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Monday, March 27, 2017

सत्ता में प्रकृति की सम्पृक्त्ता

मैं क्रियाशील हूँ, सब कुछ क्रियाशील है - यह प्राकृतिक है। मैं कैसे क्रियाशील हूँ? सब कुछ कैसे क्रियाशील है? - यह मनुष्य को समझने की आवश्यकता है। यह समझ में आना = सत्ता में प्रकृति की सम्पृक्त्ता समझ में आना = अस्तित्व में व्यवस्था का सूत्र समझ में आना = स्वयम का व्यवस्था में होने, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप समझ में आना।

प्रश्न: हमको तो व्यापक एक खाली स्थान दीखता है, इससे ज्यादा नहीं! यह खाली स्थान "ऊर्जा" है, इस बात को कैसे समझें?

उत्तर: व्यापक में हम भीगे हैं, डूबे हैं, घिरे हैं - इस तरफ़ आदमी ने सोचा ही नहीं है! हम चारों तरफ़ से व्यापक से घिरे हैं, इस बात से प्रमाण आता है - हम इसमें डूबे हैं। इसके बाद मनुष्य में कल्पनाशीलता है। कल्पनाशीलता केवल मनुष्य में ही है। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम "ज्ञान" तक पहुँचते हैं। व्यापक ही ज्ञान है।

इस प्रस्ताव को जब जीने में परीक्षण करने जाते हैं, तब यह स्वीकार हो जाता है।

प्रश्न: परीक्षण कैसे करें?

उत्तर: इस समझ से जीना ही इसका परीक्षण है। आपके जीवन में ज्ञान (व्यापक) कल्पनाशीलता के रूप में है ही। आपके शरीर में व्यापक ऊर्जा-सम्पन्नता के रूप में है ही। इसी को अनुभव करने की बात है। स्वयं का निरीक्षण-परीक्षण करने से ही अनुभव होगा।

कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम ज्ञान तक पहुँचते हैं। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता प्राकृतिक विधि से एक अधिकार है। उस अधिकार को अध्ययन के लिए प्रयोग करने की बात है।

समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि प्रमाणित होती है।

[भोपाल, अक्टूबर २००८]

सत्ता का स्वरूप है: - पहला, सर्वत्र विद्यमानता या व्यापकता। दूसरा, पारदर्शीयता - हर परस्परता के बीच में, हर जर्रे-जर्रे के बीच में। तीसरे, पारगामियता।

प्रत्येक इकाई में, से, के लिए मध्यस्थ-सत्ता साम्य रूप से प्राप्त है। सत्ता जड़-प्रकृति को साम्य-ऊर्जा के रूप में प्राप्त है। सत्ता चैतन्य-प्रकृति को चेतना के रूप में प्राप्त है। यह सत्ता का वैभव है। सत्ता प्रकृति को नित्य प्राप्त है - इसलिए प्रकृति नित्य-वर्तमान है।

इकाई क्रियाशील है, इसलिए उसमें 'पूर्णता' की बात है। हर क्रियाशीलता 'सम्पूर्ण' है। प्रत्येक इकाई अपने वातावरण सहित 'सम्पूर्ण' है। सम्पूर्णता से पूर्णता तक विकास-क्रम है। पूर्णता है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता। सम्पूर्णता के साथ ही पूर्णता का प्रमाण है।

हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता ही है। कितनी भी सूक्ष्म इकाई हो... कितनी भी स्थूल इकाई हो। एक समझने वाला, एक समझाने वाला - इनके मध्य में सत्ता रहता ही है। तभी समझ पाते हैं, तभी समझा पाते हैं। मध्य में सत्ता न हो, तो न समझ पायेंगे - न समझा पायेंगे। वैसे ही हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता है, जिससे उनमें परस्पर पहचान होती है, निर्वाह होता है।

साधना के फल-स्वरूप मुझे समाधि हुआ। समाधि में गहरे पानी में डूब कर आँखे खोल कर देखने में मधुरिम प्रकाश जैसा दिखता है, वैसा मुझे दिखता रहा। समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप रही, यह आंकलित हो गया। इसमें 'ज्ञान' नहीं हुआ। फिर संयम में सत्ता में अनंत प्रकृति को भीगा हुआ देख लिया। समाधि में जो दिख रहा था, वह 'सत्ता' है - यह स्पष्ट हो गया। समाधि के बाद ही संयम होता है।

प्रकृति की वस्तु में अपने में कोई ताकत नहीं है। ताकत सत्ता है। यदि प्रकृति की इकाई स्वयं में ताकतवर होता, तो उसे सत्ता से अलग होना था! लेकिन सत्ता सब जगह है, सत्ता से इकाई बाहर जा ही नहीं सकती। प्रकृति की इकाई कहीं भी जाए, रहती सत्ता में ही है। इसलिए इकाई ऊर्जामय है। इकाई ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर क्रियाशील है।

ऊर्जा की प्यास वस्तु को है। वस्तु को ऊर्जा की प्यास है। ऊर्जा वस्तु को छोड़ नहीं सकती। वस्तु ऊर्जा को छोड़ नहीं सकती। चैतन्य-प्रकृति चेतना के बिना नहीं रह सकती। जड़-प्रकृति ऊर्जा के बिना नहीं रह सकती। चेतना और ऊर्जा सत्ता ही है। सत्ता के प्रकटन के लिए प्रकृति है। प्रकृति की क्रियाशीलता के लिए सत्ता है। इसके आधार पर दोनों निरंतर अविभाज्य साथ-साथ हैं। जिसको हम "सह-अस्तित्व" नाम दे रहे हैं।

सत्ता में प्रकृति की वस्तु को मिटाने या बनाने की कोई "चाहत" नहीं है। चाहत निश्चित दायरे में होती है। सत्ता निश्चित दायरे में नहीं है। इसलिए उसमें चाहत नहीं है।

[जुलाई २०१०, अमरकंटक]

मैंने जो साधना, समाधि, संयम पूर्वक अध्ययन किया, उसमें  सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा (मतलब समझा)।  सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में मैंने सह-अस्तित्व को पहचाना।  सहअस्तित्व स्वरूप में जड़-चैतन्य प्रकृति को जो देखा - यही "परम सत्य" है, "नित्य वर्तमान" यही है.  उससे यह स्पष्ट हो गया कि जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है.  जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया.  (जड़-जगत में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमें गठनशील परमाणुओं के रूप में परिणाम की अवधियां हैं.  चैतन्य जगत में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है और उसमे गठनपूर्ण परमाणु के रूप में 'परिणाम का अमरत्व' है.)  जड़-जगत में रचना-विरचना होती है, नाश कुछ नहीं होता।  (चैतन्य-प्रकृति में नाश भी नहीं होता और रचना-विरचना भी नहीं होती)

प्रश्न: सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति किस प्रकार से चार अवस्थाओं को प्रकट करती है?

उत्तर: सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है.  सहअस्तित्व के चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए प्रकृति में तीन प्रकार की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया।  इन तीनों क्रियाओं का एक दूसरे से जोड़-जुगाड़ से चार अवस्थाएं बनते हैं.  यदि इनके आपस में जुड़ने से कुछ रह गया तो चार अवस्थाएं प्रकट नहीं होता।  इस प्रकटन को "करने वाला" कोई नहीं है।  यह प्रकटन स्वयंस्फूर्त होता है, किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण नहीं होता।

प्रश्न:  चार अवस्थाओं के प्रकटन में सत्ता का क्या रोल है?  

उत्तर: सत्ता या परमात्मा का "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है.  सत्ता जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा स्वरूप में प्राप्त है. परमात्मा में भीगे रहने से जड़ प्रकृति में क्रिया करने के लिए प्रेरणा है.  यह प्रेरणा न कभी बढ़ता है न घटता है.

प्रश्न:  प्रकृति की क्रियाशीलता से सत्ता (व्यापक वस्तु) पर क्या प्रभाव पड़ता है या सत्ता में क्या अंतर आता है? 

उत्तर: प्रकृति की क्रियाशीलता से व्यापक वस्तु में कोई क्षति (घटना-बढ़ना) होता ही नहीं है.  व्यापक वस्तु में भीगे होने से प्रकृति को क्रिया की प्रेरणा सदा मिलता रहता है.  अभी मिला, बाद में नहीं मिला - ऐसा कुछ होता नहीं है.  यह प्रेरणा हर छोटे से छोटे वस्तु से लेकर बड़े से बड़े वस्तु तक समान स्वरूप में है.  परमाणु अंश में भी क्रियाशीलता देखी जाती है.

प्रश्न: इस प्रकटन क्रम में क्या कोई व्यतिरेक हो सकता है?

उत्तर: सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है.  इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है.  भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है.  भ्रमित मानव यदि परमाणु अंश का भी टुकड़ा कर दे, तो भी हरेक टुकड़ा घूर्णन गति करता रहता है, और एक दूसरे  से जुड़के वे टुकड़े पुनः परमाणु अंश हो जाते हैं.  परमाणु अंश का स्वरूप सभी प्रजातियों के परमाणुओं में समान है.  समानता की शुरुआत परमाणु अंश से है.

प्रश्न:  पदार्थावस्था के परमाणु अंश से शुरू करते हुए ज्ञान-अवस्था के मानव तक के प्रकटन क्रम को समझाइये?

उत्तर: अनेक संख्यात्मक परमाणु अंशों के योग से अनेक प्रजातियों के परमाणु हुए.  ऐसे भौतिक परमाणु जितने प्रजाति के होने हैं, वे सब होने के बाद भौतिक संसार तृप्त हो जाता है.  इस तृप्ति के फलस्वरूप उन परमाणुओं में यौगिक क्रिया करने की प्रवृत्ति बन जाती है.   स्वयंस्फूर्त विधि से यौगिक होते हैं.  यौगिक के प्रकटन में सम्पूर्ण प्रजातियों के परमाणु (भूखे और अजीर्ण) पूरक हो जाते हैं, सहायक हो जाते हैं.  सहअस्तित्व में प्रकटनशीलता का यह पहला घाट है.

यौगिक विधि में सर्वप्रथम जल का प्रकटन हुआ.  यौगिक विधि द्वारा ही धरती पर प्राणावस्था का प्रकटन हुआ.  प्राणावस्था में जितना प्रजाति का भी झाड़, पौधा, औषधि, वनस्पति सब कुछ होना था, उतना होने के बाद जब प्राणावस्था  तृप्त हो गयी तब जीवावस्था के शरीरों की शुरुआत हुई.  जीवावस्था में भुनगी-कीड़ा से चलकर पक्षियों तक, पक्षियों से चल के पशुओं तक जलचर, थलचर, नभचर जीवों का प्रकटन हुआ, जिसमें अंडज और पिण्डज दोनों विधियों से शरीर रचना का होना स्पष्ट हुआ.  जीवावस्था में अनेक प्रकार के जीवों का प्रकटन हुआ जो उनकी आहार पद्दति के अनुसार दो वर्गों में - शाकाहारी और मांसाहारी हुए.  इनमे शाकाहारी जीवों में मांसाहारी जीवों  की अपेक्षा प्रजनन क्रिया अधिक होना देखा गया.  शाकाहारी जीव संसार के संख्या में संतुलन के अर्थ में माँसाहारी जीवों का प्रकटन हुआ - यह मुझे समझ में आया.  जीवावस्था के सभी वंश परंपराएं स्थापित होने के बाद मानव शरीर रचना प्रकट हुई.  मानव शरीर रचना पहले किसी जीव शरीर में ही तैयार हुआ, उसके बाद मानव शरीर परंपरा शुरू हुई,  हर प्रकटन में ऐसा ही है - अगला स्वरूप का भ्रूण पिछले में तैयार होता है, और अगला स्वरूप पिछले से भिन्न हो जाता है.  जैसे - ४ पत्ती वाले पौधे से ५० पत्ती वाले पौधे का प्रकटन हो जाता है.  प्राणकोशाओं  के प्राणसूत्रों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होने के आधार पर यह होता है.  यह प्रकटन उत्सव, खुशहाली, प्रसन्नता, संतुलन, और नियंत्रण के आधार पर होता है.  मानव के प्रकटन से पहले धरती पर सघन वन, पर्याप्त जल, औषधि और सम्पूर्ण प्रकार के जीव संसार तैयार हो चुका  था.  इन्ही के बीच मानव पला.  इस तरह सहअस्तित्व सहज प्रकटन विधि से घोर प्रयास और घोर प्रक्रिया पूर्वक मानव का धरती पर प्रकटन हुआ.

प्रश्न: तो मानव में परेशानी कैसे और कब से शुरू हुई?

