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Thursday, January 27, 2011

अस्तित्व का स्वरूप

समाधि-संयम पूर्वक अस्तित्व का स्वरूप मुझे समझ में आया। अभी तक अस्तित्व के बारे में जो ब्रह्मवादी कहते रहे हैं - वैसा नहीं है अस्तित्व! ब्रह्मवादियों का कहना है - केवल ब्रह्म का ही अस्तित्व है, बाकी सब उसी से उत्पन्न होता है, और फिर उसी में विलय हो जाता है। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

मूलतः व्यापक वस्तु है और एक-एक वस्तुएं हैं। एक-एक वस्तु जड़-प्रकृति में भी हैं - जिनको हम भौतिक-रासायनिक वस्तु भी कहते हैं। यह पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था हैं। दूसरे एक-एक वस्तु चैतन्य-प्रकृति में भी है - जिसको जीव-अवस्था और ज्ञान-अवस्था भी कहते हैं। जड़-चैतन्य जितनी भी एक-एक वस्तुएं हैं, वे व्यापक-वस्तु में समाई हुई हैं।

समाई हुई स्थिति का मैंने अनुभव किया - घिरा हुआ है, डूबा हुआ है, और भीगा हुआ है। इसको नाम दिया - 'सम्पृक्तता'। पूर्णता के अर्थ में डूबा, भीगा, घिरा होना = सम्पृक्तता। ऐसी स्थिति में मैंने पूरे संसार को देखा।

अस्तित्व सह-अस्तित्व है। सह-अस्तित्व नित्य प्रकटनशील है। कैसे प्रकट होता है? व्यापक वस्तु स्वयं में निरपेक्ष ऊर्जा स्वरूप में है। सभी अवस्थाओं को यह साम्य-ऊर्जा प्राप्त है। साम्य-ऊर्जा के आधार पर हरेक एक कार्य-ऊर्जा को पैदा करता है। हरेक एक ऊर्जा-संपन्न है, जिससे क्रियाशील होने के आधार पर कार्य-ऊर्जा को पैदा करता है। इस तरह पदार्थावस्था से लेकर प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, ज्ञान-अवस्था तक परमाणु रूप में क्रियाशीलता वश शब्द, ताप, और विद्युत् स्वरूप में कार्य-ऊर्जा निष्पन्न होती है। हरेक एक परमाणु ऐसी कार्य-ऊर्जा को तैयार करता है। परमाणु से ही अस्तित्व में मूल-व्यवस्था की शुरुआत है। परमाणु के पूर्व-रूप परमाणु-अंश में व्यवस्था नहीं है। परमाणु के पर-रूप (रचना) में भी मूल-व्यवस्था नहीं है, सम्मिलित व्यवस्था होती है।

ऐसे ही पदार्थ-अवस्था समृद्ध होने पर धरती जैसे बड़ी-बड़ी रचना पर यौगिक विधि से परमानुएं किसी अनुपात में मिल कर रसायन-संसार को शुरू करते हैं। रसायन-संसार में सर्व-प्रथम किसी भी धरती पर पानी तैयार होता है। पानी और धरती के संयोग से अनेक रचनाएँ तैयार होने लगते हैं - जिसे वनस्पति-संसार कहते हैं। वनस्पति-संसार मूलतः परमाणु ही हैं। ये पदार्थ-अवस्था से ही प्रकट हुए हैं। मिट्टी-पत्थर-मणि-धातु के रूप में न हो कर ये परमाणु जीवों और मनुष्यों के आहार स्वरूप में हो जाते हैं। प्राण-कोशा प्राण-अवस्था को मूल रूप है। प्राण-कोशायें गुणात्मक परिवर्तन को पा कर जीव-शरीरों की रचना करती हैं। जीवों का आहार पहले से ही प्राण-अवस्था के रूप में तैयार रहता है। अनेक जाति के जीव तैयार होने के बाद मानव-शरीर किसी न किसी जीव-शरीर से तैयार हुआ। अभी विज्ञानी मान रहे हैं केवल बन्दर से ही मानव-जाति की शुरुआत हुई। मेरे हिसाब से ऐसा नहीं है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न जानवरों से मनुष्य-शरीर का निर्माण हुआ, जिसकी फिर परंपरा हुई।

हर मानव भी व्यापक वस्तु में डूबा-भीगा-घिरा है। मानव जीवन और शरीर का संयुक्त रूप है। जीवन शरीर को चलाता है। जीवन जब तक शरीर को चलाता है, तब तक जीता हुआ मानते हैं। जीवन जब शरीर को छोड़ देता है - तब हम मरा हुआ मान लेते हैं। हर मानव-संतान ज्ञान-अवस्था की उपज होते हुए भी 'ज्ञान' को स्वीकारा नहीं है। जीवन ज्ञान-संपन्न होने के लिए शरीर-यात्रा शुरू करता है। ज्ञान-संपन्न नहीं हो पाता है तो पीड़ित होता है। इसलिए इस पूरी बात की सूचना मानव-सम्मुख रखने की ज़रुरत है और उसका समाधान रखने की ज़रुरत है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से (जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन - चकारसी २००८)

"मैं" का आशय

भ्रमित स्थिति में जीवन की साढ़े चार क्रियाएं ही प्रभावी होती हैं, शेष साढ़े पांच क्रियाएं सुप्त रहती हैं। साढ़े चार क्रिया में जिसको मनुष्य "मैं" कहता है, वह शरीर ही है।

अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसों क्रियाएं प्रगट होती हैं। अनुभव-मूलक विधि से मनुष्य जिसको "मैं" कहता है, वह शुद्धतः जीवन होता है। जीवन में भी "मैं" से आत्मा इंगित होता है।

प्रश्न: अध्ययन करते हुए मनुष्य जिसको "मैं" कहता है - वह किस स्तर से है?

अध्ययन करने की स्थिति में यही कहना बनता है - "मैं अनुभव के लिए अध्ययन कर रहा हूँ।" अध्ययन करते हुए "शरीर जीवन है" यह पूर्व-स्मृति भी रहती है, तथा साथ ही जीवन की दसों क्रियाओं का स्वरूप भी भास्-आभास में रहता है। इन दोनों को जोड़ कर आप "मैं" कहते हो।

जीवन की क्रियाओं को जीवन ही समझता है। मन को समझने वाला वृत्ति है। वृत्ति को समझने वाला चित्त है। चित्त को समझने वाला बुद्धि है। बुद्धि को समझने वाला आत्मा है। साथ ही, शरीर को समझने वाला मन है। समझने वाला ही मूल्याङ्कन करता है। "मन शरीर का मूल्यांकन करता है।" - यहाँ से अध्ययन की शुरुआत है।

मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में, और आत्मा अस्तित्व में अनुभव करता है। अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसों क्रियाएं व्यक्त होती हैं। जिससे स्वयं पर विश्वास करना बनता है। स्वयं पर विश्वास करने से अच्छे ढंग से जीना बनता है। अच्छे ढंग से जीने की फिर परंपरा बनती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २००८, चकारसी)

जीवन का अध्ययन

हर व्यक्ति के साथ जीवन शरीर को जीवंत बनाने के रूप में है। शरीर को जीवंत बनाए बिना जीवन अपने को शरीर द्वारा व्यक्त नहीं कर पाता है। जब तक जीवन शरीर को जीवंत बनाता है, प्राण-कोशायें जिन्दा रहते हैं, शरीर पुष्ट रहता है। जीवन शरीर को छोड़ देता है तो प्राण-कोशायें मर जाते हैं। शरीर के लिए आहार का निश्चयन जीवन ही करता है। जीवों में वंश के अनुसार जीवन आहार का निर्धारण (शाकाहार या मांसाहार) करता है। जीवों में आहार की पहचान 'गंध' के आधार पर होता है। मानव आहार को 'रूचि' के आधार पर पहचानता है। दोनों में फर्क यह है।

जीवन 'ताकत' रूप में है। शरीर 'काम करने' के रूप में है। जीवन की ताकत है - ज्ञान। ज्ञान की ताकत से प्रमाणित होना मानव-परंपरा में जीवन और शरीर के संयोग से ही होता है।

अणु-बंधन और भार-बंधन से मुक्त होने के बाद गठन-पूर्ण होकर जीवन पहले आशा-बंधन के अनुरूप शरीर चलाने को तैयार होता है। उसके बाद विचार-बंधन और इच्छा-बंधन के अनुरूप शरीर चलाने को तैयार होता है। इन बन्धनों से परेशान हो कर फिर बंधन-मुक्ति के लिए प्रयासरत होता है। बंधन-मुक्ति = भ्रम-मुक्ति। भ्रम = अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोष। इन दोषों से मुक्त होना ही भ्रम-मुक्ति है।

प्रश्न: जीवन का 'रूप' क्या है?

जीवन का रूप गठन-पूर्ण परमाणु है। यह अध्ययन पूर्वक स्पष्ट होता है। प्रयोग विधि से जीवन का रूप हम नहीं समझ सकते।

प्रश्न: जीवन अपने 'गुणों' को कैसे प्रदर्शित करता है?

उद्भव, विभव, और प्रलय कार्यों में अपनी शक्तियों (चयन, तुलन, चित्रण) का प्रयोग करने के स्वरूप में। व्यवहार द्वारा ही जीवन के गुणों को पहचाना जाता है।

प्रश्न: जीवन के 'स्वभाव' का कैसे पता चलता है?

व्यवहार पूर्वक। धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा जागृत-जीवन का स्वभाव है।

प्रश्न: जीवन का 'धर्म' क्या है?

