिखे, अनेक वर्षों से अध्ययन में संलग्न लोग जब अपने अनुभव होने की स्पष्ट घोषणा नहीं कर पाते हैं - तो मेरा विश्वास डगमगा जाता है, कि मैं इसको कभी पूरा समझ पाऊंगा।

उत्तर: इसको escapism में न लगाया जाए। जिम्मेदारी के साथ हम समझते हैं, करते हैं। "हम समझेंगे, और अपनी समझ को जियेंगे।" - यहाँ तक आप अपनी जिम्मेवारी को रखिये। दूसरा समझा या नहीं समझा - उसको अभी मत सोचिये। आप पूरा होने के बाद संसार और ही कुछ दिखने लग जाता है। जैसे मुझ को दिख रहा है कि हर व्यक्ति शुभ चाह रहा है। शुभ के लिए ही सभी प्रयत्न कर रहे हैं। एक दिन पहुँच ही जायेंगे। मेरे पास किसी का विरोध करने का कोई रास्ता ही नहीं है। आप अनुभव करने के बाद वही करोगे, दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

सबको आत्मसात किए बिना (अपना स्वीकारे बिना) हम समाधानित नहीं हो सकते। सबको आत्मसात कैसे करोगे? एक दिन सभी सच्चाई को समझेंगे। यह पहला कदम है। यह फ़िर मिटेगा नहीं। अब उसके बाद हम अपना प्रस्ताव देना शुरू किए। प्रस्ताव में लोगों को सम्भावना दिखने लगी। आपकी इस प्रस्ताव में स्वीकृति मुझ को दृढ़ता प्रदान करता है। उसी प्रकार आप जब दूसरों को प्रबोधित करते हैं तब उससे आप की सुदृढ़ता बनती है। इसमें कोई शंका की बात नही है। केवल ध्यान देने की आवश्यकता है। शरीर को हटा कर जीवन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

प्रश्न: क्या इस बात की कोई सम्भावना है कि इस अनुसंधान का लोकव्यापीकरण न हो? क्या इस बात की सम्भावना है कि आप के रहते कोई भी अपने अनुभव-संपन्न होने की स्पष्ट घोषणा नहीं कर पाये?

उत्तर: इस दशक में आने के बाद अब वह सम्भावना नहीं है। लोग इसको समझ जायेंगे और यह जिन्दा रहेगा - यह आश्वस्ति इस दशक के बाद से हुई। मानव को धरती पर रहना हो तो मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने की घटना सही है। सन् २००० से पहले मैं कहता था - "मानव को धरती पर रहना होगा, तो इसको समझेगा नहीं तो नहीं समझेगा।" अब यह लोकव्यापीकरण हो के ही रहेगा। इस बात का प्रवाह बनेगा - यह तो निश्चित हो गया है। जो लोग इसके अध्ययन में लगे हैं, और प्रोग्राम में लगे हैं - उनके संकेतों से मुझको ऐसा ही लगता है।

[अप्रैल २००८, अमरकंटक]

प्रश्न:  यह एक शरीर यात्रा की बात है या अनेक शरीर यात्राओं की? 

एक ही शरीर यात्रा में समझ, एक ही शरीर यात्रा में समृद्धि, एक ही शरीर यात्रा में प्रमाण।

इन सब बातों को सोच करके हमको इस रास्ते पर चलने के लिए अपनी तैयारी बनाने की ज़रूरत है.  यह भी बात सही है - यह बात स्वयं में प्रवेश होने पर, या साक्षात्कार होने पर यह एक दिन अनुभव तक पहुँचता ही है.   अनुभव होने के बाद उससे पहले जो हम भ्रम-वश वरीयता क्रम बनाये थे - वह ध्वस्त होता ही है.  इस सब को ध्यान में रखते हुए आप निर्णय लो.  ताकि "हम ऐसा नहीं समझे थे, तैसा नहीं समझे थे" - इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप न हों.  अच्छी तरह से सोच के, अच्छी तरह से समझ के, अच्छी तरह से निर्धारित करके, अनुभव करके अपनी प्रतिबद्धता को स्थिर बनाया जाए.

समाधान से यदि हम भली प्रकार से संपन्न हो जाते हैं तो समृद्धि अपने-आप भावी हो जाती है.   समृद्धि के लिए हज़ार रास्ते रखे हैं.