उत्तर:  मानव में परेशानी शुरू हुई भ्रम से!   भ्रम कहाँ से आया?  - जीवचेतना से.  मानव शरीर रचना में यह विशेषता आयी कि जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को प्रकाशित कर सके.  मानव के प्रकटन से पहले जीव संसार प्रकट हो चुका था, इसलिए मानव ने अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए जीवों का अनुकरण किया, पहले जीवों के जैसा जीने का प्रयत्न किया फिर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया।   इसके लिए जीवचेतना का ही प्रयोग किया।

मानव ने अपने प्रकटन के साथ ही (भ्रम वश) प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ना शुरू किया।  पहले कृषि के लिए वन का संहार करना शुरू किया।  फिर विज्ञान आने के बाद खनिज का शोषण शुरू कर दिया।  वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु  संतुलन है. ऋतु  संतुलन के बिना मानव सुखी नहीं हो सकता।  मानव शरीर के लिए आवश्यक आहार पैदा नहीं हो सकता।  यह जो मैं बता रहा हूँ इसके महत्त्व को कैसे उजागर करोगे, सोचना!  यह वृथा नहीं जाना चाहिए!

मानव ने अपनी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनाकार  को साकार करने का काम आवश्यकता से अधिक कर दिया, जबकि मनःस्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा.  मनाकार को साकार करने में अतिवाद किया है यह धरती के बीमार होने से गवाहित हो गया है.  धरती के बीमार होने पर अब हम पुनर्विचार कर रहे हैं - ऐसा कैसे हो गया?  इसका उत्तर यही निकलता है - मानव के जीव चेतना में जीने से ऐसा हुआ.

प्रश्न:  आपके अनुसंधान के मूल में जो जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हुआ?" - उसका क्या उत्तर मिला?

उत्तर:  असत्य पैदा नहीं हुआ है.  अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है.  सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व में असत्य का कोई स्थान ही नहीं है.  इसका मतलब, शास्त्रों में जो 'ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या' लिखा है - यह गलत हो गया.  इसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत'.  इस तरह वेद विचार से मिली मूल स्वीकृति ही बदल गयी.  

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

सभी संसार – एक परमाणु-अंश से लेकर परमाणु तक, परमाणु से लेकर अणु रचित रचना तक, अणु रचित रचना से लेकर प्राण-कोषा से रचित रचना तक – का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त होता हुआ समझ में आया। स्वयं-स्फूर्त विधि से ही परमाणु का गठन-पूर्ण होना समझ में आया।

प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया? 

इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।

सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।

सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।

साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।

सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रकटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।

कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।

कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।

साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।

[अप्रैल २०११, अमरकंटक]

पारगामीयता का मतलब है - सब में निर्बाध प्रवेश पूर्वक चले जाना.  विगत में ब्रह्म के बारे में बताया था – “यह सब में समा गया है.”  समाने वाली बात गलत निकल गयी.  “समाने” का मतलब ऐसा निकलता है – जिसमे समाया उसमे रहा, बाकी में नहीं रहा.  यहाँ बताया है – ब्रह्म (सत्ता) जड़-चैतन्य वस्तु में पारगामी है.  मेरे अनुसंधान का पहला प्रतिपादन यही है.  जड़-चैतन्य में पारगामी होने से जड़ में ऊर्जा-सम्पन्नता और चैतन्य में ज्ञान-सम्पन्नता है.  जड़ प्रकृति में मूल-ऊर्जा यही है.  साम्य-ऊर्जा उसको नाम दिया है.  चैतन्य प्रकृति में ज्ञान यही है.  ज्ञान जीव-संसार में चार विषयों में प्रवृत्ति और संवेदना के रूप में प्रकट है.  मानव में संवेदनाएं प्रबल हुआ, तथा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञान-संपन्न होने के लिए प्रवृत्त हुआ.  ज्ञानगोचर को स्वत्व बनाने के लिए मानव के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप में प्रकृति-प्रदत्त है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की तृप्ति के लिए ही पूरा ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर का प्रयोग है.  इन्द्रियगोचर का प्रयोग करने में मानव पारंगत है.  अब ज्ञानगोचर भाग को जोड़ने की आवश्यकता है.  उसको जोड़ने की आवश्यकता क्या है? सुखी होना.  समाधान पूर्वक सुखी होना होता है.  समस्या पूर्वक दुखी होना होता है.  अब प्रोत्साहन है – ज्ञानगोचर को प्राथमिकता दी जाए.  सारा उन्माद इन्द्रिय-गोचर विधि से है.  मानव का अध्ययन इन्द्रिय-गोचर विधि से हो नहीं पाता.  सत्ता में संपृक्त प्रकृति को समझना, जीवन को समझना, सार्वभौमता को समझना, अखंडता को समझना, प्रबुद्धता पूर्ण होना यह ज्ञानगोचर विधि से ही होगा.

मानव जो कुछ भी बात-चीत करता है वह ज्ञान की अपेक्षा में ही करता है.  मानव बहुत सारे भाग में ज्ञानगोचर विधि से जीता ही है.  विषयों और संवेदनाओं में भी मानव जो अभी जीता है वह भी ज्ञानगोचर विधि से ही जीता है.  पहले कल्पना से पहचानता है, फिर उसको शरीर द्वारा करता है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता ज्ञानगोचर ही है.  कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग चेतना-विकास के लिए होने की आवश्यकता है.  इस पर तुलने की ज़रूरत है.  यही मूल मुद्दा है.

प्रश्न: आपने संयम में यह सब देखा/समझा – इसका क्या “प्रमाण” है?

उत्तर: मेरा अपने जैसा दूसरे को बना देना ही इसका प्रमाण है। मेरा प्रत्यक्ष होना ही इसका प्रमाण है। मेरा समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही इसका प्रमाण है। ये तीनो मौलिक बातें हैं। इसकी ज़रूरत है या नहीं – इसको पहले तय करो! जरूरत नहीं है - तो इससे दूर ही रहो। जरूरत है - तो इसको समझो! मेरे अकेले के मेहनत करने से सबका काम चल जाएगा – ऐसा नहीं है। सबको नाक रगड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो आपका “नाक” ही अडेगा! “नाक अड़ने” से आशय है – अहंकार। अहंकार से ही अटके हैं।

आदर्शवाद ने भी अहंकार को लेकर बहुत कुछ कहा है। उसमे सत्य उनको कुछ भासा होगा – तभी उन्होंने ऐसा कहा है। वे प्रमाणित नहीं हो पाए, रहस्य में फंस गए – वह दूसरी बात है।

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव की शुरुआत ही यहाँ से है – “मैं समझ गया हूँ, मेरी समझ दूसरे में अंतरित हो सकती है”। किसको समझाओगे? जो समझना चाहते हैं, उनको समझायेंगे। ऐसे शुरुआत हुआ। दूसरा लहर शुरू हुआ – शिक्षकों को समझायेंगे। तीसरा लहर शुरू हुआ – अभिभावकों को समझायेंगे। शिक्षक समझ कर स्वयं बच्चों और अभिभावकों को समझायेंगे – ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ।
 
[दिसम्बर २००८]

व्यापक में प्रकृति डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरा हुआ है। भीगा हुआ से ऊर्जा-सम्पन्नता है। डूबा हुआ से क्रियाशीलता है। घिरा हुआ से नियंत्रण है। भीगा हुआ के साथ डूबा हुआ और घिरा हुआ बना ही है।

प्रश्न: व्यापक से इकाई घिरे होने से वह नियंत्रित कैसे है?

उत्तर: घिरा होना ही नियंत्रण है। व्यापक से इकाई घिरा न हो तो उसका इकाइत्व कैसे पहचान में आएगा? नियंत्रण का मतलब है - निश्चित आचरण की निरंतरता।

प्रश्न: जड़ प्रकृति में नियंत्रण कैसे है?

उत्तर: हर जड़-इकाई व्यापक वस्तु से घिरी है, इसलिए नियंत्रित है। जड़ वस्तु में अनियंत्रित करने वाली कोई बात नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में घिरा है, फिर वह नियंत्रित क्यों नहीं है?

उत्तर: मनुष्य नियंत्रण चाहता है। पर अपनी मनमानी के अनुसार नियंत्रण चाहता है, उसमें वह असफल हो गया है। पूरा मानव-जाति इसमें असफल हो गया है। असफल होने के बाद हम पुनर्विचार कर रहे हैं।

अनियंत्रित होने के लिए मनुष्य ने प्रयत्न किया, पर हो नहीं पाया। इसके आधार पर पता चलता है, नियंत्रित रहना जरूरी है। मनुष्य के लिए क्या नियंत्रित रहना जरूरी है? इसका शोध करने पर पता चलता है - संवेदनाएं नियंत्रित रहना जरूरी है। संवेदनाएं नियंत्रित कैसे रहेंगी? - इसका शोध करते हैं तो पता लगता है - समझ पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहेंगी। सत्ता में हम घिरे हैं - यह समझ में आने पर संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। सत्ता के बिना चेतना नहीं है। चेतना के बिना मानव-चेतना नहीं है। मानव-चेतना के बिना संवेदनाएं नियंत्रित नहीं हैं।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में सदा डूबा-भीगा-घिरा रहता है, फिर अध्ययन-पूर्वक अनुभव के बाद उसमें तात्विक रूप में ऐसा क्या हो जाता है कि वह निश्चित-आचरण को प्रमाणित करने लगता है?

उत्तर: अध्ययन पूर्वक अनुभव करने से जीवन की प्रवृत्ति बदल जाती है। मनुष्य में तात्विकता उसकी प्रवृत्ति भी है। प्रवृत्ति बदलती है तो आचरण परिवर्तित हो जाता है। कल्पनाशीलता प्रवृत्ति के रूप में है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ज्ञानशीलता या समझ है। ज्ञान-पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने पर मनुष्य द्वारा निश्चित आचरण पूर्वक समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बनता है।

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]

Sunday, March 26, 2017

मध्यस्थ-क्रिया

व्यवस्था का मूल स्वरूप परमाणु है. परमाणु में व्यवस्था का आधार है – मध्यस्थ क्रिया. परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया स्वयं को संतुलित बना कर रखने के स्वरूप में मिला. कैसे? परमाणु के नाभिक में जो अंश हैं, वे घूर्णन गति करते हैं और परिवेशीय परमाणु-अंश वर्तुलात्मक और घूर्णनात्मक दोनों गतियाँ करते हैं. वर्तुलात्मक गति करते हुए परिवेशीय अंशों का नाभिक के बहुत पास आ जाने या नाभिक से बहुत दूर चले जाने का सम्भावना बना रहता है. उसको सटीक अच्छी दूरी में बनाए रखने के लिए मध्यस्थ-क्रिया काम करता रहता है. यही मध्यस्थ-शक्ति है, मध्यस्थ-बल है. हर परमाणु में ऐसा है.

स्वयं में संतुलित रहने के फलन में परमाणु अपने सम्पूर्णता के साथ त्व सहित व्यवस्था में प्रवृत्त हो गया. उसके फलन में परमाणु रसायन-संसार के लिए पूरक हो गया. रसायन-संसार तो आप के सामने गवाही के रूप में प्रत्यक्ष रखा है. स्वयं-स्फूर्त विधि से सह-अस्तित्व जो प्रकट हुआ है, इसी विधि से हुआ है. जिसको मैं देखा हूँ.

सत्ता में संपृक्तता वश हर परमाणु क्रियाशील है. क्रियाशीलता स्थिति-गति स्वरूप में व्यक्त है. क्रिया दो प्रकार से है – स्थिति और गति. स्थिति-क्रिया को हम ‘बल’ नाम दिया. गति में जो कार्य होता है, उसको ‘शक्ति’ नाम दिया.  अभी विज्ञानी स्थिति-क्रिया को पहचानते नहीं हैं. गति को ही कभी बल मानते हैं, कभी शक्ति मानते हैं. जबकि स्थिति में बल और गति में शक्ति होती है. परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को व्यक्त करता है.  मध्यस्थ-क्रिया के फलस्वरूप परमाणु में स्वयं-स्फूर्त कार्य करना, त्व सहित व्यवस्था होना, तथा परमाणु की पूरकता-उपयोगिता सिद्ध हुई. मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को हमें पहचानने की आवश्यकता है – स्वयं नियंत्रित रहने के लिए. एक परमाणु ने भी स्वयं नियंत्रित रहने के लिए मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति का प्रयोग किया है. नियंत्रित रहने से स्वयं की पूरकता और उपयोगिता सिद्ध होती है.

