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Saturday, March 18, 2017

अनुकरण


स्वयं में विश्वास नहीं है तो दूसरे पर विश्वास करना सम्भव नहीं है। आज के प्रचलित तरीके से जीने से आदमी अहमता के आधार पर अकेला हो गया है, जबकि वास्तविक रूप में नियति विधि से आदमी सह-अस्तित्व में है।

प्रश्न: मनुष्य के मनुष्य से जुड़ने की विधि क्या हो?

उत्तर: पहले हम "श्रेष्ठता" के साथ जुड़ते हैं, फ़िर "समानता" के साथ जुड़ते हैं। "यह व्यक्ति मेहनत करके कुछ पाया है" - ऐसी श्रेष्ठता के अनुमान के साथ आप मुझसे जुड़े हो। ज्ञान में समानता, विचार में समानता, और प्रयोजन में समानता - इन तीन जगह में समानता आने पर समानता के साथ जीना बन जाता है। समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने के दो बिन्दु पहचाने - (१) अमीरी-गरीबी में संतुलन, (२) नर-नारी में समानता। मनुष्य के इस तरह व्यवस्था में जीने के लिए उसका "समझदार" होना आवश्यक है - यह मैंने स्वीकारा है। समझदारी के पहले आदमी का व्यवस्था में जीना बनेगा नहीं।

प्रश्न: समझदार होने तक क्या किया जाए?

उत्तर: समझदार होने तक समझदार व्यक्ति का अनुकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति अगर समझदार होता है, तो वह कुछ लोगों को appeal होता है। कुछ लोगों को वह appeal नहीं भी होता है। इसके साथ यह भी है, अनुभवशील व्यक्ति किसी न किसी को appeal होता ही है, कि "यह श्रेष्ठ व्यक्ति है।" श्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी appeal होता है। इसी लिए अनुकरण की सम्भावना बनती है। जिसको प्रमाण के रूप में स्वीकारते हैं, उसका अनुकरण कर सकते हैं। समझदार व्यक्ति को प्रमाण रूप में स्वीकारने की गवाही उसका अनुकरण करने में है।

प्रश्न: अध्ययन काल में (समझदार होने तक) बाकी लोगों के साथ संबंधों में क्या किया जाए?

उत्तर: शिष्टता का निर्वाह। मैं भी समझदार नहीं हुआ हूँ, आप भी समझदार नहीं हुए हैं - उस स्थिति में शिष्टता का निर्वाह हो सकता है। दो में से एक व्यक्ति समझदार होता है, तो अध्ययन और अनुकरण की सम्भावना बनती है। दोनों के समझदार होने पर समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात बनती है।

प्रश्न: आपकी किस बात का अनुकरण करें?

उत्तर: समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का। और किस बात का अनुकरण करोगे? समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना अनुकरण योग्य है।

साक्षात्कार-बोध के लिए निरंतर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ऐसे प्रयत्न करते हुए हमारी दिनचर्या भी उसके अनुकूल होना आवश्यक है। अपने "करने" का यदि अपने "सोचने" से विरोधाभास रहता है तो साक्षात्कार-बोध नहीं होता। पुनः हम शरीर-मूलक विधि में ही रह जाते हैं। आवेश के साथ अध्ययन नहीं होता। आवेश अध्ययन के लिए अड़चन है।

पहले रास्ता ठीक होगा, तभी तो गम्य-स्थली तक पहुंचेंगे! रास्ते पर चल कर ही गम्य-स्थली तक पहुँचा जा सकता है। रास्ते पर हम चलें नहीं, और हमें गम्य-स्थली मिल जाए, ऐसा कैसे हो? इसके लिए हमें यह जांचने की ज़रूरत है - क्या हमारा "करना" हमारे गम्य-स्थली तक पहुँचने के लिए अवरोध तो पैदा नहीं कर रहा है? हम जैसा सोचते हैं, वैसा करें भी, वैसा कहें भी, वैसे फल-परिणामो को पाएं भी, वैसा प्रमाणित भी करें - यही "गम्य-स्थली" है। 