सुख। इसके प्रमाण में हर मनुष्य सुखी होना चाहता है। मनुष्य के साथ व्यवहार में ही सुखी रहने या दुखी रहने का पता चलता है।

सुखी होने की स्थली शरीर में कहीं नहीं है। ४ विषयों में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। ५ संवेदनाओं में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। ३ ईश्नाओं में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। इसीलिये इनका त्याग होता है। अनावश्यकता का विसर्जन = त्याग। उपकार विधि से सदा सुखी होने की बात होती है। उपकार = समझदारी पूर्वक स्वयं सुखी रहना, और अन्य को समझदार बनाना। उपकार गुरु-मूल्य है। ३ ईश्नायें, ५ संवेदनाएं, और ४ विषय लघु-मूल्य हैं। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाहित होता है। ३ ईश्नाओं में जीना गुरु-मूल्य है -५ संवेदनाओं में जीने से। ५ संवेदनाओं में जीना गुरु-मूल्य है - ४ विषयों में जीने से।

जीवन में संतुलन की चाह बनी है, पर करते समय असंतुलन का काम करता है। यही आत्म-वंचना है। संतुलित रहना चाहते हैं, शुभ चाहते हैं - पर करते समय उसका विपरीत कर देते हैं।

जीवन में सच्चाई की प्यास है। जीवन में सच्चाई की प्यास आत्मा में सबसे प्रबल है। उसके बाद बुद्धि में। उसके बाद बाकी तीनो भागों में। जीवन में सच्चाई की प्यास होने से ही भ्रमित-मनुष्य को भी न्याय-धर्म-सत्य का भास्-आभास होता है। इसीलिये फिर प्रतीति और अनुभूति के लिए प्रयास होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

Monday, January 24, 2011

ज्ञान


प्रतिबिम्बन और पहचान

साम्य-सत्ता में संपृक्त रहने से प्रत्येक वस्तु (परमाणु, अणु, अणु-रचित रचना, पेड़-पौधे, जीव-जानवर, मानव) ऊर्जा-संपन्न है, बल-संपन्न है, क्रियाशील है. क्रियाशीलता के साथ वस्तु में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म आ गया. रूप, गुण, स्वभाव, धर्म = यथास्थिति. क्रियाशीलता के फलस्वरूप इकाई अपने सभी ओर अपनी यथास्थिति के साथ प्रतिबिंबित रहता है. हर इकाई का सभी ओर प्रतिबिम्बन रहता है. इस सिद्धांत को हृदयंगम करने की आवश्यकता है. इकाई का प्रतिबिम्ब सभी ओर रहता है इसीलिये इकाई सभी ओर से दिखता है.

लक्ष्य के आधार पर पहचान सिद्ध होती है. लक्ष्य-विहीन कोई पहचान नहीं है. लक्ष्य क्या है? विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति लक्ष्य है. सह-अस्तित्व में इतना ही लक्ष्य है. हर इकाई लक्ष्य के अर्थ में ही पहचान और निर्वाह करती है. लक्ष्य के अनुकूल यदि दूसरी इकाई होती है तो उसके साथ वह इकाई रहती है. लक्ष्य के प्रतिकूल यदि दूसरी इकाई होती है तो उसके साथ वह इकाई रहती नहीं है. साम्य-सत्ता में संपृक्त रहने से परमाणुओं में लक्ष्य-सम्मत पहचान की अर्हता आ गयी. साम्य-सत्ता यथावत रहते हुए, सभी परमानुएं उसमें भीगे रहते हुए लक्ष्य-सम्मत पहचान का वैभव हो गया. लक्ष्य के अर्थ में प्रतिबिम्बन पूर्वक पहचान की शुरुआत परमाणु-अंशों से ही है. सभी परमाणु-अंश एक सा होते हुए, परमाणुओं के गठन में परमाणु-अंशों की मात्रा के आधार पर उनका कार्य-शैली बदलता गया.

“रहने” की दो विधियाँ हैं – यौगिक विधि और सहवास विधि. परमानुएं सहवास विधि से सबके साथ रहते हैं, यौगिक विधि से कुछ के साथ रहते हैं. यौगिक-स्वरूप में होने का मुख्य मुद्दा है – उभय-सुकृतियाँ होना. यौगिक-विधि द्वारा मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता है. यौगिक-विधि द्वारा दो प्रकार की वस्तुएं मिल कर काम करने लगे और उनके काम करने का यह स्वरूप इससे पहले वाले स्वरूपों से भिन्न है. कुल मात्रा तो उतनी ही रही, पर उनमें मिल कर काम करने से गुणात्मक-परिवर्तन हो गया. झाड-पौधों से जीव-शरीरों तक मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता रहा.

हर वस्तु के प्रतिबिम्ब को मनुष्य द्वारा समझने की विधि है – जानना, मानना, पहचानना, और निर्वाह करना. इन चार में से पहचानना और निर्वाह करना मनुष्येत्तर प्रकृति में भी स्पष्ट है. मानव में ही जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करना होता है. अभी तक मानव-जाति ’मानने’ के आधार पर पहचान-निर्वाह किया है. मानव में कल्पनाशीलता नियति-प्रदत्त विधि से है – जिसके आधार पर मानव अभी तक ‘मानने’ के आधार पर जिया है. ‘जानता’ कुछ नहीं है. ‘जानना-मानना’ पूरा करने के लिए यह छोटा सा प्रस्ताव है.

पदार्थ-अवस्था में रूप-प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. प्राण-अवस्था में रूप और गुण प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. जीव-अवस्था में रूप, गुण, और स्वभाव प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. जीव जानवर एक दूसरे के क्रियाकलाप (गुणों) को देखते हैं, उससे क्रूर-अक्रूर स्वभाव को पहचानते हैं. जीव-जानवरों ने खाने-पीने के आधार पर ही स्वभाव की पहचान है. ज्ञान-अवस्था के मानव में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म प्रधान से परपर पहचान-निर्वाह का प्रावधान है. मानव इन सबके रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को समझता है. इनमें से मुख्यतः मानव को समझने की ज़रूरत है, और प्रमाणित करने की ज़रूरत है.

मानव का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म ज्ञान होने के लिए जीवन-ज्ञान होना आवश्यक है. बिना जीवन के मानव संज्ञा नहीं है. जीवन कहाँ है? सह-अस्तित्व में जीवन है. इसलिए सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान आवश्यक है. इसके बाद मानव के प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान आवश्यक है. इन तीनो ज्ञान होने पर हम मानव के रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को पहचान सकते हैं. इन तीनो ज्ञान के पहले मानव का रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को पहचानना न किसी से हुआ, न किसी से होगा. अभी तक तो नहीं हुआ! सबने अपनी-अपनी ढफली, अपना-अपना राग कर लिया – इसके बावजूद नहीं हुआ.

प्रश्न: जीव-चेतना में मानव के पहचान की क्या सीमा है?

जीव-चेतना में मानव शरीर-मूलक विधि से पहचान करता है. शरीर-मूलक विधि से आँखों के द्वारा ‘रूप’ की भी पहचान नहीं होती. रूप = आकार, आयतन, घन. आयतन का आधा-भाग (सम्मुख भाग) आँखों में आता है, बाकी आँखों में आता नहीं है. ‘घन’ आँखों में आता नहीं है. आँखों में आयी बात को सच्चाई मान कर हम कहाँ तक पहुंचेंगे? इस तरह चलते हुए मनुष्य सम-विषम गुणों को पहचानता है. स्वभाव और मध्यस्थ-गुण को पहचानता नहीं है. साढ़े चार क्रिया में पहचान की यही सीमा है. इससे ४ विषयों और ५ संवेदनाओं की पहचान होती है.

आँखों की सीमा में सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है. आँखों की सीमा में आदमी कुछ भी करे, धोखा ही होगा. आप इसे १००% जाँचिये, यह १००% सही निकलेगा. संवेदनाओं के आधार पर हम कुछ भी करें, तो धोखे की जगह पर पहुँचते हैं या नहीं? कुंठा की जगह पर पहुँचते हैं या नहीं? निराशा की जगह में पहुँचते हैं या नहीं? असफलता की जगह में पहुँचते हैं या नहीं? सबको आंकलन करिये. व्यर्थता के आंकलन में ज्यादा देर लगाने की आवश्यकता नहीं है, सार्थकता में जीने की आवश्यकता है. मेरा यही सुझाव है.

प्रश्न: अध्ययन में प्रतिबिम्बन का क्या महत्त्व है?

प्रतिबिम्बन के आधार पर ही अध्ययन है. प्रतिबिम्बन को यदि पहचानते नहीं हैं तो शब्द को कैसे पहचानेंगे? शब्द का अर्थ प्रतिबिंबित है तभी शब्द से अर्थ की पहचान है. अर्थ स्वरूपी प्रतिबिम्ब के साथ तदाकार होना ही निष्ठा है. शब्द के अर्थ में तदाकार होने पर ही निष्ठा हुई. इतना ही बात है. यह बात बहुत छोटी है, पर इसका प्रभाव बहुत विशाल है! कल्पनाशीलता को तदाकार तक पहुंचाते हैं तब निष्ठा हुई. उससे दूर रहते हैं तो आँखों की सीमा वाली पहचान ही रही.

तदाकार होने का औज़ार हमारे पास है, उसका नाम है – कल्पनाशीलता. हमारी चाहत के अनुसार हमारी कल्पनाशीलता काम करती है. हम तदाकार नहीं होना चाहें तो तदाकार नहीं हो पाते हैं. अध्ययन विधि में यही अड़चन है, और यही सुगमता भी है. अधिकार भी यही है. जब हम तदाकार हो जाते हैं तो वस्तु को समझने लग जाते हैं. तदाकार नहीं हो पाते हैं तो आँखों की सीमा में ही रह जाते हैं.

अस्तित्व स्वयं पर प्रतिबिंबित है, तदाकार होने पर हम उसको समझ पाते हैं. समझना = जानना-मानना. इस तरह तदाकार-विधि से हम प्रमाणित होते हैं. जिसके फलन में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं. न्याय – धर्म - सत्य को प्रमाणित करते हैं. समाधान – समृद्धि – अभय - सह-अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं. सुख – शांति – संतोष – आनंद को प्रमाणित करते हैं. मानव का लक्ष्य यही है. मानव के लक्ष्य को पहचानने की विधि भी यही है. दूसरा कुछ विधि भी नहीं है.