जड़-प्रकृति में कुछ बनना, कुछ बिगडना - यह मनुष्य के पकड़ में आया है। जड़-प्रकृति में "त्व सहित व्यवस्था में होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना" परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया का फलन है. यही स्वभाव-गति है. अस्तित्व में मानव के प्रकटन तक व्यवस्था ही व्यवस्था है. मानव के प्रकटन के बाद व्यवस्था और अव्यवस्था की गणना है.

भौतिक-रासायनिक रचना के स्थूल स्तर पर मध्यस्थ-क्रिया नहीं है. मध्यस्थ-क्रिया परमाणु के स्तर पर है (मध्यांश रूप में), और उसके बाद (जागृत) मानव के साथ है (अनुभव रूप में).

परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता ही रहता है. मध्य में परमाणु-अंश की अवस्थिति के आधार पर उसका मध्यस्थीकरण क्रियाकलाप है. यही परमाणु-अंश यदि परिवेश में हों तो वह परिवेशीय अंश के अनुसार ही काम करता है. परिवेशीय अंश यदि मध्यांश के स्थान पर हों तो वह उसके अनुसार कार्य करता है. परमाणु में यदि एक से अधिक अंश मध्य में होते हैं तो वे सभी मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं. मध्य-स्थिति में होने से मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं, यही स्थान का बल है.

स्थान के अनुसार काम करने की बात प्रकटन-क्रम में प्राण-अवस्था तक आ गया. प्राण-अवस्था की रचना की मूल इकाई प्राण-कोशा है. प्राण-कोशा में निहित प्राण-सूत्रों में रचना विधि समाई है. जड़, तने, पत्ती, फूल, फल सभी में प्राण-कोशा हैं. रचना में जहां पर जो प्राण-कोशा है, वह उस स्थान के अनुसार काम करती है. स्थान के अनुसार काम करने की शुरुआत परमाणु से ही है. पदार्थ-अवस्था में परमाणु-अंशों और प्राण-अवस्था में प्राण-कोशों में अपने स्थान के अनुसार कार्य-रूप है. इस तरह क्रिया करने की बात जीव-अवस्था तक चला. जीव-अवस्था में शरीर के अनुसार जीवन काम करता है. जीव-अवस्था में शरीर के क्रियाकलाप का केन्द्र जीवन हुआ. उस ढंग से जीव-अवस्था की इकाइयां काम करती हैं.

पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, और जीव-अवस्था स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील हैं. कर्ता-पद में मानव ही है. सह-अस्तित्व सहज प्रकटन क्रम मानव तक पहुँचने पर यह बात होने लगी – “हम यह नहीं करेंगे, हम वह नहीं करेंगे. हम यह नहीं चाहेंगे, हम वह नहीं चाहेंगे.”. मानव ही अपने कर्ता होने को पहचानता है. मनुष्येत्तर-प्रकृति क्रिया होते हुए भी उसमें कर्ता पद का ज्ञान नहीं है. इनमें ‘करने’ का स्वीकृति है, पर अपने कर्ता होने का ज्ञान नहीं है.

मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? - यह उसको पता ही नहीं है. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? – उसको पहचानने के लिए हम अध्ययन शुरू किये हैं. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र ‘समझ’ है. अपनी समझ के आधार पर काम करने की बात मानव से ही शुरू हुआ. मानव में समझ दो स्वरूप में है – अविकसित-चेतना और विकसित-चेतना. अविकसित-चेतना में जीने से क्या होता है इस बात के बारे में हम स्पष्ट हो चुके हैं. क्या होना चाहिए? – इसके लिए हम इस प्रस्ताव का अध्ययन शुरू किये हैं.

[दिसम्बर २०१०, अमरकंटक]

प्रश्न: सत्ता को आपने "मध्यस्थ" कहा है। उससे क्या आशय है?

प्रकृति चार अवस्थाओं के रूप में सत्ता में है। सत्ता प्रकृति की क्रियाओं से निष्प्रभावित रहता है। सत्ता पर प्रकृति की क्रियाएं प्रभाव नहीं डालती हैं। प्रकृति की हर क्रिया के मूल में सत्ता-सम्पन्नता रहता ही है। साम्य सत्ता में सम्पूर्ण क्रियाएं डूबे, भीगे, घिरे होने पर भी सत्ता में कोई अंतर नहीं आता है। इसीलिये सत्ता को "मध्यस्थ" कहा है।

मध्यस्थ-सत्ता में संपृक्तता के फलन में ही प्रकृति में मध्यस्थता है। प्रकृति में मध्यस्थता परंपरा के स्वरूप में प्रकट है। सत्ता ही मानव-परंपरा में "ज्ञान" रूप में व्यक्त होता है।

[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]

प्रश्न:  आपने प्रतिपादित किया है - "सत्ता मध्यस्थ है और परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ क्रिया है." मध्यस्थ सत्ता और मध्यस्थ क्रिया में अंतर क्या है?

उत्तर: सत्ता मध्यस्थ है – अर्थात सत्ता सम और विषम प्रभावों से मुक्त है। सत्ता में भीगे रहने से मध्यांश में जो ताकत रहता है, उसी का नाम है मध्यस्थ-बल। मध्यस्थ-बल के आधार पर ही चुम्बकीय बल है – जिससे मध्यांश द्वारा परिवेशीय अंशों को स्वयं-स्फूर्त विधि से नियंत्रित करना बनता है।  मध्यस्थ-क्रिया सम और विषम प्रभावों को नियंत्रित करता है। सत्ता कोई नियंत्रण करता नहीं है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया नियंत्रण करता है। सत्ता सम-विषम से अप्रभावित रहता है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया सम-विषम को नियंत्रित करता है। दोनों में अंतर यही है. 

[सितम्बर २०११, अमरकंटक]

इकाई (प्रकृति) की स्वभाव गति सम-विषम के साथ है.  सत्ता अपने में मध्यस्थ है, जो सम-विषम से मुक्त है.   

प्रकृति में सम और विषम दोनो मध्यस्थ होना चाहते हैं, इसी की परिणति है - चारों अवस्थाओं का प्रकटन।  

आपको सम, विषम और मध्यस्थ के बारे में बताया।  ज्ञान मध्यस्थ है, सम-विषम से मुक्त है.  सम-विषम कार्यकलाप होता है.  सम-विषम की गणना होती है.  ज्ञान की गणना नहीं होती।  ज्ञान विधि से बात करने के लिये मध्यस्थ को पकड़ना होगा, जो सम-विषम से मुक्त है.

प्रश्न: मानव के ज्ञान संपन्न होने पर उसमें अनुभव, विचार और व्यवहार के साथ-साथ क्या उसका जड़ प्रकृति के साथ कार्यकलाप भी मध्यस्थ हो जाता है?

उत्तर:  कार्यकलाप सम-विषम ही होता है.  ज्ञान मध्यस्थ है.  मानव को अध्ययन पूर्वक ज्ञान में अनुभव होता है.  अनुभव-संपन्न मानव का कार्य-कलाप सम-विषम ही होता है, पर वह मध्यस्थ क्रिया (आत्मा) द्वारा नियंत्रित होता है.  ज्ञान और विज्ञान दोनों एक स्तर के नहीं हैं.  ज्ञान कारण स्तर पर है, विज्ञान कार्य स्तर पर है. 

[मई २०१४, अछोटी]



Friday, March 24, 2017

समझदारी की घोषणा का मतलब

सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व की वास्तविकताओं को आपने सटीक पहचाना है, इसका प्रमाण आपके जीने में ही आएगा। व्यक्ति के प्रमाणित होने का मतलब - उस व्यक्ति द्वारा अन्य लोगों को समझा देना। प्रमाणित होने का स्वरूप है - समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को कराना। समझदारी का और कौनसा प्रमाण हो सकता है - आप बताओ? समझा देना ही समझे होने का प्रमाण होता है।

प्रश्न: आपने अनुसंधान पूर्वक समझा, उसमें पूरा समझने के बाद ही दूसरों को समझाने की बात रही। लेकिन हम जो अध्ययन विधि से चल रहे हैं, उसमें आप कहते हैं - जितना समझे हो, उतना समझाते भी चलो। इसको समझाइये।

उत्तर: समझाने से अपनी समझ को पूरा करने का उत्साह बनता है। जैसे आपने थोड़ा सा समझा, उसको दूसरे को समझाया - उससे आप में और आगे समझने का उत्साह बनता है। यह खाका ग़लत नहीं है। यह समझने की गति बढाता है। हमें उत्सवित भी रहना है, सच्चाई को समझना भी है, और सच्चाई को प्रमाणित भी करना है। कुछ लोग पूरा समझ के ही समझाना चाहते हैं - वह भी ठीक है। कुछ लोग समझते-समझते समझाना भी चाहते हैं - वह भी ठीक है। लक्ष्य है - समझदारी हो जाए। समझदारी के बिना प्रमाण होता नहीं है। समझदारी के पूरा हुए बिना "जीना" तो बनेगा नहीं। यही कसौटी है। "जीना" बन गया तो समझदारी पूरा हुआ, समझाना बन गया। उसके बाद उत्साहित रहने के अलावा और क्या है - आप बताओ?

इसमें व्यक्तिवाद जोड़ा तो अकड़-बाजी होने लगती है। अकड़-बाजी होती है, तो हम पीछे हो जाते हैं। व्यक्तिवाद जोड़ने से पिछड़ना ही है।

प्रश्न: व्यक्तिवाद के चक्कर से बचने का क्या उपाय है?

उत्तर: स्व-मूल्यांकन को हमेशा ध्यान में रखा जाए। दूसरों को जांचने जाते हैं - तो दिक्कत है। जो स्वयं को पारंगत घोषित किया है, उसे ही जाँचिये। जैसे मैंने अपने को ज्ञान में पारंगत घोषित किया है, आप मुझको जांच ही सकते हैं। मुझको जांचने में किसीको झिझक नहीं होनी चाहिए। मुझको उससे कोई दिक्कत नहीं है।

प्रश्न: समझदारी की घोषणा का क्या मतलब है?

जो स्वयं को समझदार घोषित किया है, उसके परीक्षण से ही अध्ययन करने वाले को अपनी समझ की पुष्टि मिलती है। घोषित किए बिना आपको कोई जांचने जायेगा नहीं।

मैं पहला व्यक्ति हूँ - जिसने स्वयं को समझदारी का प्रमाण घोषित किया। एक आदमी के ऐसे घोषणा किए बिना इस कार्यक्रम में कोई गति हो ही नहीं सकती थी। कितना बड़ा भारी ख़तरा ओढ़ लिया है - आप सोचो!! इसके बावजूद मैं निर्भय हूँ, मुझे कोई आतंक नहीं, कोई शंका नहीं, किसी तरह का प्रतिक्रिया नहीं - क्या बात है यह? क्या चीज है यह? यह एक सोचने का मुद्दा है आप के लिए। मैंने जो समझदारी के प्रमाण होने का जो पहला मील का पत्थर रख कर जो रास्ता शुरू किया - वह ठीक हुआ, ऐसा मैं मानता हूँ।

[अप्रैल २००८, अमरकंटक]

अनुभव एक व्यक्ति को हो सकता है, तो दूसरे को भी हो सकता है.