जैसे - हम "नियम" का अध्ययन कर रहे हैं, और हमारा आचरण नियम के विपरीत हो - तो इसमें अंतर्विरोध हो गया। इस अंतर्विरोध के साथ नियम का साक्षात्कार नहीं होता। अध्ययन के साथ "स्वयं का शोध" चलता रहता है। मैं जो समझ रहा हूँ, क्या मैं उसके अनुरूप जी रहा हूँ? इसको पूरा करने के लिए ही "अनुकरण विधि" है।

अध्ययन एक "निश्चित साधना" है। अध्ययन रुपी साधना के साथ "समाधान-समृद्धि" के मॉडल का अनुकरण किया जा सकता है। यह आदर्शवाद के प्रस्ताव से भिन्न है, जिसमें साधना के साथ सामने कोई मॉडल रहता नहीं है। आदर्शवादी साधना में अनुकरण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भौतिकवाद में साधना का कोई मतलब ही नहीं है। भौतिकवाद में उपलब्धि या गम्य-स्थली के रूप में यंत्र है। यंत्र को खरीदो और प्रयोग करो - इतना ही है।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
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प्रश्न: आप कहते हैं - "समझ के करो!" हम जब इस प्रस्ताव को "समझने" के क्रम में हैं, उस दौरान अपने "करने" का क्या किया जाए?

उत्तर: अनुभव के लिए समझना है। अनुभव के बाद "समझ के करना" ही होता है। "समझने" की अन्तिम-बात अनुभव में है। अनुभव से कम दाम में किसी भी मुद्दे में संतुष्टि नहीं होता - न किसी सम्बन्ध में, न मूल्यों में, न लेन-देन में। तब तक "करने" के लिए बताया है - अनुकरण। अपने जीने के डिजाईन में अनुकरण विधि से आप परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ। आप उसको अनुकरण कर सकते हैं। यदि ऐसा कर पाते हैं, तो अपने लिए काफी सहूलियत हो गयी। हर दिन अपने वातावरण में कमियों के प्रति शर्मिंदा होने के स्थान पर आगे अनुभव के लिए हम प्रयत्न कर सकते हैं। ऐसा अनुकरण अध्ययन के लिए सहायक है।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
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प्रश्न: अध्ययन के साथ "अनुकरण" की क्या भूमिका है?

उत्तर: प्रौढ़ व्यक्तियों को अनुकरण करने को कम कहा है। बच्चों के लिए ज्यादा कहा है। एक आयु के बाद व्यक्ति अपने को समझा हुआ मान लेता है। ऐसे व्यक्ति को समझाने के लिए यह मान कर चलते हैं - "थोड़ा समझाने के बाद वे विचार पूर्वक समझ जायेंगे"। उनका "सम्मान" यही है। यही "गंभीरता" भी है। "न्याय" भी यहाँ यही है।

बच्चों में अपने अभिभावकों का अनुकरण की बात सर्वाधिक है। भाषा का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। कार्य, व्यवहार, और रहन-सहन का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। अभी की स्थिति में "समझदारी" को लेकर अभिभावक अनुकरणीय नहीं बन पा रहे हैं। अभिभावकों को स्वयं समझदारी का पता नहीं है तो बच्चों को क्या अनुकरण करायेंगे। इसकी पूर्ति के लिए अभिभावकों को समझदार होना ही पड़ेगा।

किसका अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - "मानवीयता पूर्ण आचरण" को प्रमाणित करने वाले व्यक्ति का (समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हुए व्यक्ति का) का अनुकरण किया जाए।

कब तक अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - पूरा समझने तक, पूरा हृदयंगम होने तक, पूरा प्रमाणित होने तक। ऐसे अनुकरण करने से अध्ययन में मदद मिलती है।

अनुकरण करने का मतलब है - "मजबूरन" कुछ करना। "सही" को हम सहमति पूर्वक स्वीकार के अनुकरण कर सकते हैं। यदि हम "अपराध" के लिए सहमत हो कर उसका अनुकरण कर सकते हैं, तो "सही" के लिए सहमत हो कर अनुकरण करने में क्या तकलीफ है?  
[ अक्टूबर २००९, हैदराबाद ]

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प्रश्न: "समाधान का अनुकरण" से क्या आशय है?