इस अनुसंधान में एक मौलिक बात हुई – सर्व-मानव में कल्पनाशीलता है, इस बात को स्वीकारा. कल्पनाशीलता ही एक मात्र वस्तु है जो तदाकार हो सकती है. किस प्रयोजन के लिए – सच्चाई को पाने के लिए. सच्चाई को समझना ही सच्चाई को पाना है. इस प्रस्ताव के अध्ययन से यदि ठौर मिलता है तो बहुत-अच्छा है, नहीं तो आप अनुसंधान कर लेना. हम ऐसा कोई व्यर्थ का दावा नहीं कर रहे हैं कि इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता. मैंने जितना किया उतना आप के सामने प्रस्तुत कर दिया. इस प्रस्ताव के आने से मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने का सम्भावना तो उदय हो गया. इतना तो मैंने देख लिया, कर दिया, जी भी लिया. किन्तु संसार प्रमाणित होना अभी दूर ही है. संसार अपने रंग में डूबा ही है. एक व्यक्ति के जीने मात्र से संसार प्रमाणित हो गया, ऐसा कुछ नहीं है.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Sunday, January 23, 2011

प्राणावस्था से जीवावस्था और ज्ञानावस्था तक प्रगटन


प्राण-सूत्रों में निहित रचना-विधि में विकास होते-होते जीव-शरीर को तैयार कर दिया. दूसरी ओर, गठन-पूर्ण परमाणु के स्वरूप में चैतन्य-प्रकृति शुरू हुआ. गठन-पूर्ण परमाणु अपने में एक कार्य-गति पथ बना कर रखता है – जो अपने में एक आकार होता है. उस आकार की शरीर-रचना प्राण-कोशिकाएं तैयार कर देते हैं. सह-अस्तित्व विधि से यह होता है. यह मनुष्य-कृत नहीं है.

एक तरफ जीवन एक आकार का कार्य-गति-पथ बनाता है, दूसरी तरफ प्राण-कोशिकाएं उसी आकार की शरीर-रचना तैयार कर देते हैं. इसको सह-अस्तित्व कहा जाए या नहीं कहा जाए? यहाँ से गठरी सब खुलता है. चैतन्य-परमाणु को जितनी आवश्यकता शरीर की है, शरीर को उतनी आवश्यकता चैतन्य-परमाणु की है. ऐसा कैसे? आकार के आधार पर. चैतन्य-प्रकृति के पुन्जाकार के अनुरूप शरीर का आकार होने पर दोनों का संयोग होता है. इसमें आकार को छोटा-बड़ा करने की अर्हता जीवन में रहती है, शरीर में नहीं. गर्भ में शिशु छोटे आकार का होता है, तो जीवन उसके अनुरूप छोटे आकार का हो जाता है. समृद्ध मेधस-तंत्र संपन्न शरीर को जीवन चलाना शुरू करता है. मेधस-तंत्र के बिना जीवन शरीर को चला नहीं पाता. गर्भ में किसी अवधि के बाद शिशु का मेधस-रचना पूरा होता है. मेधस-रचना पूरा होने के बाद जीवन उस शिशु-शरीर को गर्भ से ही संचालित करना शुरू कर देता है. मेधस-रचना पूरा होने से पहले जीवन उसे नहीं चलाता है. माँ के गर्भ में जब तक शिशु-शरीर को जीवन चलाना शुरू नहीं करता – तब तक उसमें हिल-डुल नहीं होता. माँ के शरीर द्वारा ही शिशु-शरीर का पोषण होता रहता है. जब तक शिशु-शरीर में ज्ञान-वाही तंत्र तैयार नहीं हो जाता तब तक माँ का जीवन ही शिशु के शरीर को जिन्दा रखता है. शिशु में ज्ञान-वाही तंत्र तैयार होने के बाद जीवन के बिना शिशु-शरीर जिन्दा नहीं रहता है.

प्रश्न: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने का क्या अर्थ है?

प्राण-कोशिकाओं के ताना-बाना से शरीर बनता है. इन ताना-बाना के बीच में छिद्र होता है, जिनमे से जीवन घूमता रहता है, जिससे शरीर जीवंत बनता है. जहां प्राण-कोशायें मृत हो जाती हैं, वहाँ से जीवन घूमता नहीं है – शेष को जीवंत बना कर रखता है. ज्ञान-वाही तंत्र जब तक काम करता है तब तक जीवन जीवंत बनाने का काम करता है. जीव-शरीरों की प्राण-कोशिकाएं पेड़-पौधों की प्राण-कोशिकाओं से भिन्न तरह से काम करती हैं. पेड़-पौधों में जीवन द्वारा जीवंत बनाने की आवश्यकता और प्रावधान नहीं है. पेड़-पौधों से जीव-शरीरों तक प्राण-कोशिकाओं में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ-साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता रहा.

प्रश्न: किसी जीव में जीवन है या नहीं – इसकी कैसे पहचान करेंगे?

सप्त-धातुओं से रचित शरीर हो, समृद्ध मेधस हो, और मानव के संकेतों को पहचानता हो – ऐसे सभी जीवों में जीवन है.

प्रश्न: एक गाय और एक घोड़े के शरीरों के चलाने वाले जीवनों में क्या अंतर है?

दोनों जीवन गठन-पूर्ण परमाणु हैं. उनके पुन्जाकार का ही अंतर है. घोड़े में वंश-अनुशंगीय विधि से विधि से जीवन घोड़े के अनुसार कार्य करता है. गाय में वंश-अनुशंगीय विधि से गाय के अनुसार कार्य करता है.

जीवन जीव-शरीरों को आशा-बंधन पूर्वक चलाने से शुरू करता है. आशा-बंधन पूर्वक जब तृप्ति नहीं मिलती है तब गुणात्मक-विकास विधि से मनुष्य-शरीर के आकार में स्वयं पुन्जाकार होता है. मनुष्य-शरीर सर्व-प्रथम किसी जीव-शरीर से ही पैदा होता है. उसके बाद प्रजनन विधि से उसका परंपरा बनता है.

मानव-परंपरा में समझ के अनुसार जीवन के शरीर को चलाने की बात होती है. मानव-परंपरा में समझ न होने के कारण भटक जाता है. मानव-परंपरा में यदि समझ होता तो वह क्यों भटकता?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Saturday, January 22, 2011

पदार्थावस्था से प्राणावस्था तक प्रकटन


सबसे पहले यह समझना बहुत ज़रूरी है कि संसार का क्रियाकलाप स्वयंस्फूर्त है. प्रकृति को अपना क्रियाकलाप सीखने के लिए मनुष्य की आवश्यकता नहीं है. किसी विज्ञानी के सिखाने से मिट्टी उर्वरक नहीं होता. प्राणावस्था की प्राण-कोशिकाएं जब सूख कर मिट्टी में मिलते हैं, तो वे सब उर्वरक होते हैं. मनुष्य और जीव-जानवरों का मल-मूत्र भी उसी तरह मिट्टी में मिल कर उर्वरक बनता है.

पदार्थ-अवस्था के सभी परमाणुओं में क्रियाशीलता सत्ता में संपृक्तता वश है. पदार्थावस्था से प्राणावस्था उसकी क्रियाशीलता के आधार पर ही प्रगट हुई. प्राणावस्था अपनी कार्य-ऊर्जा के आधार पर ही कार्य कर रहा है.

जितने भी प्रजाति के परमाणु धरती पर होने हैं, उनके प्रकटन के बाद ही यौगिक-क्रिया का प्रकटन है. पानी सबसे पहला यौगिक है. पानी एक जलने वाले वस्तु और एक जलाने वाले वस्तु के संयोग से बना. इन दोनों वस्तुओं में प्यास बुझाने वाला गुण नहीं है. ये दोनों किसी निश्चित अनुपात में अनुकूल परिस्थितियों के साथ मिलने से दोनों में सकारात्मक परिवर्तन होने, और दोनों के संतुष्ट होने की बात आती है – जिससे पानी घटित होता है. दोनों का परस्पर-विरोध समाप्त होने पर संतुष्टि-बिंदु आया कि नहीं?

प्रश्न: धरती पर पानी के प्रकट होने की घटना एक बार घटित हुई, या अभी भी पानी का प्रकटन जारी है?

उत्तर: एक बार धरती पर चारों अवस्थाओं के संतुलन पूर्वक रहने के लिए जितना पाने की आवश्यकता है, वह एक बार तैयार हो गया. जीव और मनुष्य का प्रकटन नहीं हुआ था, तब यह हुआ. पानी अब आवर्तनशील है.

पानी प्रकट होने पर उसमें धरती से अम्ल और क्षार दोनों आ गए. उससे योग-संयोग पूर्वक रचना-तत्व तैयार हो गया. रचना-तत्व तैयार होने से प्राण-सूत्र तैयार हो गए. प्राण-सूत्र जब रसायन-जल में सांस लेने लगे तो उसी के साथ उनमें रचना-विधि आ गयी. रचना-विधि के अनुसार प्राण-सूत्र उस प्रकार की रचना शुरू कर दिए. बीज-वृक्ष विधि से उनकी आवर्तन-शीलता बनने से प्राण-सूत्रों में जो खुशहाली होती है, उससे उनमें दूसरे प्रकार की रचना-विधि स्वयं-स्फूर्त उभर आती है. इस तरह अनेक तरह की रचना-विधियाँ और उनके अनुरूप रचनाएं, और उनकी आवर्तनशील परम्पराएं स्थापित हो गयी.

प्रश्न: पुष्टि-तत्व कैसा दिखता है?