अनुभव एक व्यक्ति को हो सकता है, तो दूसरे को भी हो सकता है। एक व्यक्ति जो समझ सकता है, कर सकता है - वैसे ही हर व्यक्ति समझ सकता है, कर सकता है। अनुभव संपन्न व्यक्ति के निरीक्षण परीक्षण से एक से दूसरे व्यक्ति के लिए प्रेरणा बनती है। फ़िर उसके लिए दूसरे का प्रयत्नशील होना स्वाभाविक हो जाता है। उसी ढंग से सभी इस बात से जुड़ रहे हैं।

मेरे जीने के तौर-तरीके से जो मैं आप में अनुभव होने का आश्वासन दिलाता हूँ - उसमें तारतम्यता बनता जाता है। उससे आपका विश्वास दृढ़ होता जाता है।

प्रश्न: मुझसे पहले, मुझसे ज्यादा पढ़े- लिखे, अनेक वर्षों से अध्ययन में संलग्न लोग जब अपने अनुभव होने की स्पष्ट घोषणा नहीं कर पाते हैं - तो मेरा विश्वास डगमगा जाता है, कि मैं इसको कभी पूरा समझ पाऊंगा।

उत्तर: इसको escapism में न लगाया जाए। जिम्मेदारी के साथ हम समझते हैं, करते हैं। "हम समझेंगे, और अपनी समझ को जियेंगे।" - यहाँ तक आप अपनी जिम्मेवारी को रखिये। दूसरा समझा या नहीं समझा - उसको अभी मत सोचिये। आप पूरा होने के बाद संसार और ही कुछ दिखने लग जाता है। जैसे मुझ को दिख रहा है कि हर व्यक्ति शुभ चाह रहा है। शुभ के लिए ही सभी प्रयत्न कर रहे हैं। एक दिन पहुँच ही जायेंगे। मेरे पास किसी का विरोध करने का कोई रास्ता ही नहीं है। आप अनुभव करने के बाद वही करोगे, दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

सबको आत्मसात किए बिना (अपना स्वीकारे बिना) हम समाधानित नहीं हो सकते। सबको आत्मसात कैसे करोगे? एक दिन सभी सच्चाई को समझेंगे। यह पहला कदम है। यह फ़िर मिटेगा नहीं। अब उसके बाद हम अपना प्रस्ताव देना शुरू किए। प्रस्ताव में लोगों को सम्भावना दिखने लगी। आपकी इस प्रस्ताव में स्वीकृति मुझ को दृढ़ता प्रदान करता है। उसी प्रकार आप जब दूसरों को प्रबोधित करते हैं तब उससे आप की सुदृढ़ता बनती है। इसमें कोई शंका की बात नही है। केवल ध्यान देने की आवश्यकता है। शरीर को हटा कर जीवन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

प्रश्न: क्या इस बात की कोई सम्भावना है कि इस अनुसंधान का लोकव्यापीकरण न हो? क्या इस बात की सम्भावना है कि आप के रहते कोई भी अपने अनुभव-संपन्न होने की स्पष्ट घोषणा नहीं कर पाये?

उत्तर: इस दशक में आने के बाद अब वह सम्भावना नहीं है। लोग इसको समझ जायेंगे और यह जिन्दा रहेगा - यह आश्वस्ति इस दशक के बाद से हुई। मानव को धरती पर रहना हो तो मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने की घटना सही है। सन् २००० से पहले मैं कहता था - "मानव को धरती पर रहना होगा, तो इसको समझेगा नहीं तो नहीं समझेगा।" अब यह लोकव्यापीकरण हो के ही रहेगा। इस बात का प्रवाह बनेगा - यह तो निश्चित हो गया है। जो लोग इसके अध्ययन में लगे हैं, और प्रोग्राम में लगे हैं - उनके संकेतों से मुझको ऐसा ही लगता है।

[अप्रैल २००८, अमरकंटक]

प्रश्न:  यह एक शरीर यात्रा की बात है या अनेक शरीर यात्राओं की? 

एक ही शरीर यात्रा में समझ, एक ही शरीर यात्रा में समृद्धि, एक ही शरीर यात्रा में प्रमाण।

इन सब बातों को सोच करके हमको इस रास्ते पर चलने के लिए अपनी तैयारी बनाने की ज़रूरत है.  यह भी बात सही है - यह बात स्वयं में प्रवेश होने पर, या साक्षात्कार होने पर यह एक दिन अनुभव तक पहुँचता ही है.   अनुभव होने के बाद उससे पहले जो हम भ्रम-वश वरीयता क्रम बनाये थे - वह ध्वस्त होता ही है.  इस सब को ध्यान में रखते हुए आप निर्णय लो.  ताकि "हम ऐसा नहीं समझे थे, तैसा नहीं समझे थे" - इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप न हों.  अच्छी तरह से सोच के, अच्छी तरह से समझ के, अच्छी तरह से निर्धारित करके, अनुभव करके अपनी प्रतिबद्धता को स्थिर बनाया जाए.

समाधान से यदि हम भली प्रकार से संपन्न हो जाते हैं तो समृद्धि अपने-आप भावी हो जाती है.   समृद्धि के लिए हज़ार रास्ते रखे हैं.

समझदारी हासिल करने में समय लगता है.  साक्षात्कार होने तक.  दस तरह की चीजों में हमारा ध्यान बंटा रहता है, इसके लिए पूरा समय दे नहीं पाते हैं.  इसलिए धीरे-धीरे होगा, कोई आपत्ति नहीं है.  किन्तु साक्षात्कार के बाद यह रुकेगा नहीं।  साक्षात्कार होगा तो बोध होगा ही, अनुभव होगा ही, अनुभव प्रमाण होगा ही.  दूसरा कुछ होता ही नहीं है.

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

आप इस पूरी बात को समझने का अपने में पूरा धैर्य संजोइए, स्वयं पूरा पड़ने के बाद आज यह बात जिस स्तर तक पहुँची है, उससे अगले स्तर तक पहुंचाइये। आगे की पीढी आगे!

प्रश्न: आपसे हमे इस पूरी बात की सूचना मिली, अब इसको अध्ययन करके अनुभव करने की आवश्यकता है। क्या इस क्रम में ऐसा हो सकता है कि मुझे भ्रम हो जाए कि मुझे 'अनुभव' हो गया है, 'पूरा समझ' आ गया है - जबकि वास्तव में ऐसा न हुआ हो?

उत्तर: अनुभव होता है तो वह जीने में समाधान-समृद्धि पूर्वक प्रमाणित होता है। वही तो कसौटी है। सूचना देना समाधान देना नहीं है। समाधान जी कर ही प्रमाणित होता है। समाधान का वितरण करना शुरू करते हैं, तो सभी स्तरों पर समझा पाते हैं। आप मुझे देखिये - किसी भी बारे में समाधान प्रस्तुत करने में मुझ पर कोई दबाव नहीं पड़ता है। मैं अपने गुरु जी से पूछ के बताऊंगा, कोई किताब को पढ़ कर बताऊंगा - ऐसा कहने की कोई जरूरत मुझे नहीं है। समाधान की कसौटी में उतरे बिना एक भी व्यक्ति प्रमाणित नहीं होगा। "मैं प्रमाणित हूँ" - यह कहने के लिए जाँचिये, क्या आप समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हैं? शरीर की आवश्यकता के लिए समृद्धि, जीवन की आवश्यकता के लिए समाधान।

[जुलाई २०१०, अमरकंटक]

अध्ययन से हम साक्षात्कार पूर्वक वस्तु-बोध तक पहुँच जाते हैं। उसके बाद अनुभव होना भावी हो जाता है। फ़िर अनुभव को प्रमाणित करना हर व्यक्ति का दायित्व है। 

प्रमाण अनुभव मूलक विधि से ही सम्भव है। यह प्रमाण आचरण के स्वरूप में ही होता है। 

जब तक हम शब्द का उच्चारण करते हैं - हमको वस्तु-बोध हो गया, यह विश्वास नहीं होता। अनुभव होने का प्रमाण आचरण ही है। 

अनुभव होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण होता ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप है - मूल्य, चरित्र, और नैतिकता। आचरण के साथ समाधान, और समाधान के साथ समृद्धि होती है। आचरण से, या जीने से ही यह स्पष्ट होता है - वस्तु-बोध हुआ कि नहीं? 

व्यवहार में यदि किसी से यदि मानवीयता पूर्ण आचरण मिलता है - तो उसमें शंका करने की क्या जरूरत है? मानवीयता पूर्ण आचरण, समाधान, समृद्धि को कोई व्यक्ति प्रमाणित करता है - मतलब वह जागृत है। जैसे - कल आप ही कहोगे कि "हम समझ गए"। अब उस पर मेरा अविश्वास करने की कोई बात ही नहीं है।  आपके सत्यापन पर मेरा विश्वास करने के अलावा और कुछ नहीं करना बनता - जब तक आप के आचरण से उस सत्यापन के विपरीत बात का संकेत नहीं मिलता। आप जो कह रहे हो - आप के अनुसार वह ठीक है।   यदि आगे चल कर उसमे कमी मिलती है तो उसका सुधार होना भावी हो जाता है.  इस तरह कोई दबाव-खिंचाव है ही नहीं!

अनुभव पहले किसी को नहीं हुआ - यह मैंने नहीं कहा है। 
अनुभव प्रमाणित नहीं हुआ, जागृति का परम्परा नहीं बना - यह जोर से कहा है। 

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

आत्मा

आत्मा की संतुष्टि

प्रश्न:  आत्मा क्या पहले से ही क्रियाशील रहती है या अध्ययन पूर्ण होने के बाद क्रियाशील होगी?

उत्तर: आत्मा क्रियाशील रहती ही है, अधिकार संपन्न रहता है - किन्तु प्रमाणित होने की योग्यता और पात्रता नहीं रहता। अभी मानव परंपरा में भ्रम और अपराध ही प्रचलित है या मानव कल्पना में मान्य है।  आत्मा और बुद्धि  भ्रम या अपराध को स्वीकारता नहीं है।  इसलिए संतुष्ट होता नहीं है।  भ्रमित रहते तक तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया होता नहीं है।  भ्रमित रहते तक मानव अपराध को ही सही मानता है।  उससे आत्मा का संतुष्टि होता नहीं है।

आत्मा की संतुष्टि के लिए अध्ययन है।  अध्ययन में पहले सही बात को "विकल्प स्वरूप में" सुनना होता है।   अभी तक के जिए हुए से जोड़ कर सुनते हैं तो नहीं बनता।  अध्ययन = संस्कार संपन्न होना।  संस्कार है - पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति।  पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता।  गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी है।  क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता ज्ञान के अर्थ में हैं।

हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा  के अनुसार रहता है।  हर मानव संतान में यह बात समान है।  उसमें कोई परेशानी नहीं है।  उसके बाद बच्चा परंपरा के अनुसार ढलता है।  अपराधिक परंपरा के अनुसार ढलता है तो अपराध करता है।  मानवीय परंपरा में यदि जन्म लेता है तो अध्ययन और अभ्यास पूर्वक संस्कार को ग्रहण करता है।  बच्चों में पायी जाने वाली कामना के अनुसार यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।

प्रश्न:  "बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा  के अनुसार रहता है।"  क्या सभी बच्चों की क्षमता जन्म के समय एक जैसी होती है?

उत्तर: हाँ।  सारी मानव जाति के साथ ऐसा "अधिकार" है।

प्रश्न: यदि जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो आपमें जो जिज्ञासा उदय हुई, दूसरों में क्यों नहीं होती दिखती?

उत्तर: उसका कारण है, मैं जहाँ जन्मा था - वहाँ की परम्परा में तीन बात लेकर चले थे - घोर परिश्रम, घोर सेवा और घोर विद्वता।  उस विद्वता को लेकर मैं राजी नहीं हुआ, बाकी दो बातों में राजी हो गया।

मैं उस "विद्वता" से इसलिए राजी नहीं हो पाया क्योंकि मैंने देखा कि जैसा मेरे परिवार में "कहते" हैं, वैसा वे "जीते" नहीं हैं।  यही  मेरी जिज्ञासा का आधार हुआ।  "कहने" और "करने" में साम्यता कैसे हो? - यह जिज्ञासा हुई।  यही "पात्रता" है।    पात्रता के आधार पर ही समझ हासिल होता है।

प्रश्न:  जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो - आपके भाई-बंधु तो उस विद्वता से राजी हो गए, फिर आप क्यों राजी नहीं हो पाए?

उत्तर: "राजी हो पाने" या "राजी नहीं हो पाने" की बात जन्म के बाद, शरीर यात्रा के साथ शुरू होती है।  यह हर शरीर यात्रा (हर व्यक्ति) के साथ भिन्न-भिन्न होता है - क्योंकि हर शरीर भिन्न है।  जन्म के समय सबकी क्षमता समान होने का कारण है - (जन्म के समय) जीवन की समान क्षमता व्यक्त होती है।  उसके अनुकूल वातावरण मिलता नहीं है, क्योंकि अभी तक मानव शरीर के आधार पर जिया है, जीवन के आधार पर जिया नहीं है।  जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर स्वयं को शरीर ही मान लेता है।  इस कारण जन्म के समय क्षमता एक जैसी होते हुए भी अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग स्वीकृतियाँ हो जाती हैं।  प्रधान रूप में जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उसके अनुसार स्वीकृतियाँ होती हैं।  बच्चा परिवार को मानने, परिवार के कार्यक्रम को मानने और परिवार के फल-परिणाम को मानने से शुरू करता है।

प्रश्न:  क्या आप अपने बचपन में जैसा "कहते" थे, वैसा "जीते" थे? 