उत्तर: शब्द या लेख के आधार पर अनुकरण - पठन के रूप में। उसके बाद अर्थ के आधार पर अनुकरण - अध्ययन के रूप में। अध्ययन के फलन में अनुभव के आधार पर स्वत्व हो जाता है। अनुकरण का विधि और प्रयोजन यही है।

वेदज्ञों के परिवार में जन्मने के बाद मैंने उनका अनुकरण किया, उनका भाषा प्रयोग किया, उसके बाद उसके अर्थ में गया। अर्थ में गया तो सारा वितंडावाद हो गया। अनुभव तो दूर रह गया! इस कष्ट को मिटाने के लिए अनुसन्धान किया, जिससे मध्यस्थ-दर्शन उपलब्ध हुआ।

अब मध्यस्थ-दर्शन में पठन, अध्ययन, और अनुभव का क्रम सध गया। अनुभव-मूलक विधि से जीने वाले का अनुकरण करने से शब्द के अर्थ में जाना बन जाता है। शब्द के अर्थ में जाने के बाद अनुभव में जीना बन जाता है। अनुभव में जीना बनता है तो प्रमाण होता ही है।

अध्ययन को छोड़ कर केवल अनुकरण करने से कुछ समय तक तृप्ति है, पर तृप्ति की निरंतरता नहीं बनती। यही अध्ययन और अनुभव की आवश्यकता है।

सूचना को दोहराने से अर्थ की ओर ध्यान जाता ही है। अर्थ को जब शोध करते हैं तो अपना स्वत्व होने की जगह में पहुँच ही जाते हैं। अध्ययन को आत्मसात करने की विधि है - अनुकरण।

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]
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अनुमान से अनुभव तक पहुँचते हैं। अनुभव होता है, तो अनुमान सही है। अनुभव नहीं होता, तो अनुमान सही नहीं है। अनुमान करने की ताकत कल्पनाशीलता के स्वरूप में हर व्यक्ति के पास है। उसके सहारे अनुभव तक पहुँच सकते हैं। जीने में जो प्रमाणित हो सके, वह अनुमान सही है। जीना प्रमाण ही होता है, अनुमान नहीं होता। जीने के अलावा और किसी चीज को प्रमाण कैसे माना जाए? "मैं प्रमाणित स्वरूप में जी रहा हूँ" - इस जगह आपको आना है।

अनुक्रम से अनुभव होता है। जो कुछ भी होना हुआ है, और जो कुछ भी होना है - वह अनुक्रम है। अनुक्रम का अर्थ है - एक से एक जुडी हुई श्रंखला विधि। इस विधि को पूरा समझने से अनुमान होता है। अनुमान होने के बाद अनुभव होता है। अनुभव होने के बाद प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रमाण होता है। मानव के सुधरने के लिए, सुसज्जित होने के लिए यही विधि है। 

अध्ययन में यदि मन लगता है तो अनुभव हो जाएगा। 
अध्ययन में मन नहीं लगता है तो अनुभव नहीं होगा।

अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है। अनुभव के पहले अनुकरण-अनुसरण विधि से "अच्छा लगने" की स्थिति में आ जाते हैं, "अच्छा होना" नहीं होता। केवल अनुसरण-अनुकरण पर्याप्त नहीं है। जीने में प्रमाणित होने पर ही "अच्छा होना" होता है। 

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]

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मैंने जब अध्ययन किया तो मेरे पास अस्तित्व को पढने के लिए पहले से सूचना उपलब्ध नहीं था। जो मैंने समझा उसकी सूचना आपके अध्ययन के लिए मैंने प्रस्तुत किया है। मैंने बिना सूचना के ही जो अध्ययन कर लिया, उसको सूचना के साथ अध्ययन करके अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है?

प्रश्न: हम अभी अध्ययन-क्रम में हैं। जितना समझे हैं, उसको अनुकरण-अनुसरण पूर्वक जीने का प्रयास भी कर रहे हैं। फिर भी उत्साह कभी कभी ऊपर-नीचे होता रहता है। उत्साह को कैसे बनाए रखें?