पुष्टि-तत्व अम्ल और क्षार के योग-संयोग से बनता है, जो तरल और क्रिस्टल जैसा दिखता है. वहीं से रस-तंत्र की शुरुआत है. पुष्टि-तत्व का प्रचलित-नाम प्रोटीन है. रचना-तत्व का प्रचलित नाम हार्मोन है.

प्रश्न: प्राण-कोशाओं के बनने की क्या प्रक्रिया है?

हर जीव, हर मनुष्य के हड्डियों के पोल में प्राण-कोशिकाएं बनते रहते हैं. हड्डी के पोल में पुष्टि-तत्व, रचना-तत्व और अनुकूल ताप और दाब की परिस्थितियों में प्राण-कोशायें बन जाते हैं. पेड़-पौधों में उनके तने और छाल के बीच में ये बनते हैं.

प्रश्न: मनुष्य-शरीरों, जीव-शरीरों, और वनस्पतियों की प्राण-कोशिकाओं में क्या अंतर है?

प्राण-कोशिकाएं सभी एक ही प्रजाति के होते हैं. पेड़-पौधों से लेकर, जीव-शरीरों से चलकर मनुष्य-शरीर तक प्राण-कोशा ही हैं. किन्तु उनमें मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन रहता है. प्राण-कोशाओं की बनावट, लम्बाई-मोटाई और उनमें निहित रचना-विधि में गुणात्मक-परिवर्तन होता है. इस तरह प्राण-कोशायें एक प्रजाति की होते हुए उनका स्वरूप वनस्पति-संसार में एक है, जीव-संसार में दूसरा है, और मनुष्य-शरीर में तीसरा है. सभी मनुष्य-शरीरों की प्राण-कोशिकाएं एक ही प्रकार की हैं. मनुष्य-शरीर में भी सभी अंग-अवयवों (जैसे आँख और हाथ) में प्राण-कोशिकाएं एक ही प्रकार की हैं. स्थान के अनुसार वे काम करते रहते हैं.

प्रश्न: प्राण-कोशिकाएं जब मृत हो जाते हैं तब क्या होता है?

उनमें श्वसन-प्रश्वसन समाप्त हो जाता है. साथ ही उनका गीलापन समाप्त हो जाता है.

प्रश्न: प्राण-सूत्र कैसा दिखता है?

प्राण-सूत्रों की लम्बाई उनकी मोटाई से ज्यादा रहती है. छोटे-छोटे पेट के बल रेंगने वाले कीड़ों जैसे दीखते हैं.


प्रश्न: प्राण-सूत्रों में रचना-विधि किस स्वरूप में रहती है?

उसके आकार के बारे में यदि आप पूछ रहे हो – तो वह गड्ढा और फिर उभरा हुआ की श्रंखला के रूप में दिखती है. उभरे हुए और गड्ढे के चारों ओर एक वृत्त जैसा रहता है. रचना-विधि का अभिलेख वही है. प्राण-सूत्रों को यदि देखोगे तो वह आँखों में ऐसा दिखेगा. रचना-विधि बदलता है तो उसके अनुरूप में यह गड्ढा और उभार की संख्या भी बदलता है. किसी में ४, किसी में ८, किसी में १००... इसको मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन का लक्षण हम माने. मात्रात्मक परिवर्तन के अनुसार गुणात्मक परिवर्तन होने से पूरा जड़-संसार सज गया. इस तरह पदार्थ-अवस्था और प्राण-अवस्था दोनों पूरा हो गया.


- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Friday, January 21, 2011

कार्य-ऊर्जा

सत्ता में संपृक्त प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है, बल-संपन्न है, क्रियाशील है. मानव-प्रकृति सत्ता में संपृक्तता वश ज्ञान-संपन्न है. मानव-प्रकृति ज्ञान के अनुसार कार्य-व्यवहार करती है. जड़-प्रकृति साम्य-ऊर्जा के आधार पर क्रियाशील है. जड़-परमाणुओं में इस तरह क्रियाशील होने का क्या प्रयोजन निकला? परमाणुओं में संतुलन का प्रयोजन निकला. संतुलित रूप में क्रियाशीलता वश या कार्य करने से जड़-प्रकृति में कार्य-ऊर्जा पैदा होता है. यह जड़-प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है - ताप, ध्वनि, और विद्युत. कार्य-ऊर्जा का यह प्रकटन व्यवस्था के अर्थ में है. कार्य करने की योग्यता सभी प्रजातियों के परमाणुओं में साम्य है. कार्य-ऊर्जा की frequency हर प्रजाति की अलग-अलग है. हर जड़-परमाणु का ताप, ध्वनि, और विद्युत को प्रकट करने का frequency अलग-अलग है. यह उनमें होने वाली मात्रा के आधार पर है.

प्रश्न: परमाणु में ताप का क्या स्वरूप है?


परमाणु की क्रियाशीलता को रोक सकने वाला ऐसा शून्य-ताप नहीं है. परमाणु स्वयं में व्यवस्था में रहने के लिए जितने ताप की आवश्यकता है, उसको परमाणु स्वयं बनाए रखता है. परमाणु अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक ताप को अपनी क्रियाशीलता द्वारा उत्पन्न करता है. विकीर्नीय या अजीर्ण परमाणुओं में परिवेशीय अंशों की वर्तुलात्मक गति से उत्पन्न ताप का नाभिक पर स्वाभाविक रूप में अंतर्नियोजन होता रहता है. भूखे परमाणुओं में ताप का स्वाभाविक रूप में बहिर्नियोजन होता रहता है. यह आपको प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाते हैं. इस ओर विज्ञान गया ही नहीं है. सकल कुकर्म का आधार यही बना. अजीर्ण परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से होने वाले ताप के अंतर्नियोजन से विकीर्नीय प्रभाव बनता है. नाभिक पर आघात करने से परिवेशीय अंशों द्वारा ताप का अंतर्नियोजन निरस्त हो जाता है, ताप बहिर्गत हो जाता है.

प्रश्न: परमाणु में विद्युत कैसे तैयार होता है?

जैसे डायनमो में चुम्बकीय धाराओं के armature के घूर्णन गति द्वारा विखंडन पूर्वक विद्युत तैयार होता है – वैसे ही परमाणु में परिवेशीय अंशों के वर्तुलात्मक गति से उत्पन्न चुम्बकीय प्रभाव का मध्यांशों के घूर्णन से विखंडन पूर्वक विद्युत तैयार होता है. व्यापक में संपृक्त रहने के फल में यह सब होता है.

प्रश्न: जड़ प्रकृति में जो कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है, क्या मनुष्य उसको घटा-बढ़ा सकता है?

उसको घटना-बढ़ाना कुछ नहीं होता है, उपयोग करना होता है.

प्रश्न: एक पतीले में रखी दाल को हमने लकड़ी जला कर गर्म किया तो क्या इस प्रक्रिया में कार्य-ऊर्जा बढ़ी या वही रही?

कार्य-ऊर्जा बढ़ी नहीं. कार्य-ऊर्जा का हमने उपयोग किया. कुल वस्तु उतना ही रहा. परिवर्तन हुआ – लकड़ी राख बनी और दाल पक गयी. पर कुल कार्य-ऊर्जा वही रही.

प्रश्न: किसी धरती के विकसित होने में, उस पर क्रमशः अवस्थाओं के प्रगटन होने में क्या उसकी कार्य-ऊर्जा बढ़ती नहीं है?

धरती की कुल कार्य-ऊर्जा यथावत रहती है. कोई भी चीज न बढ़ती है, न घटती है. ह्रास-परम स्थिति में भी वस्तु उतना ही है. विकास-परम स्थिति में भी वस्तु उतना ही है. अस्तित्व में ऊर्जाएं यथावत रहते हैं, मात्राएं यथावत रहते हैं. परिवर्तन होता रहता है. परिवर्तन नहीं होता तो विकास होना ही नहीं था. परिवर्तन दो तरह का है – मात्रात्मक परिवर्तन और गुणात्मक परिवर्तन. इसमें मनुष्येत्तर प्रकृति में जो मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन हुआ है – वह व्यवस्था के अर्थ में हुआ है. मानव के प्रगटन में मात्रात्मक-परिवर्तन जो हुआ (शरीर-परंपरा के स्थापित होने में) – वह व्यवस्था के अर्थ में हुआ. पर गुणात्मक-परिवर्तन जो होना था, उसमें मानव पीछे है. यह बात तर्क-सम्मत है, व्यवहारिक है, और आवश्यक है.

प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति का मानव जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा को कैसे उपयोग करता है?

चैतन्य-प्रकृति में चेतना ही कार्य-ऊर्जा है. जड़-प्रकृति में प्रगट होने वाले कार्य-ऊर्जा को मनुष्य उपयोग करता है. अब मानव को इन्हें “आबाद होने” या व्यवस्था के अर्थ में उपयोग करना है. अभी तक सभी मानवों ने – चाहे ज्ञानी हों, अज्ञानी हों, विज्ञानी हों - जड़-प्रकृति को बर्बाद करते हुए उपयोग किया कि नहीं? जड़-प्रकृति में तीनो ऊर्जाओं (ध्वनि, ताप, और विद्युत) को प्रकट करना ही उनका प्रयोजन है. जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन है अगली स्थितियों (रसायन-संसार, वनस्पति-संसार, जीव-संसार, और आगे मानव-संसार) के लिए उपयोगी होना. मानव को इन ऊर्जाओं का उपयोग करना है, उपलब्धियां पाना है, उनके स्त्रोत को बनाए रखते हुए, तथा जिससे प्रदूषण न हो. तथा इन ऊर्जाओं का मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने में प्रयोग करना है.

“साम्य-ऊर्जा समस्त जड़-चैतन्य वस्तुओं को प्राप्त है.” आज प्रचलित-विज्ञान इस मुद्दे को पढ़ाने योग्य नहीं है. पहले कदम पर ही आज का विज्ञान गलत है – तो उसके आगे सही होने का रास्ता कहाँ है? मूल में ही हम भटके हैं तो सही होने की जगह कहाँ है? इस तरह चल कर गलतियों का मानव ने अंत-विहीन तरीके से अनुसंधान किया है. सहीपन के लिए कितने लोगों ने अपना सर लगाया?