उत्तर: नहीं।  मैं भी जैसा कहता था, वैसा जीता नहीं था।  "जीना" अभी आया - यह समझ हासिल होने के बाद।   जैसा "कहते" हैं वैसा "जीते" नहीं हैं - यह गलत है, ऐसा मुझे स्वीकार हुआ।  सही क्या है - यह तब पता नहीं था।  साधना के बाद "सही" का पता चला।  अब अध्ययन विधि से सबको "सही" का पता चलेगा, ऐसा स्वीकार के इस प्रस्ताव को मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।

[जनवरी २०१३, अमरकंटक]

आत्मा की स्थिति

जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन का मध्यांश है।

प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?

उत्तर: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाएं चुप रहती हैं। आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप रहने के फलन में ही भ्रमित-मनुष्य में "सुख की आशा" बनी हुई है।

प्रश्न: अध्ययन-काल में आत्मा की क्या स्थिति होती है?

उत्तर: अनुभव के प्रकट होते तक आत्मा चुप रहता है। अध्ययन काल में आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। प्रबोधन को स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा क्रियाशील हो जाता है। अनुभव-संपन्न हो जाता है। अनुभव-सम्पन्नता जीवन में तृप्ति का आधार है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव-शीलता (अनुभव की निरंतरता) है। अनुभव पूर्वक मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, और संतुलन प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक मनुष्य-प्रकृति के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होता है।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]

पूर्णता के अर्थ में वेदना

जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मानता है। जीवन अपनी आवश्यकताओं को शरीर से पूरा करने की कोशिश करता है, जो पूरा होता नहीं है, इसलिए अतृप्त रहता है। शरीर में होने वाली संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उनको चुप नहीं कराया जा सकता। संवेदनाओं का चुप होना समाधि की अवस्था में होता है, जब आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं। मानव-परंपरा को संवेदनाओं के नियंत्रण की जरूरत है, न कि संवेदनाओं को चुप करने की।

समाधान या पूर्णता के अर्थ में वेदना ही संवेदना है। वेदना के निराकरण में विचार-प्रवृत्ति के बदलते बदलते सच्चाई के पास पहुँच ही जाते हैं। नियति विधि से मानव में संवेदना जो प्रकट हुई, उसमे तृप्त होने की अपेक्षा है। आदर्शवादियों ने संवेदनाओं को चुप कराने के लिए कोशिश किया – वह सफल नहीं हुआ। भौतिकवादियों ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए कोशिश किया – उससे धरती ही बीमार हो गयी।

आत्मा में अनुभव की प्यास है, इसीलिए संवेदना होती है। इतनी ही बात है। संवेदनाएं होने के आधार पर ही जिज्ञासाएं बनते हैं। जितनी सीमा में मनुष्य जीता है या अभ्यास करता है, उससे अधिक का विचार करता है, बात करता है। अध्ययन पूर्वक आत्मा की प्यास बुझती है। अनुभव होता है, जो जीने में प्रमाणित होने पर आत्मा की प्यास बुझी यह माना जाता है।

प्रश्न: अनुभव पूर्वक जो आत्मा की प्यास बुझती है, क्या उससे आत्मा का कार्य-रूप पहले से बदल जाता है?

उत्तर: नहीं। आत्मा का कार्य-रूप नहीं बदलता। आत्मा की प्यास बुझने पर जीवन में कार्य करने की प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। इस तरह जीवन की दसों क्रियाएँ प्रमाणित होती हैं। अभी ४.५ क्रिया में मानव जी रहा है, इसीलिये उसमे अनुभव का प्यास बना है। ४.५ क्रिया में जीने में तृप्ति नहीं है। ४.५ क्रिया में शरीर-मूलक विधि से जीते हुए तृप्ति के बारे में जो भी सोचा वह गलत हो गया, सभी अपराधों को वैध मान लिया गया।

[सितम्बर २०११, अमरकंटक]

प्रामाणिकता की मुहर

अध्ययन विधि से यथास्थितियों और प्रयोजनों का चित्त में "साक्षात्कार" और बुद्धि में "बोध" होता है। साक्षात्कार और बोध जो हुआ, उसके समर्थन में ही अनुभव होता है। बुद्धि में ही अस्तित्व की स्वीकृतियों के समर्थन में ही आत्मा में अनुभव होता है। बोध होने के बाद आत्मा में "अनुभव" होता ही है। उसके लिए कोई अलग से जोर नहीं लगाना पड़ता। जिस बात का बोध हुआ था, उसकी "मुहर" है अनुभव!

आत्मा में अनुभव ही होता है - और कुछ होता ही नहीं है। आत्मा में "अध्ययन-कक्ष" कुछ है ही नहीं! बुद्धि में बोध तक अध्ययन है। बोध होने के बाद सह-अस्तित्व में अनुभव होता है। अनुभव ही प्रमाण होता है।

अनुभव पूर्वक जीवन में प्रामाणिकता आ जाती है।

[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]

बुद्धि और आत्मा

प्रश्न: भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा का कार्य-रूप क्या है? 

उत्तर: बुद्धि और आत्मा जीवन में अविभाज्य है। भ्रमित-अवस्था में भ्रमित-चित्रणों को बुद्धि अस्वीकारता है और वह चित्रण तक ही रह जाता है, बोध तक नहीं जाता। इसी से भ्रमित-मनुष्य को "गलती" हो गयी - यह पता चलता है। बुद्धि और आत्मा ऐसे भ्रमित-चित्रणों के प्रति तटस्थ बना रहता है - इसके प्रभाव-स्वरूप में कल्पनाशीलता में "अच्छाई की चाहत" बन जाती है। यही भ्रमित-मानव में शुभ-कामना का आधार है। भ्रमित-अवस्था में बुद्धि और आत्मा में "सही" के लिए वस्तु नहीं रहती, पर गलती के लिए अस्वीकृति रहती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

भ्रमित मनुष्य में जीवन की स्थिति

प्रश्न: आपने लिखा है - "मैं निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ, और भ्रमित अवस्था में अंहकार हूँ", उसका क्या मतलब है?

उत्तर: भ्रमित अवस्था में शरीर को ही "मैं" माने रहते हैं। जागृत होने पर जीवन को "मैं" के रूप में जानते और मानते हैं। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जिसका मध्यांश आत्मा है।

प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य में इस मध्यांश का क्या कार्य रूप होता है?

उत्तर: भ्रमित मनुष्य में मध्यांश का कोई कार्य रूप ही नहीं है। भ्रमित मनुष्य में मध्यांश "होने" के रूप में है, "रहने" के रूप में नहीं! "होना" प्राकृतिक-विधि से हो गया। "रहना" - जागृति-विधि से होता है। बुद्धि के साथ भी वैसे ही है। चित्त में न्याय-धर्म-सत्य तुलन दृष्टियों के साथ भी वैसे ही है। जीवन में कल्पनाशीलता- कर्म-स्वतंत्रता वश भ्रमित स्थिति में भी ज्ञान का अपेक्षा बना रहता है।

प्रश्न: कोई आदमी गलती करता है, उसको फ़िर बुरा लगता है - यह कैसे होता है?

उत्तर: हम अच्छा होना चाह रहे हैं, पर अच्छा हो नहीं पा रहे हैं - इसलिए होता है ऐसा।

प्रश्न: "अच्छा होना चाहने" की बात कहाँ से आ गयी?

उत्तर: अच्छा होना चाहने की बात हर मनुष्य में है। अच्छे होने की कल्पना जीवन की ४.५ क्रिया में ही हो जाती है। हम अपने घर-परिवार, गाँव, देश के लोगों से अच्छा होना चाहते ही हैं। यह ४.५ क्रिया में हुई कल्पना ही है। यह अच्छा होना चाहना ही आगे अध्ययन का आधार है।

प्रश्न: अध्ययन-रत मनुष्य के साथ बुद्धि और आत्मा की क्या स्थिति है?

उत्तर: अध्ययन-काल में साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि सही पन को स्वीकारता है। अनुभव में पहुँच के, आत्मा और बुद्धि ही प्रमाण रूप में प्रकट होती है।

[भोपाल, अक्टूबर २००८]

प्रश्न:  अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?

उत्तर:  अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है.   दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है।  इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं।  परंपरा विधि से अध्ययन है।

प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो".  अध्ययन के लिए क्या  हमें आपको "मानना" होगा?

उत्तर:  यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है।  अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो।  अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?

[अगस्त 2007, अमरकंटक]

भ्रमित जीवन में अन्तर्निहित अतृप्ति है।  इस कारण से किसी भी आवेश को भ्रमित मानव सतही मानसिकता में स्वीकार नहीं कर पाता है।  जैसे - लाभोंमादी आवेश, किसी जगह में इस आवेश के साथ चलते हुए, यह "सही" है - हम मान नहीं सकते।  कामोंमादी और भोगोंमादी आवेशों के साथ भी ऐसा ही है।  यह हमारे जीवन में छिपा हुआ सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत बना हुआ है।  इस स्त्रोत के आधार पर अध्ययन पूर्वक हम इन प्रचलित उन्मादों से बच कर निकल सकते  हैं।

बुद्धि जीव चेतना के चित्रणों का दृष्टा बना रहता है, किन्तु उसको स्वीकारता नहीं है।  बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, वही पीड़ा है।  सर्व-मानव में पीड़ा वही है।

आदमी अपने में जो करता है, उसे कहीं न कहीं देखता ही रहता है।  क्या देखता है, क्या नहीं देखता है - उसे पता नहीं रहता किन्तु उसमे "उचित"/"अनुचित" को कहीं न कहीं ठहराता ही रहता है।  उसी में भ्रमवश हठ-धर्मियता शुरू होती है।  उसमे मानव फंस जाता है।

बुद्धि भ्रमित नहीं होती।  बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है।  बुद्धि की दृष्टि चित्रण की ओर रहता है और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है।  प्रामाणिकता न होने से स्वयं में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है।  जीव-चेतना की सीमा में कल्पनाशीलता में जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से जीना होता है, उससे बुद्धि में बोध की वस्तु कुछ जाता ही नहीं है।  शरीर संवेदना से सम्बंधित बातें बोध की वस्तु नहीं है, इसलिए वह चित्रण से ऊपर जाता नहीं है।  उसमे चिंतन की कोई वस्तु नहीं है।  उसमे संवेदना है और  संवेदनाओं को राजी रखने की प्रवृत्ति है।

भ्रमित-जीवन में बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है.

जीव-चेतना में जीने वाले मनुष्य के जीवन में कल्पनाशीलता प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में क्रियाशील रहता है। प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जो चित्रण होते हैं, उनको बुद्धि स्वीकारता नहीं है। इस अस्वीकृति से इतना ही निकलता है - "यह ठीक नहीं है!" पर "ठीक क्या है?" - इसका उत्तर नहीं मिलता, क्योंकि बुद्धि में बोध नहीं रहता। मनुष्य प्रिय-हित-लाभ की सीमा में जो भी करता है, वह चित्रण से आगे जाता नहीं है। बुद्धि ऐसे भ्रमित-चित्रणों का दृष्टा बना रहता है।

प्रश्न: तो इसका मतलब भ्रमित-अवस्था में मेरी बुद्धि संकेत तो करती है - यह ठीक नहीं है! लेकिन वह मेरी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि "ठीक क्या है?" इसका उत्तर मेरे पास नहीं रहता। क्या यह सही है?

उत्तर: हाँ, यह सही है। "यह ठीक नहीं है!" - ऐसा अनेक लोगों को लगता है। लेकिन ठीक क्या है, असलीयत क्या है? - यह स्वयं में "अधिकार" नहीं रहता है। उसके लिए क्यों प्रयास नहीं करते? जब आपको लगता है, यह ठीक नहीं है तो सहीपन के लिए आप क्यों प्रयास नहीं करते? इस जगह में सभी को प्राण-संकट है।

बुद्धि द्वारा चित्त में होने वाले चित्रणों को देखने का काम सदा रहता है, सबके पास रहता है। बुद्धि के इस दृष्टा बने रहने से हम यह तो निर्णय ले पाते हैं, कि हम किसी "मान्यता" को लेकर चल रहे हैं। लेकिन असलीयत का अधिकार स्वयं में न होने के कारण हम परम्परा को निभते रहते हैं। यही "हठ-धर्मीयता" है।

भ्रमित-जीवन में बुद्धि जो बोध की अपेक्षा में रहती है, उसकी तृप्ति सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक ही सम्भव है।

[अगस्त 2006, अमरकंटक]

Monday, March 20, 2017

नौकरी करने के लिए विवशता

मानव जाति ने व्यापार और नौकरी में विश्वास को ढूँढने का प्रयास किया - जबकि व्यापार और नौकरी जिम्मेदारी लेने से मुकरा हुआ है। नौकरी भी व्यापार के लिए ही है। व्यापार और नौकरी द्वारा सुविधा-संग्रह की तलाश है। इससे पहले मानव-जाति में कुछ लोग भक्ति-विरक्ति की तलाश में थे, और उनका सम्मान करते हुए बाकी लोग थे। अब भक्ति-विरक्ति छूट गया - और अब सभी के सभी सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर खड़े हैं। नौकरी और व्यापार में विश्वास को ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों के चलते ही धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया। अब पुनर्विचार की आवश्यकता है।

[अप्रैल २००६, अमरकंटक]

भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।

भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड या universal standard नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।

मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का universal standard है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

भ्रम-मुक्ति का प्रमाण अपराध-मुक्ति है। अपना-पराया से मुक्ति है। इस जगह पर आने के लिए यह प्रस्ताव रखे हैं। वह प्रस्ताव आपको ठीक लग रहा है। यहाँ आने से पहले आप जैसे भी जिए, उससे संतुष्टि नहीं मिली - पर अच्छी तरह जीने के अरमान में आप जिए।

अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।

अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।

प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?

उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।

प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?

उत्तर: गलत है! जीव-चेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।

अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको एडजस्ट करने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।

आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिये!

अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीव-चेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।

आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!

अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिये। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दूसरे की पहचान में आना चाहिये। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।

अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।

देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।

यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।

अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया। 
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।

[अगस्त २००६]

अभी तक हम जैसे जी रहे हैं उससे हमको तृप्ति हो रहा है या नहीं इसका निरीक्षण।  यदि तृप्ति मिल गया है, तो उसी को किया जाए.  यदि तृप्ति नहीं मिला है तो हमको और कुछ समझने की ज़रुरत है, यह निष्कर्ष निकलता है.  तब यह प्रस्ताव सामने आता है.

स्वनिरीक्षण ही आधार है, मानव में समझ के लिए प्रयास उदय होने के लिए.  दबाव या आरोप से यह नहीं निकलता।

इस क्रम में - चर्चा में, सूचना में और तर्क में यह आता है - "अभी हम सुविधा-संग्रह के लिए काम कर रहे हैं, जिसका  कोई तृप्ति-बिंदु ही नहीं है."  सूचना के आधार पर स्व निरीक्षण पूर्वक यह निष्कर्ष निकल जाता है.  फिर समझदारी को परिपूर्ण करने की प्रवृत्ति होती है. "तृप्ति बिंदु कहाँ है?" - वहाँ पहुँचने के लिए सोच शुरू हो जाती है. हम यहाँ से कैसे निकलें - यह सोच शुरू हो जाती है.  तृप्ति को लेकर समझ की सूचना प्रस्ताव के रूप में फिर मिलती है.

कैसे निकलें - यह लोगों की अलग-अलग परिस्थिति अनुसार उनका अलग-अलग फॉर्मेट होगा, लेकिन सभी में साम्य बात होगी - अध्ययन विधि।

अध्ययन का स्त्रोत (प्रमाणित व्यक्ति) और अध्ययन की इच्छा (जिज्ञासु विद्यार्थी) - ये दोनों मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि मानव के जीने का लक्ष्य क्या है, मानव के जीने का सही तौर तरीका क्या है, वैसे जीने के फल-परिणाम क्या है.  इस तरह स्वयं में वरीयता (प्राथमिकता) बन जाती है कि हमको समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना है.

प्रश्न: आज की स्थिति में मैं नौकरी कर रहा हूँ, इस प्रस्ताव को सुनने पर वह मुझे "गलत" लगता है.  क्योंकि मुझे लगता है - मैं अव्यवस्था में भागीदार हूँ...

उत्तर:  उसको अभी "गलत" या "सही" मत ठहराओ।  यह पूरा नहीं पड़ रहा है - इतना रखो.  तृप्ति के लिए क्या हो सकता है, इसके लिए आपके पास सूचना आया - समाधान-समृद्धि पूर्वक तृप्ति हो सकती है, जिसके लिए दर्शन का अध्ययन पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना आवश्यक है.

अध्ययन से अनुभव पूर्वक ज्ञान-विवेक-विज्ञान स्पष्ट हो जाता है. ज्ञान-विवेक-विज्ञान को जीने का डिज़ाइन समाधान-समृद्धि स्वरूप में  मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट हो जाता है.  उसको प्रमाणित करने के लिए अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है.  उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए शिक्षा विधि स्पष्ट हो जाती है.  इसको आचरण करने पर तृप्त रहना बन जाता है, समाधानित रहना बन जाता है, समृद्ध रहना बन जाता है.

प्रश्न:  आप कहते हैं अनुभव से पहले मानव में सही जीने का डिज़ाइन ही नहीं बनता।  तो क्या आप यह कह रहे हैं कि मैं नौकरी करते-करते अध्ययन करता रहूँ और फिर अनुभव करूँ और फिर जीने का डिज़ाइन बनाऊं?

नहीं।  इसमें थोड़ा और सोचने की ज़रूरत है.  आप जहाँ हैं वहाँ रहते हुए इस बात का पठन तो कर ही सकते हैं.  फिर उसके बाद समझने की बात आती है.  अध्ययन विधि से आप वहाँ रहते हुए साक्षात्कार-बोध तक पहुँच सकते हैं, पर अनुभव बिंदु छुटा रहेगा।  अनुभव हुआ तो वह नौकरी वाला स्वरूप रहेगा नहीं।

प्रश्न:  अनुभव बिंदु कब तक छुटा रहेगा?

जब तक आपमें अनुभव की आवश्यकता सबसे प्राथमिक न हो जाए, और जब तक जिन साधनों को जोड़ने के लिए आप नौकरी करने निकले थे - वह पूरी न हो जाए तब तक.  नौकरी छूटने पर आप अनुभव करने के योग्य हो गए क्योंकि नौकरी में रहते हुए अध्ययन पूर्वक आप अनुभव के दरवाजे पर आ चुके होंगे।  अनुभव होने के बाद प्रमाणित होना ही बनता है.

अनुभव के लिए हममे अपेक्षा और साधनों को लेकर हमारी अपेक्षा इन दोनों के बीच में दूरी समाप्त हो जाने पर (यानि अध्ययन को पूरा कर लेने के बाद और साधनों को प्राप्त कर लेने के बाद) अनुभव होता है.  इसका कारण है - हम अभी तक जैसा जीने के तरीके को अच्छा मान लिए हैं, जब उसके लिए आवश्यक साधनों के निकटवर्ती स्थिति तक हम पहुँच जाएँ, तभी उसको लेकर जो हम नौकरी आदि उपक्रम किये, उससे हम मुक्त हो सकते हैं.

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

प्रश्न: यदि मेरा नौकरी करना बाधक है, तो उसको मुझे छोड़ देना चाहिए?

उत्तर: समझने के लिए कोई छोड़ने-पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। समझने के बाद "जीने" के लिए आप निर्णय कीजिये - आपको कैसे जीना है? जीने का डिजाईन बनाने की जब बात आती है - तब नौकरी छोड़ना, कुछ नया setup बनाना, या नए setup में शामिल होना - ये सब बात आती है।

प्रश्न: लेकिन इस बात को भी सोचें और नौकरी भी करें - यह बहुत अंतर्विरोधी हो जाता है?

उत्तर: वह तो स्वाभाविक है। नौकरी और व्यापार "जीने" से कोसों दूर हैं। जीने में sincerity है। व्यापार और नौकरी में insincerity है। समझने के बाद निर्णय लेने की ताकत आती है

[दिसम्बर २००८, अमरकंटक]

प्रश्न: स्वावलंबन के लिए नौकरी करना क्या उचित है?

उत्तर: जागृत मानव परंपरा में नौकरी का स्थान शून्य है.  भ्रमित मानव परंपरा में नौकरी के लिए स्वीकृति न्यूनतम श्रम, जिम्मेदारी से अधिकतम दूर रहने, और अधिकतम सुविधा-संग्रह के आधार पर होता आया है.  अभी की स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त सुविधा संपन्न होने की अपेक्षा रखने वालों की संख्या में वृद्धि हो गयी है.  इसी कारणवश सर्वाधिक समस्याएं देखने को मिल रहा है.

स्वावलम्बन परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिम्मेदारी का वहन है.  परिवार की जिम्मेदारी वहन करने का प्रमाण सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के साथ समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना है.  परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना ही समृद्धि का स्त्रोत है.  इस पर गंभीरता से सोच-विचार करके आचरण करने की आवश्यकता है.

- (एक पत्र के उत्तर देने के क्रम में, १९ जुलाई २००१)

प्रश्न:  पैसे के बिना काम कैसे चलेगा?

उत्तर: मानलो आपके पास एक खोली भर के नोट हों.  तो भी उससे आप एक कप चाय नहीं बना सकते, एक चींटी तक का पेट उससे नहीं भर सकता।  यदि वस्तु नहीं है तो ये नोट या पैसे किसी काम के नहीं हैं.  नोट केवल कागज़ का पुलिंदा है, जिस पर छापा लगा है.  छापाखाने  में छापा लगा देने भर से कागज़ वस्तु में नहीं बदल जाता।

वस्तु को कोई आदमी ही पैदा करता है.  वस्तु का मूल्य होता है.  नोट पर कुछ संख्या लिखा रहता है.  आज की स्थिति में मूल्यवान वस्तु के बदले में ऐसे संख्या लिखे कागज़ (नोट) को पाकर उत्पादक अपने को धन्य मानता है.  यह बुद्धूबनाओ अभियान है या नहीं?

नोट अपने में कोई तृप्ति देने वाला वस्तु नहीं है.  संग्रह करें तब भी नहीं, खर्च करें तब भी नहीं।  नोट का संग्रह कभी तृप्ति-बिंदु तक पहुँचता नहीं है.  नोट खर्च हो जाएँ तो उजड़ गए जैसा लगता है.  नोट से कैसे तृप्ति पाया जाए?  वस्तु से ही तृप्ति मिलती है.  वस्तु से ही हम समृद्ध होते हैं, नोट से हम समृद्ध नहीं होते।

प्रश्न:  तो हम नोट पैदा करने के लिए भागीदारी करें या वस्तु पैदा करने के लिए भागीदारी करें?

उतर: अभी सर्वोच्च बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग नोट पैदा करने में लगे हैं.  सारा नौकरी और व्यापार का प्रपंच नोट पैदा करने के लिए बना है.  कोई वस्तु पैदा कर भी रहा है तो उसका उद्देश्य नोट पैदा करना ही है.

इसीलिये सूत्र दिया - "प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है."

कभी कभी मैं सोचता हूँ परिस्थितियों ने मानव को बिलकुल अंधा कर दिया है.  मुद्रा (पैसे) के चक्कर में उत्पादक को घृणास्पद और उपभोक्ता को पूजास्पद माना जाता है.  उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता - इनके लेन-देन में लाभ-हानि का चक्कर है.  उत्पादक लाभ में है या हानि में?  व्यापारी लाभ में है या हानि में?  उपभोक्ता लाभ में है या हानि में?  इसको देखने पर पता चलता है - व्यापारी ही फायदे में है!  नौकरी क्या है?  व्यापार को घोड़ा बना के सवारी करना नौकरी है.  इस तरह नहले पर दहला लगते लगते हम कहाँ पहुँच गए?  ऐसे में मानव न्याय के पास आ रहा है या न्याय से दूर भाग रहा है.   इस मुद्दे पर सोचने पर लगता है - मानव न्याय से कोसों दूर भाग चुका है.

यह एक छोटा सा निरीक्षण का स्वरूप है.  थोड़ा सा हम ध्यान दें तो यह सब हमको समझ में आता है.