उत्तर: अनुभव के लिए उत्साह को बनाए रखिये - सूचना के आधार पर। आगे चलकर इसको अनुभव करेंगे... इस तरह। सौ हथौड़े की चोटों के बाद एक विशाल पत्थर टूटता है। ९९ चोटें रही, तभी १००वी चोट पर पत्थर टूटता है। जितनी सीमा तक समझ को जी पाते हैं, उससे खुशी भी मिलती है - जिससे आगे के लिए उत्साह बना रहता है। प्रमाण अनुभव के बाद ही है।

विरक्ति विधि से मैंने साधना किया था। साधना-काल में हम हर समय खुश-हाली ही मनाते रहे। कभी अभावग्रस्त या पीड़ा-ग्रस्त नहीं हुए। जबकि साधना में हम सूखते ही रहे! आपके लिए अध्ययन का मार्ग कोई विरक्ति-विधि नहीं है। इसीलिये मैं मानता हूँ, सर्व-मानव के लिए सुलभ अध्ययन-विधि ही है।

[अप्रैल  २०१०, अमरकंटक ]

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प्रश्न:  अध्ययन विधि में "अनुकरण"  की क्या भूमिका है?

उत्तर: अनुकरण नहीं है तो अध्ययन किसका करोगे?  कोई जागृत स्वरूप में जीता है, तो उसको देख करके अध्ययन होता है।  वही अनुकरण है।  दूसरी विधि से अध्ययन होता नहीं है।  जागृत होने के लिए दूसरी विधि अनुसंधान ही है। 

प्रश्न:  आपके जागृत स्वरूप में जीने को देख कर मुझ में वैसा जीने की इच्छा बनती है।  क्या वह अध्ययन है?

उत्तर: मेरे जीने को देख कर पहले आप में वैसा जीने की "कल्पना" दौड़ती है, आपका "कार्य" नहीं दौड़ता।  आपका कार्य उसके अनुसार दौड़ने से फिर ठीक हो जाता है।  इच्छा भर होना "व्यक्तिवाद" है।  कार्य भर होना "समाजवाद" है।  अनुभव होना और उसके अनुसार इच्छा और कार्य होना "सहअस्तित्ववाद" है। 

[अनुभव शिविर, २०१३ अमरकंटक]


3 comments:

Alok Chauhan said...

राकेश भाई, नमस्कार, अनुकरण के संबंध में बहुत अच्छा संकलन प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद |
सार रूप में, अध्ययन विधि: अनुकरण ---> समझ -----> अभिव्यक्ति ------> अनुभव |

अभिव्यक्ति समझ को जीने का ही एक हिस्सा है |

अभिव्यक्तियों की समीक्षा अपेक्षित है |

आलोक

Rakesh Gupta said...

मैं इसको ऐसे स्वीकारा हूँ -

अनुकरण, समझ और अभिव्यक्ति linear stages न हो कर, इन तीनो का एक iterative और cyclic process है, जो अनुभव होने पर पूरा होता है. अनुभव होने से पहले "समझ" और "अभिव्यक्ति" दोनों अधूरे ही होते हैं, अध्यापक के अनुकरण क्रम में अब तक की अभिव्यक्ति का मूल्यांकन और आगे समझने का मार्ग-दर्शन मिलता है.

अनुभव से पहले अपनी समझ को पूरा मान लेना भ्रम या अहंकार ही है, जो आगे-पीछे टूट ही जाता है.

कब तक अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - पूरा समझने तक, पूरा हृदयंगम होने तक, पूरा प्रमाणित होने तक।

Alok Chauhan said...

प्रमाणित व्यक्ति का अनुकरण चार प्रकार से हो सकता है:

१. जैसा वह करता है, वैसा ही करने से| (आगे की स्थितियों के लिए सहायक, कल्पना मूलक अभिव्यक्ति)
२. जैसा वह सोचता है, वैसा ही सोचने से| (अध्ययन, तर्क मूलक अभिव्यक्ति)
३. जैसा वह समझता है, वैसा ही समझने से| (अध्ययन, स्वीकृति मूलक अभिव्यक्ति)
४. जैसा वह अनुभव करता है, वैसा ही अनुभव करने से| (अनुभव-मूलक चतुर्थ स्तर की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति)



आलोक