कार्य-ऊर्जा की उपयोगिता को लेकर मानव ने जो भी काम किया वह साहसिक है. पर स्त्रोत को मिटा कर कार्य-ऊर्जा का उपयोग करना गलत हो गया, अपराधिक हो गया. जिसके फलस्वरूप ही प्रदूषण आना आदि हो गया. ऊर्जा तो मनुष्य को चाहिए. मानव ही अस्तित्व में सभी वस्तुओं के उपयोग और दुरूपयोग करने के अधिकार से संपन्न है. सदुपयोग पूर्वक विकास होता है. दुरूपयोग पूर्वक ह्रास होता है. अभी तक मानव में दुरूपयोग किया. सदुपयोग करने के लिए सद-बुद्धि चाहिए. मानव-चेतना से सद-बुद्धि की शुरुआत है.

सभी मनुष्य अपनी उपयोगिता प्रमाणित होने की इच्छा में ही जीना चाहते हैं. प्रयोजन पता नहीं होने पर परेशान होते ही हैं. उस परेशानी को दूर करने के लिए हम प्रस्ताव रखे हैं. जड़-प्रकृति साम्य-ऊर्जा में किस तरह संपृक्त है, और कार्य-ऊर्जा के रूप में किस प्रकार काम करता है, उसको स्पष्ट करने का कोशिश किया है. साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश क्रियाशीलता, क्रियाशीलता वश कार्य-ऊर्जा तैयार हुई. यह क्रियाशीलता संतुलन के अर्थ में है. मानव के अलावा शेष प्रकृति संतुलन के अर्थ में ही क्रियाशील है. मानव संतुलन और असंतुलन दोनों अर्थों में क्रियाशील दिखाई देता है. अस्तित्व में स्वयं असंतुलित रह कर असंतुलन फैलाने वाला मानव ही है. संतुलित रह कर नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य को प्रमाणित करने वाला भी केवल मानव ही है. मानव का संतुलित क्रियाकलाप मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना है. जो चाहते हैं, वही अपनाएं.

1. समझदारी से समाधान
2. श्रम से समृद्धि
3. अखंड-समाज से अभय
4. सार्वभौम-व्यवस्था से सह-अस्तित्व

इन चारों को प्रमाणित करने वाला केवल मानव है. इनको न जानवर प्रमाणित करेगा, न झाड करेगा, न मिट्टी-पत्थर करेगा.

-बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

विकल्प की प्रस्तुति


हमारे बुजुर्गों ने (आदर्शवाद/वेद-विचार) कहा था – अनुभव अनिर्वचनीय है और अव्यक्त है. जबकि यहाँ हमने कहा है – अनुभव ही सम्पूर्ण प्रमाण के साथ वचनीय है. अनुभव ही प्रत्यक्ष है. अनुभव ही व्यक्त है. दूसरा कुछ व्यक्त करने से संतुष्टि नहीं होती है. झूठ को व्यक्त करने से कौनसा संतुष्टि होती है? कहाँ संतुष्टि है? झूठ को व्यक्त करने से किसको संतुष्टि है? संतुष्टि-बिंदु को पकड़ेंगे या नहीं? संतुष्टि-बिंदु को पकड़ना मानव जाति के लिए झकमारी है!

अध्ययन से अनुभव, और अनुभव मूलक व्यवहार से तृप्ति मिलती है. तब अनुभव का प्रमाण हुआ. यह बोलने की, करने की, जीने की सही व्यवस्था हुआ कि नहीं?

वैदिक विचार में (यजुर्वेद में) मैं कुछ २००-३०० ऋचाओं को पहचानता हूँ, जिनके आधार पर इस प्रस्ताव की पूरी व्याख्या की जा सकती है. लेकिन उस मार्ग को मैंने त्याग दिया. यदि इस तरह व्याख्या करने जाते तो अभी तक जितनी व्याख्याएं वेद-विचार पर हो चुकी हैं, उनके सिलसिले में यह प्रस्ताव भी जुड जाता. विगत की नयी व्याख्या करके इस प्रस्ताव को स्थापित नहीं किया जा सकता. इस तरह “विकल्प” का आधार नहीं बनता है.

इस बात को प्रस्तुत करने में पहली चुनौती थी, भाषा को कैसे प्रयोग किया जाए? १ का मतलब यह, २ का मतलब यह – इस ढांचे खांचे में भी इस बात को प्रस्तुत किया जा सकता है. किन्तु ऐसा करने में भी कुछ भाषा का प्रयोग होता ही. इस आधार पर मैंने परिभाषा-विधि को अपनाया. हिंदी में तत्सम और तद्भव दो प्रकार की भाषा है. तत्सम भाषा का मैंने प्रयोग किया है. तत्सम भाषा में हमारे बुजुर्गों ने धातु के आधार पर ध्वनि दिया है. मैंने ध्वनि का परिभाषा कर दिया. हर मानव में कल्पनाशीलता सम्पदा रूप में पहचाना, उसके आधार पर तदाकार होता है पहचाना. उसके आधार पर अध्ययन का पूरा ढांचा-खांचा बना दिया, और अपनी बात को प्रस्तुत कर दिया. इस प्रस्तुति के तीन ही अवयव हैं – मेरा अनुभव, भाषा, और उसका परिभाषा. भाषा परंपरा की है, परिभाषा मेरी है.

जैसे ‘संस्कृति’ एक शब्द है. संस्कृति की परिभाषा दिया - पूर्णता के अर्थ में की गयी कृतियाँ संस्कृति हैं. पूर्णता को क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के रूप में पहचाना. “पूर्णता की परंपरा होगी या अपूर्णता की परंपरा होगी?” – यह घंटी बजाना शुरू किया. किसी भी धरती पर पूर्णता की ही परंपरा होगी, अपूर्णता की परंपरा नहीं होगी. अपूर्णता के साथ हम कुछ भी करेंगे तो वह अवैध ही होगा. अवैधता को हमारे बच्चे ही नकारेंगे. उसके प्रमाण में, हमारे ही अपने वेद-मूर्ति परिवार के बच्चे आज उस परंपरा को नहीं स्वीकारते और विदेश जा कर बस गए. मैं अपने ही गाँव में कुछ वर्ष पूर्व गया था. वहाँ युवा पीढ़ी है ही नहीं. इससे ज्यादा क्या बताएं?

मानव-चेतना को शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण किया जा सकता है। उसको लेकर हम अभी जहां तक किये हैं वह ठीक है या नहीं - उसको आप को देखना होगा, शोध करना होगा। हर बात के लिए शोध ही एक मात्र विधि है। आपको स्वयम जांचना ही पड़ेगा। आपको किसी भी बारे में अपना मंतव्य देना है तो आपको उसे समझना ही होगा। प्रचलित-परंपरा विधि से इस प्रस्ताव के बारे में मंतव्य प्रस्तुत करने का कोई तरीका ही नहीं है। इस प्रस्ताव से सहमत होना ही विगत-परंपरा से जुड़ता है। और कुछ भी नहीं जुड़ता। जैसे - आज के दंड-संहिता रुपी संविधान से यह प्रस्ताव जुड़ ही नहीं सकता। आज की लाभोंमादी, कामोमादी, भोगोंमादी शिक्षा से यह प्रस्ताव जुड़ ही नहीं सकता।

यह विगत की सोच का विकल्प है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Wednesday, January 19, 2011

मध्यस्थ-क्रिया


व्यवस्था का मूल स्वरूप परमाणु है. परमाणु में व्यवस्था का आधार है – मध्यस्थ क्रिया. परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया स्वयं को संतुलित बना कर रखने के स्वरूप में मिला. कैसे? परमाणु के नाभिक में जो अंश हैं, वे घूर्णन गति करते हैं और परिवेशीय परमाणु-अंश वर्तुलात्मक और घूर्णनात्मक दोनों गतियाँ करते हैं. वर्तुलात्मक गति करते हुए परिवेशीय अंशों का नाभिक के बहुत पास आ जाने या नाभिक से बहुत दूर चले जाने का सम्भावना बना रहता है. उसको सटीक अच्छी दूरी में बनाए रखने के लिए मध्यस्थ-क्रिया काम करता रहता है. यही मध्यस्थ-शक्ति है, मध्यस्थ-बल है. हर परमाणु में ऐसा है.

स्वयं में संतुलित रहने के फलन में परमाणु अपने सम्पूर्णता के साथ त्व सहित व्यवस्था में प्रवृत्त हो गया. उसके फलन में परमाणु रसायन-संसार के लिए पूरक हो गया. रसायन-संसार तो आप के सामने गवाही के रूप में प्रत्यक्ष रखा है. स्वयं-स्फूर्त विधि से सह-अस्तित्व जो प्रकट हुआ है, इसी विधि से हुआ है. जिसको मैं देखा हूँ.

सत्ता में संपृक्तता वश हर परमाणु क्रियाशील है. क्रियाशीलता स्थिति-गति स्वरूप में व्यक्त है. क्रिया दो प्रकार से है – स्थिति और गति. स्थिति-क्रिया को हम ‘बल’ नाम दिया. गति में जो कार्य होता है, उसको ‘शक्ति’ नाम दिया. गति को बारम्बार निरंतर दोहराता है परमाणु. अभी विज्ञानी स्थिति-क्रिया को पहचानते नहीं हैं. गति को ही कभी बल मानते हैं, कभी शक्ति मानते हैं. जबकि स्थिति में बल और गति में शक्ति होती है. परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को व्यक्त करता है.

मध्यस्थ-क्रिया (मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति) से परमाणु में क्या लाभ हुआ?