[जनवरी २००७, अमरकंटक]

समझदारी से समाधान प्रमाणित करने के बाद अपने परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित करना भावी हो जाता है। मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है - "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" , जिसमें विश्व-परिवार तक के दस सोपान हैं। अपने परिवार में समृद्धि को प्रमाणित किए बिना कोई व्यक्ति विश्व-परिवार में भागीदारी नहीं कर सकेगा। चोरी, खींचा-तानी ही करेगा! समृद्धि के आधार पर ही व्यक्ति विश्व-परिवार तक अपनी भागीदारी कर सकता है। इस ढंग से मानवीय-व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा दरिद्रता से मुक्त होगा।

समाधान-समृद्धि प्रमाणित किए बिना एक भी आदमी व्यवस्था में नहीं जी सकता। समझदारी के साथ व्यवस्था की स्वीकृति हो जाती है। अस्तित्व में प्रत्येक एक स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है - यह स्पष्ट हो जाता है। मानव में इस व्यवस्था का स्वरूप है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।

शरीर-पोषण, शरीर-संरक्षण, और समाज-गति के लिए समृद्धि चाहिए। जितनी दूर तक समाज-गति में भागीदारी करना है, उतनी समृद्धि चाहिए। समृद्धि के साथ ही समाधान का प्रमाण दूर-दूर तक पहुँचता है। साधनों के साथ ही हम समझदारी को प्रमाणित करते हैं। साधनों को छोड़ कर हम समझदारी को प्रमाणित नहीं करते। शरीर भी जीवन के लिए एक साधन है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव है। मानव ही समझदारी को प्रमाणित करता है। शरीर-पोषण मनुष्य की एक आवश्यकता है। शरीर-संरक्षण मनुष्य की एक आवश्यकता है। ये दोनों होने पर समाज-गति की बात है। एक व्यक्ति ग्राम-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। दूसरा व्यक्ति विश्व-परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने का अभिलाषी है। जितनी सीमा तक जो व्यवस्था में भागीदारी करने की अभिलाषा रखता है, उतना उसका साधन संपन्न होना - उसकी आवश्यकता है। इस तरह हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता का निश्चयन कर सकता है।

आवश्यकताओं का निश्चयन आवश्यक है। "सभी की आवश्यकताएं समान होनी चाहिए" - यह जबरदस्ती है। जैसे एक व्यक्ति का पेट २ रोटी से भरता है, दूसरे का ४ रोटी से ही भरता है। एक को ३६ इंच की बनियान आती है, दूसरे को ४० इंच की बनियान ही आती है। इसको कैसे समान बनाया जाए? जितने में जो तृप्त हो, वही उसकी आवश्यकता है। आवश्यकताओं में "मात्रा" के अर्थ में समानता नहीं लाई जा सकती। मनुष्य की आवश्यकताएं "प्रयोजन" के साथ सीमित होती हैं। कार्ल मार्क्स ने नारा दिया था - "मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उपभोग करे, सामर्थ्य के अनुसार काम करे।" यह इसलिए असफल हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण करने का कोई आधार नहीं दिया। समझदारी पूर्वक ही आवश्यकता का ध्रुवीकरण सम्भव है। आवश्यकता का ध्रुवीकरण "प्रयोजन" की समझ में ही होता है।

इसके अलावा - यह भी सोचा गया था, धर्म के काम करने वालों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा। वह सोच भी असफल हो गयी। समाज जो ऐसे लोगों को संरक्षण दिया, लेकिन उनसे समाज-कल्याण का कोई सूत्र निकला नहीं। ऐसे धर्म-कर्म करने वालों से व्यक्तिवाद और समुदायवाद के अलावा और कुछ निकला नहीं। अब समाज इनको कब तक अघोरे?

भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों विचारधाराओं पर चलने से मनुष्य श्रम से कट जाता है। जो जितना पढ़ा, वह उतना ही श्रम से कट गया। श्रम के बिना समृद्धि होती नहीं है।

कर्म-दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से ही है। नौकरी करना भी एक कर्म-दासत्व है। स्वावलंबन समाधान से आता है। उससे पहले स्वावलंबन आता नहीं है। अभी कुछ भी सेंधमारी, जानमारी, लूटमारी करके "स्वावलंबन" की बात की जाती है। स्वावलंबन वास्तविकता में है - सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) या महत्त्वाकांक्षा (दूर-गमन, दूर-दर्शन, दूर-श्रवण) संबन्धी कोई भी वस्तु का अपने परिवार के पोषण, संरक्षण, और समाज-गति की आवश्यकताओं के लिए श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना। समाधान के बिना स्वावलंबन का प्रवृत्ति ही नहीं आता।

दासता किसी को स्वीकृत नहीं है। मजबूरी में दासता करता है मनुष्य। यह अभ्यास में आने पर ऐसे होता है - जो करने को कहा है, वैसा नहीं करना। कम काम में ज्यादा पैसा माँगना। दासता के साथ व्यवस्था नहीं हो सकती।

प्रश्न: अभी मैं अध्ययन-क्रम में हूँ, साथ में कहीं नौकरी भी कर रहा हूँ। वह दासता मुझे स्वीकृत नहीं है। अब क्या किया जाए?

उत्तर: आपके सामने कुछ जिम्मेवारियां हैं। मानव-परम्परा अभी जीव-चेतना में ही है। ऐसे में - दाम्पत्य, अभिभावकों, और बच्चों की अपेक्षा रहता है - कमाऊ पूत बाकी लोगों का भरण-पोषण करेगा। इस मान्यता को हमें ध्यान में रख कर चलना है। इनको घायल करके नहीं चलना है। इससे पहले आदर्शवादियों ने कहा - परिवार को छोड़ दो, बच्चों को छोड़ दो, सन्यासी हो जाओ... उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं। परिवार-जनों की अपेक्षाएं पुरुषार्थियों से ही होती हैं। जो पुरुषार्थी नहीं हैं, उनसे परिवारजन अपेक्षा भी नहीं करते। अब हमें पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। उसके लिए समझदारी से संपन्न होना आवश्यक है। समझदारी से संपन्न होते तक जो आप नौकरी के लिए दासता करते हो -वह कोई अड़चन नहीं है।

समझदारी से संपन्न होने के बाद स्वयं में यह विश्वास होता है कि मैं समृद्धि पूर्वक अपने सभी दायित्वों को पूरा कर सकता हूँ। जीव-चेतना में बने हुए अपने इन दायित्वों को पूरा करने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य हो पाते हैं। इनको काट कर, घायल कर के आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है।

[अगस्त २००६, अमरकंटक]

अभी तक हम अपने को समझदार माने थे, पर उससे प्रमाण नहीं हुआ।  उससे व्यापार ही प्रमाणित हुआ, नौकरी ही प्रमाणित हुआ।  व्यापार और नौकरी में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष होता ही है।  इस तरह हम कई गलतियों को सही मान कर के चल रहे हैं।  इसका आधार रहा - भय और प्रलोभन।  अब भय और प्रलोभन चाहिए या समाधान-समृद्धि चाहिए - ऐसा पूछते हैं, तो समाधान-समृद्धि स्वतः स्वीकार होता है। समाधान के लिए कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहिए।  हर अवस्था में, हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।  चाहे वह एक पैसा कमाता हो, एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो।  समझदार होने का अधिकार सबमे समान  है, उसको प्रयोग करने की आवश्यकता है।

पहला घाट है - हमको समझदार होना है।  फिर दूसरा घाट है - हमको ईमानदार होना है।  समझदारी के अनुसार हमको जीना है, यह ईमानदारी है।  तीसरा घाट है - हमको जिम्मेदार होना है।  हर सम्बन्ध में जिम्मेदार होना है।  चौथा घाट है - हमको अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था में भागीदारी करना है।  मानव के जीने का कुल मिला कर योजना और कार्यक्रम इतना ही है।

[जनवरी 2007, अमरकंटक]

व्यापार भी एक गलती का पुलिंदा है। नौकरी भी एक गलती का पुलिंदा है। कितना खतरनाक बात आपके सामने आ रहा है - आप देख लो! एक तरफ़ ७०० करोड़ आदमी हैं व्यापार और नौकरी के लिए। दूसरी तरफ़ एक आदमी यह प्रस्तुत करता है। एक आदमी! अभी आपके सामने मैंने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया - वह सही है या ग़लत? आप और हम यह परामर्श कर रहे हैं - क्या यह विश्लेषण ग़लत है?

प्रश्न: अध्ययन करने के लिए क्या नौकरी वगैरह छोड़ने की आवश्यकता है?

उत्तर: अध्ययन करना हर व्यक्ति के लिए हर अवस्था में सुगम है। चाहे कोई व्यक्ति एक रूपया कमाता हो, या एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। हर व्यक्ति हर अवस्था में अध्ययन कर सकता है। अध्ययन के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है।

आप ही बताओ - झाड़ से पत्ता तोड़ने, और झाड़ से पत्ता गिरने में कितना अन्तर है? पत्ता जब पेड़ से गिरता है, तो पक कर गिरता है। उसी प्रकार मानव-चेतना से संपन्न होने पर हमारी सारी निरर्थकताएं झड़ जाती हैं। यह एक पूरी तरह woundless process है।

जिस तरीके से आप दाना-पानी उपार्जित करते हो - वह ठीक है, या नहीं है - यह समझदारी के बाद समीक्षित होता है। यदि वह तरीका अर्जित-ज्ञान के अनुकूल है, तो हमको क्या तकलीफ है? यदि वह तरीका ज्ञान के अनुकूल नहीं है - तो वह redesign अपने आप से स्वयं में उभर आता है। वह redesign कोई दूसरा आदमी आ कर नहीं करेगा। समझने के बाद अपने जीने का डिजाईन अपने आप से स्वयं में उभर आता है। यह वैसे ही है - जैसे, प्राण-सूत्रों में नयी रचना-विधि अपने आप से उभर आती है।

एक ही डिजाईन में हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! सभी आदमी एक ही डिजाईन में जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगा। हर डिजाईन के साथ स्वावलंबन की स्थिति ध्रुव रहेगी। हमारा अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक आवर्तनशील विधि से श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना ही "स्वावलंबन" है। मानवीयता संपन्न परिवार की आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में।

श्रम पूर्वक उत्पादन करने का डिजाईन समझदारी संपन्न होने पर आपमें अपने आप से निकलेगा। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इसको यदि हम सही तरह से उपयोग कर लेते हैं, तो संसार के लिए उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।

[अगस्त २००६, अमरकंटक]

ज्ञानार्जन के बाद कार्यक्रम

ज्ञानार्जन करने में सभी स्वतन्त्र हैं। ज्ञानार्जन करने के बाद शुभ-कार्य में प्रवृत्त होना, प्रमाणित होना - यह वेतन-भोगिता के साथ संभव नहीं है। वेतन-भोगिता विधि से आदमी उपकार नहीं कर सकता। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही वेतन-भोगिता विधि और व्यापार-विधि के अभिशाप से मुक्त होने का उपाय है। कुछ लोगों में इस अभिशाप से मुक्त होने का माद्दा तत्काल है, कुछ में नहीं है। जिनके पास माद्दा है, वे बाकियों का सहयोग करें - यही निकलता है।

जीने के तरीके में परिवर्तन समझने के बाद ही होता है। समझने का अधिकार हर किसी के पास है। चाहे चोर हो, डाकू हो - सभी समझ सकते हैं।

"सभी समझ सकते हैं!" - इसी आधार पर हम इस प्रस्ताव का लोकव्यापीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]

Saturday, March 18, 2017

अनुकरण


स्वयं में विश्वास नहीं है तो दूसरे पर विश्वास करना सम्भव नहीं है। आज के प्रचलित तरीके से जीने से आदमी अहमता के आधार पर अकेला हो गया है, जबकि वास्तविक रूप में नियति विधि से आदमी सह-अस्तित्व में है।

प्रश्न: मनुष्य के मनुष्य से जुड़ने की विधि क्या हो?

उत्तर: पहले हम "श्रेष्ठता" के साथ जुड़ते हैं, फ़िर "समानता" के साथ जुड़ते हैं। "यह व्यक्ति मेहनत करके कुछ पाया है" - ऐसी श्रेष्ठता के अनुमान के साथ आप मुझसे जुड़े हो। ज्ञान में समानता, विचार में समानता, और प्रयोजन में समानता - इन तीन जगह में समानता आने पर समानता के साथ जीना बन जाता है। समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने के दो बिन्दु पहचाने - (१) अमीरी-गरीबी में संतुलन, (२) नर-नारी में समानता। मनुष्य के इस तरह व्यवस्था में जीने के लिए उसका "समझदार" होना आवश्यक है - यह मैंने स्वीकारा है। समझदारी के पहले आदमी का व्यवस्था में जीना बनेगा नहीं।

प्रश्न: समझदार होने तक क्या किया जाए?

उत्तर: समझदार होने तक समझदार व्यक्ति का अनुकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति अगर समझदार होता है, तो वह कुछ लोगों को appeal होता है। कुछ लोगों को वह appeal नहीं भी होता है। इसके साथ यह भी है, अनुभवशील व्यक्ति किसी न किसी को appeal होता ही है, कि "यह श्रेष्ठ व्यक्ति है।" श्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी appeal होता है। इसी लिए अनुकरण की सम्भावना बनती है। जिसको प्रमाण के रूप में स्वीकारते हैं, उसका अनुकरण कर सकते हैं। समझदार व्यक्ति को प्रमाण रूप में स्वीकारने की गवाही उसका अनुकरण करने में है।

प्रश्न: अध्ययन काल में (समझदार होने तक) बाकी लोगों के साथ संबंधों में क्या किया जाए?