समझदारी हासिल करने में समय लगता है.  साक्षात्कार होने तक.  दस तरह की चीजों में हमारा ध्यान बंटा रहता है, इसके लिए पूरा समय दे नहीं पाते हैं.  इसलिए धीरे-धीरे होगा, कोई आपत्ति नहीं है.  किन्तु साक्षात्कार के बाद यह रुकेगा नहीं।  साक्षात्कार होगा तो बोध होगा ही, अनुभव होगा ही, अनुभव प्रमाण होगा ही.  दूसरा कुछ होता ही नहीं है.

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

आप इस पूरी बात को समझने का अपने में पूरा धैर्य संजोइए, स्वयं पूरा पड़ने के बाद आज यह बात जिस स्तर तक पहुँची है, उससे अगले स्तर तक पहुंचाइये। आगे की पीढी आगे!

प्रश्न: आपसे हमे इस पूरी बात की सूचना मिली, अब इसको अध्ययन करके अनुभव करने की आवश्यकता है। क्या इस क्रम में ऐसा हो सकता है कि मुझे भ्रम हो जाए कि मुझे 'अनुभव' हो गया है, 'पूरा समझ' आ गया है - जबकि वास्तव में ऐसा न हुआ हो?

उत्तर: अनुभव होता है तो वह जीने में समाधान-समृद्धि पूर्वक प्रमाणित होता है। वही तो कसौटी है। सूचना देना समाधान देना नहीं है। समाधान जी कर ही प्रमाणित होता है। समाधान का वितरण करना शुरू करते हैं, तो सभी स्तरों पर समझा पाते हैं। आप मुझे देखिये - किसी भी बारे में समाधान प्रस्तुत करने में मुझ पर कोई दबाव नहीं पड़ता है। मैं अपने गुरु जी से पूछ के बताऊंगा, कोई किताब को पढ़ कर बताऊंगा - ऐसा कहने की कोई जरूरत मुझे नहीं है। समाधान की कसौटी में उतरे बिना एक भी व्यक्ति प्रमाणित नहीं होगा। "मैं प्रमाणित हूँ" - यह कहने के लिए जाँचिये, क्या आप समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हैं? शरीर की आवश्यकता के लिए समृद्धि, जीवन की आवश्यकता के लिए समाधान।

[जुलाई २०१०, अमरकंटक]

अध्ययन से हम साक्षात्कार पूर्वक वस्तु-बोध तक पहुँच जाते हैं। उसके बाद अनुभव होना भावी हो जाता है। फ़िर अनुभव को प्रमाणित करना हर व्यक्ति का दायित्व है। 

प्रमाण अनुभव मूलक विधि से ही सम्भव है। यह प्रमाण आचरण के स्वरूप में ही होता है। 

जब तक हम शब्द का उच्चारण करते हैं - हमको वस्तु-बोध हो गया, यह विश्वास नहीं होता। अनुभव होने का प्रमाण आचरण ही है। 

अनुभव होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण होता ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप है - मूल्य, चरित्र, और नैतिकता। आचरण के साथ समाधान, और समाधान के साथ समृद्धि होती है। आचरण से, या जीने से ही यह स्पष्ट होता है - वस्तु-बोध हुआ कि नहीं? 

व्यवहार में यदि किसी से यदि मानवीयता पूर्ण आचरण मिलता है - तो उसमें शंका करने की क्या जरूरत है? मानवीयता पूर्ण आचरण, समाधान, समृद्धि को कोई व्यक्ति प्रमाणित करता है - मतलब वह जागृत है। जैसे - कल आप ही कहोगे कि "हम समझ गए"। अब उस पर मेरा अविश्वास करने की कोई बात ही नहीं है।  आपके सत्यापन पर मेरा विश्वास करने के अलावा और कुछ नहीं करना बनता - जब तक आप के आचरण से उस सत्यापन के विपरीत बात का संकेत नहीं मिलता। आप जो कह रहे हो - आप के अनुसार वह ठीक है।   यदि आगे चल कर उसमे कमी मिलती है तो उसका सुधार होना भावी हो जाता है.  इस तरह कोई दबाव-खिंचाव है ही नहीं!

अनुभव पहले किसी को नहीं हुआ - यह मैंने नहीं कहा है। 
अनुभव प्रमाणित नहीं हुआ, जागृति का परम्परा नहीं बना - यह जोर से कहा है। 

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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