मध्यस्थ-क्रिया के फलस्वरूप परमाणु में स्वयं-स्फूर्त कार्य करना, त्व सहित व्यवस्था होना, तथा परमाणु की पूरकता-उपयोगिता सिद्ध हुई. यह निष्कर्ष आज धरती के ७०० करोड आदमियों के बीच नहीं है. मध्यस्थ-क्रिया के बल और शक्ति को अभी तक मनुष्य-जाति मानने की जगह में नहीं आया है. मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को हमें पहचानने की आवश्यकता है – स्वयं नियंत्रित रहने के लिए. एक परमाणु ने भी स्वयं नियंत्रित रहने के लिए मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति का प्रयोग किया है. नियंत्रित रहने से स्वयं की पूरकता और उपयोगिता सिद्ध होती है.

व्यापक-वस्तु पारगामी है – परमाणु-अंश में, परमाणु में, अणु में, अणु-रचित रचना में, जड़-प्रकृति में, चैतन्य प्रकृति में, मानव में – सब में पारगामी है. व्यापक पारगामी होने से वस्तु सत्ता में भीगा है. फलस्वरूप वस्तु में बल-सम्पन्नता है. यह बल-सम्पन्नता चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है. चुम्बकीय-बल सम्पन्नता का प्रमाण परमाणु प्रस्तुत किया. दो अंश मिल करके ही परमाणु का संज्ञा बनती है. अकेले परमाणु-अंश से परमाणु-संज्ञा बनता नहीं है. इस तरह दो अंश से लेकर अनेक अंशों तक परमाणु बने हैं. इनकी दो प्रजातियां हैं – भूखे परमाणु और अजीर्ण परमाणु. दोनों तरह के परमाणु अपनी सम्पूर्णता के साथ त्व-सहित व्यवस्था में होते हैं. अजीर्ण-परमाणु भी सम्पूर्णता के साथ संतुलित रहता है. अजीर्ण-परमाणु स्वयं से परमाणु-अंशों को बहिर्गत करने के लिए प्रवृत्त रहता है. अजीर्ण-परमाणु परमाणु-अंशों को बहिर्गत करते समय संतुलन पूर्वक ही बहिर्गत करता है. संतुलित रहे बिना कोई त्यागता नहीं है. यह बात मनुष्य में भी देखा जा सकता है. संतुलित रहे बिना मनुष्य त्यागता नहीं है. अनावश्यक वस्तु को त्यागना - तब भी संतुलित रहना, आवश्यक वस्तु को त्यागना – तब भी संतुलित रहना. इस तरह परमाणु-अंशों को स्वयं से बहिर्गत करने में कोई बाहरी दबाव नहीं रहता है. स्वयं-स्फूर्त विधि से ही करता है. बहिर्गत करते हुए परमाणु का खुशहाली में नर्तन कोई आवेश नहीं है.

जड़-प्रकृति में सम और विषम क्रियाओं को मनुष्य पहचाना है – जैसे कुछ बनना, कुछ बिगडना. यह मनुष्य के पकड़ में आया है। जड़-प्रकृति में त्व सहित व्यवस्था में होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया का फलन है. यही स्वभाव-गति है. अस्तित्व में मानव के प्रकटन तक व्यवस्था ही व्यवस्था है. मानव के प्रकटन के बाद व्यवस्था और अव्यवस्था की गणना है.

रचना के स्तर पर मध्यस्थ-क्रिया नहीं है. मध्यस्थ-क्रिया परमाणु के स्तर पर है, और उसके बाद (जागृत) मानव के साथ है.

परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता ही रहता है. मध्य में परमाणु-अंश की अवस्थिति के आधार पर उसका मध्यस्थीकरण क्रियाकलाप है. यही परमाणु-अंश यदि परिवेश में हों तो वह परिवेशीय अंश के अनुसार ही काम करता है. परिवेशीय अंश यदि मध्यांश के स्थान पर हों तो वह उसके अनुसार कार्य करता है. परमाणु में यदि एक से अधिक अंश मध्य में होते हैं तो वे सभी मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं. मध्य-स्थिति में होने से मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं, यही स्थान का बल है.

स्थान के अनुसार काम करने की बात प्रकटन-क्रम में प्राण-अवस्था तक आ गया. प्राण-अवस्था की रचना की मूल इकाई प्राण-कोशा है. प्राण-कोशा में निहित प्राण-सूत्रों में रचना विधि समाई है. जड़, तने, पत्ती, फूल, फल सभी में प्राण-कोशा हैं. रचना में जहां पर जो प्राण-कोशा है, वह उस स्थान के अनुसार काम करती है. स्थान के अनुसार काम करने की शुरुआत परमाणु से ही है. पदार्थ-अवस्था में परमाणु-अंशों और प्राण-अवस्था में प्राण-कोशों में अपने स्थान के अनुसार कार्य-रूप है. इस तरह क्रिया करने की बात जीव-अवस्था तक चला. जीव-अवस्था में शरीर के अनुसार जीवन काम करता है. जीव-अवस्था में शरीर के क्रियाकलाप का केन्द्र जीवन हुआ. उस ढंग से जीव-अवस्था की इकाइयां काम करती हैं.

पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, और जीव-अवस्था स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील हैं. कर्ता-पद में मानव ही है. सह-अस्तित्व सहज प्रकटन क्रम मानव तक पहुँचने पर यह बात होने लगी – “हम यह नहीं करेंगे, हम वह नहीं करेंगे. हम यह नहीं चाहेंगे, हम वह नहीं चाहेंगे.”. मानव ही अपने कर्ता होने को पहचानता है. मनुष्येत्तर-प्रकृति क्रिया होते हुए भी उसमें कर्ता पद का ज्ञान नहीं है. इनमें ‘करने’ का स्वीकृति है, पर अपने कर्ता होने का ज्ञान नहीं है.

मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? - यह उसको पता ही नहीं है. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? – उसको पहचानने के लिए हम अध्ययन शुरू किये हैं. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र ‘समझ’ है. अपनी समझ के आधार पर काम करने की बात मानव से ही शुरू हुआ. मानव में समझ दो स्वरूप में है – अविकसित-चेतना और विकसित-चेतना. अविकसित-चेतना में जीने से क्या होता है इस बात के बारे में हम स्पष्ट हो चुके हैं. क्या होना चाहिए? – इसके लिए हम इस प्रस्ताव का अध्ययन शुरू किये हैं.

मानव में ही ज्ञान होता है. मानव को इसलिए ज्ञान-अवस्था बताया. मानव ज्ञान के आधार पर प्रवर्तनशील है. ज्ञान के चार स्तर बताए – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना. इसमें से जीव-चेतना में जीना मानव के लिए अपराध है, अन्याय है. मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीना मानव के लिए विधि है, न्याय है. जिसमें जीना है, उसी में जी लो! मानव जीव-चेतना की समझ से सारे अपराध को अपना लिया. अब मानव-चेतना की समझ से न्याय को अपना सकते हैं. एक पन्ने पर विधि है, दुसरे पन्ने पर निषेध है – जैसे जीना है वैसे जी लो! यह ‘विधि’ और ‘निषेध’ केवल मानव के लिए ही है. बाकी सब विधि में ही है. विधि के अलावा दूसरा कुछ होता ही नहीं है. विधि के बिना एक तिनका भी नहीं बनता. विधि पूर्वक ही एक तिनका बनना तय हुआ, जल बनना तय हुआ, रसायन बनना तय हुआ, पेड़-पौधे बनना तय हुआ, जीव-जानवर बनना तय हुआ. अब मानव को तय करना है – उसे कैसे जीना है.

सभी मनुष्य नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक ही तृप्त होते हैं. इनको अभिव्यक्त करने से समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व होता है. इसका अनुभव सुख, शान्ति, संतोष, आनंद रूप में होता है. नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य अध्ययन की वस्तु हैं. हर मनुष्य में कल्पनाशीलता पूंजी के रूप में रखा है. कल्पनाशीलता वश हर मनुष्य में तदाकार होने की सम्भावना रखा हुआ है.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, January 18, 2011

अवधारणा और धारणा



अध्ययन पूर्वक अवधारणा, अवधारणा पूर्वक अनुभव, अनुभव-मूलक विधि से धारणा। यह क्रम है। धारणा होने पर अध्ययन पूरा होने का प्रमाण हुआ। यदि धारणा नहीं हुआ है तब तक अध्ययन करना ही होगा।

अध्ययन दो प्रकार का होता है - अनुसंधानात्मक अध्ययन और शोधात्मक अध्ययन। दो ही विधियाँ हैं, तीसरा कोई विधि नहीं है अध्ययन के लिए!