उत्तर: शिष्टता का निर्वाह। मैं भी समझदार नहीं हुआ हूँ, आप भी समझदार नहीं हुए हैं - उस स्थिति में शिष्टता का निर्वाह हो सकता है। दो में से एक व्यक्ति समझदार होता है, तो अध्ययन और अनुकरण की सम्भावना बनती है। दोनों के समझदार होने पर समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात बनती है।

प्रश्न: आपकी किस बात का अनुकरण करें?

उत्तर: समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का। और किस बात का अनुकरण करोगे? समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना अनुकरण योग्य है।

साक्षात्कार-बोध के लिए निरंतर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ऐसे प्रयत्न करते हुए हमारी दिनचर्या भी उसके अनुकूल होना आवश्यक है। अपने "करने" का यदि अपने "सोचने" से विरोधाभास रहता है तो साक्षात्कार-बोध नहीं होता। पुनः हम शरीर-मूलक विधि में ही रह जाते हैं। आवेश के साथ अध्ययन नहीं होता। आवेश अध्ययन के लिए अड़चन है।

पहले रास्ता ठीक होगा, तभी तो गम्य-स्थली तक पहुंचेंगे! रास्ते पर चल कर ही गम्य-स्थली तक पहुँचा जा सकता है। रास्ते पर हम चलें नहीं, और हमें गम्य-स्थली मिल जाए, ऐसा कैसे हो? इसके लिए हमें यह जांचने की ज़रूरत है - क्या हमारा "करना" हमारे गम्य-स्थली तक पहुँचने के लिए अवरोध तो पैदा नहीं कर रहा है? हम जैसा सोचते हैं, वैसा करें भी, वैसा कहें भी, वैसे फल-परिणामो को पाएं भी, वैसा प्रमाणित भी करें - यही "गम्य-स्थली" है। 

जैसे - हम "नियम" का अध्ययन कर रहे हैं, और हमारा आचरण नियम के विपरीत हो - तो इसमें अंतर्विरोध हो गया। इस अंतर्विरोध के साथ नियम का साक्षात्कार नहीं होता। अध्ययन के साथ "स्वयं का शोध" चलता रहता है। मैं जो समझ रहा हूँ, क्या मैं उसके अनुरूप जी रहा हूँ? इसको पूरा करने के लिए ही "अनुकरण विधि" है।

अध्ययन एक "निश्चित साधना" है। अध्ययन रुपी साधना के साथ "समाधान-समृद्धि" के मॉडल का अनुकरण किया जा सकता है। यह आदर्शवाद के प्रस्ताव से भिन्न है, जिसमें साधना के साथ सामने कोई मॉडल रहता नहीं है। आदर्शवादी साधना में अनुकरण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भौतिकवाद में साधना का कोई मतलब ही नहीं है। भौतिकवाद में उपलब्धि या गम्य-स्थली के रूप में यंत्र है। यंत्र को खरीदो और प्रयोग करो - इतना ही है।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
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प्रश्न: आप कहते हैं - "समझ के करो!" हम जब इस प्रस्ताव को "समझने" के क्रम में हैं, उस दौरान अपने "करने" का क्या किया जाए?

उत्तर: अनुभव के लिए समझना है। अनुभव के बाद "समझ के करना" ही होता है। "समझने" की अन्तिम-बात अनुभव में है। अनुभव से कम दाम में किसी भी मुद्दे में संतुष्टि नहीं होता - न किसी सम्बन्ध में, न मूल्यों में, न लेन-देन में। तब तक "करने" के लिए बताया है - अनुकरण। अपने जीने के डिजाईन में अनुकरण विधि से आप परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ। आप उसको अनुकरण कर सकते हैं। यदि ऐसा कर पाते हैं, तो अपने लिए काफी सहूलियत हो गयी। हर दिन अपने वातावरण में कमियों के प्रति शर्मिंदा होने के स्थान पर आगे अनुभव के लिए हम प्रयत्न कर सकते हैं। ऐसा अनुकरण अध्ययन के लिए सहायक है।

[सितम्बर २००९, अमरकंटक]
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प्रश्न: अध्ययन के साथ "अनुकरण" की क्या भूमिका है?

उत्तर: प्रौढ़ व्यक्तियों को अनुकरण करने को कम कहा है। बच्चों के लिए ज्यादा कहा है। एक आयु के बाद व्यक्ति अपने को समझा हुआ मान लेता है। ऐसे व्यक्ति को समझाने के लिए यह मान कर चलते हैं - "थोड़ा समझाने के बाद वे विचार पूर्वक समझ जायेंगे"। उनका "सम्मान" यही है। यही "गंभीरता" भी है। "न्याय" भी यहाँ यही है।

बच्चों में अपने अभिभावकों का अनुकरण की बात सर्वाधिक है। भाषा का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। कार्य, व्यवहार, और रहन-सहन का अनुकरण बच्चे करते ही हैं। अभी की स्थिति में "समझदारी" को लेकर अभिभावक अनुकरणीय नहीं बन पा रहे हैं। अभिभावकों को स्वयं समझदारी का पता नहीं है तो बच्चों को क्या अनुकरण करायेंगे। इसकी पूर्ति के लिए अभिभावकों को समझदार होना ही पड़ेगा।

किसका अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - "मानवीयता पूर्ण आचरण" को प्रमाणित करने वाले व्यक्ति का (समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हुए व्यक्ति का) का अनुकरण किया जाए।

कब तक अनुकरण किया जाए? इसका उत्तर है - पूरा समझने तक, पूरा हृदयंगम होने तक, पूरा प्रमाणित होने तक। ऐसे अनुकरण करने से अध्ययन में मदद मिलती है।

अनुकरण करने का मतलब है - "मजबूरन" कुछ करना। "सही" को हम सहमति पूर्वक स्वीकार के अनुकरण कर सकते हैं। यदि हम "अपराध" के लिए सहमत हो कर उसका अनुकरण कर सकते हैं, तो "सही" के लिए सहमत हो कर अनुकरण करने में क्या तकलीफ है?  
[ अक्टूबर २००९, हैदराबाद ]

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प्रश्न: "समाधान का अनुकरण" से क्या आशय है?

उत्तर: शब्द या लेख के आधार पर अनुकरण - पठन के रूप में। उसके बाद अर्थ के आधार पर अनुकरण - अध्ययन के रूप में। अध्ययन के फलन में अनुभव के आधार पर स्वत्व हो जाता है। अनुकरण का विधि और प्रयोजन यही है।

वेदज्ञों के परिवार में जन्मने के बाद मैंने उनका अनुकरण किया, उनका भाषा प्रयोग किया, उसके बाद उसके अर्थ में गया। अर्थ में गया तो सारा वितंडावाद हो गया। अनुभव तो दूर रह गया! इस कष्ट को मिटाने के लिए अनुसन्धान किया, जिससे मध्यस्थ-दर्शन उपलब्ध हुआ।

अब मध्यस्थ-दर्शन में पठन, अध्ययन, और अनुभव का क्रम सध गया। अनुभव-मूलक विधि से जीने वाले का अनुकरण करने से शब्द के अर्थ में जाना बन जाता है। शब्द के अर्थ में जाने के बाद अनुभव में जीना बन जाता है। अनुभव में जीना बनता है तो प्रमाण होता ही है।

अध्ययन को छोड़ कर केवल अनुकरण करने से कुछ समय तक तृप्ति है, पर तृप्ति की निरंतरता नहीं बनती। यही अध्ययन और अनुभव की आवश्यकता है।

सूचना को दोहराने से अर्थ की ओर ध्यान जाता ही है। अर्थ को जब शोध करते हैं तो अपना स्वत्व होने की जगह में पहुँच ही जाते हैं। अध्ययन को आत्मसात करने की विधि है - अनुकरण।

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]
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अनुमान से अनुभव तक पहुँचते हैं। अनुभव होता है, तो अनुमान सही है। अनुभव नहीं होता, तो अनुमान सही नहीं है। अनुमान करने की ताकत कल्पनाशीलता के स्वरूप में हर व्यक्ति के पास है। उसके सहारे अनुभव तक पहुँच सकते हैं। जीने में जो प्रमाणित हो सके, वह अनुमान सही है। जीना प्रमाण ही होता है, अनुमान नहीं होता। जीने के अलावा और किसी चीज को प्रमाण कैसे माना जाए? "मैं प्रमाणित स्वरूप में जी रहा हूँ" - इस जगह आपको आना है।

अनुक्रम से अनुभव होता है। जो कुछ भी होना हुआ है, और जो कुछ भी होना है - वह अनुक्रम है। अनुक्रम का अर्थ है - एक से एक जुडी हुई श्रंखला विधि। इस विधि को पूरा समझने से अनुमान होता है। अनुमान होने के बाद अनुभव होता है। अनुभव होने के बाद प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रमाण होता है। मानव के सुधरने के लिए, सुसज्जित होने के लिए यही विधि है। 

अध्ययन में यदि मन लगता है तो अनुभव हो जाएगा। 
अध्ययन में मन नहीं लगता है तो अनुभव नहीं होगा।

अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है। अनुभव के पहले अनुकरण-अनुसरण विधि से "अच्छा लगने" की स्थिति में आ जाते हैं, "अच्छा होना" नहीं होता। केवल अनुसरण-अनुकरण पर्याप्त नहीं है। जीने में प्रमाणित होने पर ही "अच्छा होना" होता है। 

[अप्रैल २०१०, अमरकंटक]

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मैंने जब अध्ययन किया तो मेरे पास अस्तित्व को पढने के लिए पहले से सूचना उपलब्ध नहीं था। जो मैंने समझा उसकी सूचना आपके अध्ययन के लिए मैंने प्रस्तुत किया है। मैंने बिना सूचना के ही जो अध्ययन कर लिया, उसको सूचना के साथ अध्ययन करके अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है?

प्रश्न: हम अभी अध्ययन-क्रम में हैं। जितना समझे हैं, उसको अनुकरण-अनुसरण पूर्वक जीने का प्रयास भी कर रहे हैं। फिर भी उत्साह कभी कभी ऊपर-नीचे होता रहता है। उत्साह को कैसे बनाए रखें?

उत्तर: अनुभव के लिए उत्साह को बनाए रखिये - सूचना के आधार पर। आगे चलकर इसको अनुभव करेंगे... इस तरह। सौ हथौड़े की चोटों के बाद एक विशाल पत्थर टूटता है। ९९ चोटें रही, तभी १००वी चोट पर पत्थर टूटता है। जितनी सीमा तक समझ को जी पाते हैं, उससे खुशी भी मिलती है - जिससे आगे के लिए उत्साह बना रहता है। प्रमाण अनुभव के बाद ही है।

विरक्ति विधि से मैंने साधना किया था। साधना-काल में हम हर समय खुश-हाली ही मनाते रहे। कभी अभावग्रस्त या पीड़ा-ग्रस्त नहीं हुए। जबकि साधना में हम सूखते ही रहे! आपके लिए अध्ययन का मार्ग कोई विरक्ति-विधि नहीं है। इसीलिये मैं मानता हूँ, सर्व-मानव के लिए सुलभ अध्ययन-विधि ही है।

[अप्रैल  २०१०, अमरकंटक ]

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प्रश्न:  अध्ययन विधि में "अनुकरण"  की क्या भूमिका है?

उत्तर: अनुकरण नहीं है तो अध्ययन किसका करोगे?  कोई जागृत स्वरूप में जीता है, तो उसको देख करके अध्ययन होता है।  वही अनुकरण है।  दूसरी विधि से अध्ययन होता नहीं है।  जागृत होने के लिए दूसरी विधि अनुसंधान ही है। 

प्रश्न:  आपके जागृत स्वरूप में जीने को देख कर मुझ में वैसा जीने की इच्छा बनती है।  क्या वह अध्ययन है?

उत्तर: मेरे जीने को देख कर पहले आप में वैसा जीने की "कल्पना" दौड़ती है, आपका "कार्य" नहीं दौड़ता।  आपका कार्य उसके अनुसार दौड़ने से फिर ठीक हो जाता है।  इच्छा भर होना "व्यक्तिवाद" है।  कार्य भर होना "समाजवाद" है।  अनुभव होना और उसके अनुसार इच्छा और कार्य होना "सहअस्तित्ववाद" है। 

[अनुभव शिविर, २०१३ अमरकंटक]