अभी तक पठन को अध्ययन मानते रहे। वैदिक युग में सुनना और सुनाने को विद्वता माना गया था। वेदों को सुनने-सुनाने वालों को वेद-मूर्ती कहते रहे। हमारी नज़र में वे विद्वान नहीं हुए। विज्ञान के अनुसार यंत्र से काम कराना विद्वता है। 'काम करना' नहीं - 'काम कराना'!... बिना किये कराना को विद्वता माना। इन दोनों तरीको से अध्ययन होता नहीं है।

कल्पनाशीलता तदाकार होने के फलस्वरूप बुद्धि में अवधारणा होती है। हर व्यक्ति के पास कल्पनाशीलता पूंजी के रूप में है। कल्पनाशीलता के आधार पर हम अनुमान करते हैं। अनुमान में पहले भास्-आभास होता है। चित्त में होने वाले अनुमान में तब तक परिवर्तन होता रहता है जब तक कल्पनाशीलता तदाकार न हो जाए। इसको परिपुष्ट या परिपक्व अनुमान कहा। सच्चाई क्या है - उसका एक अनुमान मजबूत हो गया। इसका नाम है प्रतीति। प्रतीति की पुष्टि तब है जब बुद्धि उसे स्वीकारे - 'यह सच्चाई है'। न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य दृष्टियों के तुलन से गुजर कर आयी बात है - यह सच है। इसको बुद्धि स्वीकारता है, अर्थात इसका बोध होता है। बुद्धि के इस प्रकार स्वीकारने से पहले अनुमान में बदलाव होता रहता है। बुद्धि ऐसी पवित्र स्थिति का इंतज़ार करती रहती है। इसके बाद जब बुद्धि में बोध हो जाता है, तो उसका नाम है - 'अवधारणा'। अवधारणा पूरी होने तक अध्ययन है।

अवधारणा अनुभव की पृष्ठ-भूमि है। बोध के आधार पर अनुभव होता है। बोध होने के उपरान्त अनुभव स्वाभाविक होता है - उसके लिए कोई पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है। अनुभव के आधार पर प्रमाण होता है। प्रमाण के आधार पर पुनः बुद्धि में प्रमाण-बोध होता है। प्रमाण-बोध जो बुद्धि में आता है तो 'धारणा' हो गयी। अवधारणा और धारणा के बीच हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है। वह अपने आप से होता है। यह धारणा ही सुख का स्त्रोत है। मानव सुख-धर्मी है। सुख का ही धारणा होता है, और किसी बात का धारणा होता नहीं है। धारणा के बाद प्रमाण है। धारणा है - सुख के लिए यही रास्ता है, यह स्वयं में सुनिश्चित होना। यह बुद्धि में ही होता है। बुद्धि में ही धारणा होता है। धारणा की परिभाषा दिया - जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसकी धारणा है। धारणा ही धर्म है।

प्रमाण-बोध जब चित्त में आता है तो उसका नाम है - समाधान, अर्थात कैसे हम सच्चाई को प्रमाणित करेंगे, लोकव्यापीकरण करेंगे। इसका चित्रण होता है। ऐसे चित्रण का फिर तुलन होता है। अध्ययन पूर्वक पता चलता है - न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन होता है। अनुभव पूर्वक वृत्ति में तुलन होता है - प्रिय-हित-लाभ का न्याय-धर्म-सत्य में विलय हुआ या नहीं हुआ? यदि विलय हुआ तो प्रमाण सहज तुलन होता है - जिसका नाम है, "दृढ़ता"। इस तरह हम विचार विधि से दृढ हो गए। विचार-विधि से दृढ होने पर उसके अनुसार विश्लेषण तैयार हो जाता है। समाधान का जब विचार पूर्वक विश्लेषण होता है, तो वह जीने में प्रमाणित होता है, जिससे हम सफल हो जाते हैं। इतना ही बात है।

अर्थ में मन तदाकार होता है तब अध्ययन हुआ। तदाकार होने के बाद अनुभव में तद्रूप होते हैं। अनुभव होने पर प्रमाण हुआ। प्रमाण का बोध होने पर धारणा हुआ। धारणा होने के बाद परंपरा में प्रमाण होगा। इसमें तर्क-विधि से कोई कमी हो तो बताना। व्यवहार-विधि से कोई कमी हो तो बताना। संतुष्ट होने में कोई कमी हो तो बताना। धारणा का मतलब यही है। व्यवहार विधि से प्रमाणित होना। विचार विधि से प्रमाण को स्वीकारना। और अनुभव-मूलक विधि से प्रमाण को प्रस्तुत करना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Monday, January 10, 2011

आदर्शवाद का विकल्प


भविष्य में जब मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद की परंपरा स्थापित होती है, तो क्या वैदिक-विचार बना रहेगा या विलय हो जाएगा?

वैदिक-विचार में की गयी शुभ-कामना स्वीकार होगा। शुभ-कामना के अनुरूप जो शिक्षा मिलनी चाहिए, वह मिलेगा। इसमें किसको क्या तकलीफ है? शुभ को प्रमाणित करने का स्वरूप मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद दिया है। यह किसी का विरोध नहीं है। विरोध करके हम आगे चल नहीं पायेंगे। मैंने किसी विरोधाभास को अपनाया नहीं है। यदि मेरी प्रस्तुति में कोई विरोधाभास है तो आप बताइये - मैं उसको ठीक कर दूंगा।

आदर्शवाद से हमे भाषा मिला। वे भी इसको "श्रुति" ही कहे हैं। भौतिकवाद से दूर-संचार मिला। ये दोनों (भाषा और दूर-संचार) मानव-जाति के लिए देन हैं - सटीक जीने के लिए। इनको परंपरा में बनाए रखने की आवश्यकता है।

भाषा जो हमे आदर्शवाद से मिला वह 'धातु' के आधार पर ध्वनित था। यहाँ मैंने ध्वनि के आधार पर परिभाषा दे दिया। इसकी आवश्यकता है या नहीं? - इसको आप विद्वान लोग सोचें!

आदर्शवाद से जो हमको प्रेरणा मिला, और भौतिकवाद से जो हमको प्रेरणा मिला - उसका विकल्प है यह! यह प्रस्ताव आदर्शवाद और भौतिकवाद के लक्ष्य से सम्बद्ध नहीं है। आदर्शवाद (रहस्यात्मक अध्यात्मवाद) में 'अस्तित्व-विहीन मोक्ष' के लक्ष्य की बात की गयी है। उससे मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव सम्बद्ध नहीं है। यहाँ 'अस्तित्व-पूर्ण मोक्ष' की बात है। क्या लक्ष्य चाहिए - आप ही सोच लो! हमको उससे कोई परेशानी नहीं है। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' चाहिए तो रहस्यात्मक अध्यात्मवाद के पास जाओ। आदर्शवाद रहस्य-मूलक होने से 'अस्तित्व-पूर्ण मोक्ष' को बता नहीं पाया। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' से मनुष्य संतुष्ट हो नहीं सकता। रहस्य विधि से अध्ययन हो नहीं सकता। रहस्य-विधि से हम शुभ-कामना ही व्यक्त कर सकते हैं। वही आदर्शवाद किया। रहस्य-विधि से हम प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते। शुभ-कामना व्यक्त करने मात्र से प्रमाण कहाँ हुआ?

आदर्शवाद में ज्ञान को सर्वोच्च बताया। ज्ञान क्या है? पूछा तो बताया - ब्रह्म ही ज्ञान है। ब्रह्म क्या है? -पूछा तो बताया - दृष्टा, दृश्य, दर्शन ये तीनो ब्रह्म ही हैं। कार्य, कारण, कर्ता - ये तीनो ब्रह्म ही हैं। यदि केवल ब्रह्म ही है - तो आप-हम क्यों बने हैं? किस प्रयोजन के लिए आपका नाम अलग है, मेरा नाम अलग है - सबका नाम 'ब्रह्म' ही क्यों नहीं हुआ? रहस्य से हम पार नहीं पाए। आप पार पाते हों, तो बताते रहना। आप रहस्य से पार नहीं पाओगे - यह मैं क्यों कहूं? इसीलिये अपनी बात को विकल्प रूप में प्रस्तुत किया।

प्रमाण को प्रस्तुत करने के लिए विकल्प दिया। इस विकल्प से किस ज्ञानी, किस विज्ञानी, किस अज्ञानी को तकलीफ है? प्रमाण चाहिए तो अध्ययन करके देखो! अध्ययन पूर्वक प्रमाण होता है तो आप उसको अपनाओगे, नहीं तो आप उसको अपनाओगे नहीं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

Saturday, January 8, 2011

संस्कार और प्रारब्ध


संस्कार क्या है? मानव जाति में अभी संस्कार का क्या स्वरूप है?

मानव जाति में अभी तक संस्कार बना ही नहीं है. संस्कार अभी भाषा रूप में है. विकसित-चेतना – अर्थात मानवचेतना, देवचेतना, दिव्यचेतना यदि जीने में आता है तो उसका नाम है – ‘संस्कार’. मानवचेतना प्रमाणित होने से पहले संस्कार नहीं होता. संस्कार का सिद्धांत है – “चारों अवस्थाएं अपने त्व सहित व्यवस्था में हैं, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती हैं.” अभी मानव जाति समझदारी के रास्ते में ही है, समझदारी को पाए नहीं हैं. समझदारी चाहते हैं, पर समझदार हुए नहीं हैं.

मानव जाति में अभी तक संस्कार के न होने का कारण क्या है?

उसका कारण है – मानव परंपरा में अभी तक जो कुछ भी है, वह जीवचेतना है. जीवचेतना विधि से ही कुछ बातों को “अच्छा” और कुछ बातों को “बुरा” मान लिए हैं. मानव “अच्छा बोलना” सीख गया है – यह अवश्य है. “अच्छा बोलने” को संस्कार नहीं कह सकते हैं. संस्कार “अच्छा जीने” का ही स्वरूप है. यदि “अच्छा जीने” को संस्कार माने तो कहना पड़ता है, मानव जाति में अभी तक संस्कार हुआ नहीं.

“अच्छा” है क्या?

अच्छेपन या श्रेष्ठता का शोध किया तो पता चला – जीवचेतना से मानवचेतना श्रेष्ठ है. मानवचेतना से देवचेतना श्रेष्ठतर है. देवचेतना से दिव्यचेतना श्रेष्ठतम है. मानवचेतना के आने से संस्कार हुआ.

आपने बताया है – “जीव-चेतना से मानवचेतना में विकास के लिए वातावरण, संस्कार, और अध्ययन आवश्यक है.” इसमें “संस्कार” से क्या आशय है?

यहाँ संस्कार से आशय “पूर्व-संस्कार” से नहीं है. संस्कार मानव में हुआ ही नहीं है अभी तक! अभी मानव जाति में संस्कार नहीं है, “संस्कार की अपेक्षा” है. “अच्छाई की अपेक्षा” है – पर अच्छाई को समझे नहीं हैं.

इतिहास में अभी तक कोई मानव-चेतना में जिया कि नहीं जिया?

अभी तक तो मानवचेतना पूर्वक जीने का कोई प्रमाण नहीं है. जीने का प्रमाण आचरण में होता है, शिक्षा में होता है, व्यवस्था में होता है, संविधान में होता है. इन चारों जगह पर संस्कार का जिक्र नहीं है. मानव में संस्कार की अपेक्षा है, इसीलिये मानव-चेतना पूर्वक जीने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. मानवचेतना पूर्वक मानव व्यवस्था में जी सकता है. जीवचेतना पूर्वक मानव व्यवस्था में जी नहीं सकता.

अभी कुछ विरले लोगों को मानव-चेतना का ज्ञान हो सकता है. मानवचेतना का वातावरण ऐसे विरले लोगों से बनेगा. विरले लोग, अर्थात थोड़े से लोग, जो इस प्रस्ताव को स्वीकार रहे हैं.

लोगों में अंतर क्यों है? सभी समान रूप से आगे क्यों नहीं बढ़ पाते हैं?

क्योंकि जीवचेतना को वे छोड़ नहीं पाते हैं. जो आगे बढ़ पाते हैं, उनमें संस्कार के लिए शोध की प्रवृत्ति है. अच्छाई को शोध पूर्वक समझना, अपनाना, और प्रमाणित करना.

मानवचेतना मानव के “व्यवस्था में जीने” के रूप में है. नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य को समझना और समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को जीने में प्रमाणित करना. ऐसे जीना = आचरण. आचरण ही नियम है. आचरण की निरंतरता ही संस्कार है. आचरण में निरंतरता होना ही संस्कार का प्रमाण है. मानव में संस्कार पूर्वक जीवन और शरीर का संतुलन होना बन जाता है. यदि इसका परंपरा बनता है तो चारों अवस्थाओं के साथ संतुलन पूर्वक जीना बनता है. “त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी” की जो प्रमाण परंपरा बनती है, उसका नाम है “संस्कार”.

हर व्यक्ति समझदार हो सकता है, व्यवस्था में जी सकता है, दूसरों को समझा कर स्वयं को प्रमाणित कर सकता है – इस बात को लेकर हम चल रहे हैं।

संस्कार और प्रारब्ध में क्या भेद है?

संस्कार यदि समझ आता है तो प्रारब्ध भी समझ आता है. संस्कार जीवन से सम्बंधित है, प्रारब्ध भौतिक-रासायनिक वस्तुओं से सम्बंधित है. जो जितना जानता है, उतना चाहता नहीं है. जितना चाहता है, उतना करता नहीं है. जितना करता है, उतना भोगता नहीं है. जो बच जाता है, वही प्रारब्ध है.

संस्कार पूर्वक मानव के पास भोगने के बाद जो बचता है, उस प्रारब्ध को सहज रूप में संसार स्वीकारता है. मानव-चेतना विधि से प्रारब्ध बंट पाता है, और संस्कार बना रहता है. जीवचेतना विधि से प्रारब्ध बंट नहीं पाता और संस्कार बनता नहीं है.

यहाँ अमरकंटक आने से पहले आपका क्या प्रारब्ध था?

यहाँ आने से पहले, ३० वर्ष तक मैंने अपने प्रारब्ध को जिज्ञासा के रूप में देखा. परंपरा में उस जिज्ञासा का उत्तर न होने से उसके लिए मैं जूझता रहा. पांच वर्ष की आयु में मुझे बड़े-बुजुर्ग दीर्घ-दंड प्रणाम करते रहे. यह देखने पर मुझमें विचार हुआ, मैंने इनको ऐसा क्या दे दिया? ये लोग क्यों मुझे ऐसे प्रणाम करते हैं? मेरे साथ गाँव में मेरे जैसे और बच्चों में ऐसा विचार नहीं आया. यह मेरे प्रारब्ध का ही प्रभाव रहा. इस विचार के चलते राजनीतिक, धर्म-नीतिक, अर्थ-नीतिक विधाओं में मेरे द्वारा गलतियों का आंकलन होने लगा. यह सब मेरे प्रारब्ध वश ही हुआ. मेरे प्रारब्ध में तर्क करने का प्रवृत्ति था. तर्क की ताकत से ही व्यर्थता को नकारना बना. तर्क की ताकत और शुभ की अपेक्षा इन दोनों को लेकर मैं चला. जिज्ञासा वश तर्क और शुभ की अपेक्षा रही. सारा जिज्ञासा विचार में है और इच्छा तक पहुँचता है. हमारे जीवन में जो प्रश्न बने रहते हैं, उनके उत्तर को समझने के लिए जब हम निष्ठान्वित हो जाते हैं, तो जिज्ञासा हुआ. ३० वर्ष के बाद परंपरा के अनुसार समाधि में ज्ञान होने का आश्वासन मिला. उसके लिए मैं तुल गया. इस तरह तुलने पर अभी यहाँ तक पहुंचे हैं.

मानवचेतना में प्रारब्ध का क्या स्वरूप है? अभी आप का क्या प्रारब्ध है?

इस आयु में मैं शरीर के द्वारा काफी कम कर्म करता हूँ. वचन और मन द्वारा अधिक कर्म करता हूँ. कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित – कुल ९ प्रकार से कर्म करने की बात है. अभी मैं अधिकाँश मन प्रधान विधि से वचन से कर्म करता हूँ. जो मैं शरीर द्वारा कर्म करता था – जैसे कृषि, गोपालन, चिकित्सा – वह मेरी संतानों के बीच आवंटित हो गया. इस तरह जो मेरा प्रारब्ध है, वह आवंटित हुआ. प्रमाण-विधि से आयु के अनुसार मेरा कार्यक्रम तय हो गया. कृषि-कार्य को ८० के दशक में मैंने बच्चों पर छोड़ दिया. २००० के दशक से चिकित्सा को भी बच्चों पर छोड़ दिया. इनको करने का ज्ञान मुझमें बना ही हुआ है. जैसे – नाड़ी देखने के ज्ञान का मैं अभी भी प्रयोग करता हूँ.

जीवचेतना में प्रारब्ध का क्या स्वरूप है?

जीवचेतना में शुभ को चाहते भर हैं, लेकिन शुभ को कर पाना, शुभ को भोग पाना, और शुभ को आवंटित कर पाना नहीं है. इस तरह जीवचेतना में शुभ चाहत में ही रह गया, प्रमाणित नहीं हो पाया. बल्कि जीवचेतना में मनुष्य के साथ और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ कर्म किया – वह अपराध में गण्य हो गया. ऐसा जो प्रारब्ध हुआ, वह आवंटित नहीं होता. जीवचेतना विधि से प्रारब्ध बंट नहीं पाता.

जीवचेतना की सीमा में पिछली शरीर यात्रा में जो कुछ किया, उसका अवशेष जीवन में प्रवृत्ति के रूप में रहता है – जो अगली शरीर यात्रा के लिए प्रारब्ध होता है. पिछली शरीर-यात्रा में अपने जीवचेतना के कार्यकलापों के फल-परिणाम के पराभव वश जो भोगा नहीं रहता है, उसको भोगने की अपेक्षा प्रारब्ध स्वरूप में रहता है।

एक शरीर यात्रा से दूसरी शरीर यात्रा तक प्रारब्ध बना रहता है। स्वीकृति रूप में "विधि", स्मृति रूप में "निषेध" होता है। अनुभव के बिना बुद्धि में स्वीकृति होता नहीं है। अनुभव के आधार पर ही स्वीकृतियां होते हैं।

एक मनुष्य जो जीवचेतना में एक शरीर-यात्रा किया, उसके पास अगली शरीर यात्रा में क्या कोई स्वीकृतियां होती हैं?

नहीं। जैसे वह पहले जिया होता है, उसके आगे वह नयी शरीर यात्रा में शुरू करता है। सुखी होने की अपेक्षा में हम जितने भी प्रकार से जिए, उसमें जब सुखी नहीं हुए, तो कोई और तरीका होगा जिसमें सुखी होने का रास्ता होगा। इसका नाम है - शोध। यह शोध कब तक चलेगा? - जब तक सुखी नहीं हो जाते! परंपरा में जब तक सुखी नहीं होते, तब तक यह रहेगा। इसमें किस ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी को तकलीफ है?

मानव अपने जीवचेतना के प्रारब्ध से कैसे मुक्त हो सकता है?

जब कभी भी मानव जागृति की ओर शुरू करता है, कदम बढाता है – उसी समय यह श्राप, ताप, पाप रुपी प्रारब्ध समाप्त हो जाता है. ‘श्राप’ है – हम जो स्वयं नहीं चाहते हैं, फिर भी उसे करते हैं. जीव-चेतना में मनुष्य जो स्वयं नहीं चाहता है, फिर भी करता है – इसे ‘श्राप’ नाम न दिया जाए, तो और क्या नाम दिया जाए? ‘ताप’ है – जो दूसरों की अपेक्षा के विरुद्ध है, वैसा हम जियें. ‘पाप’ है – अमानवीय कर्म जो हम कर चुके हैं, जिनका प्रभाव हम पर है. मानवचेतना की ओर शुरुआत करने से ये तीनो चीज समाप्त हो जाते हैं. ये तीनो शुभ के लिए सहायक नहीं हैं, इसलिए ये उड़ जाते हैं.

मानवचेतना की ओर शुरुआत करना अर्थात मानवचेतना को समाधान-समृद्धि पूर्वक जी कर प्रमाणित करना. यदि मानवचेतना को आप जी कर प्रमाणित नहीं करते, तो मानवचेतना को आप सुने भी हैं – ऐसा कैसे कहा जाए? सुनने के बाद ही मानव अभ्यास की शुरुआत करता है, इस दिशा में कदम बढाता है. कदम जैसे ही बढाता है – वैसे ही श्राप, ताप, पाप तीनो समाप्त हो जाता है.

अध्ययन करने से क्या व्यर्थता है, और क्या सार्थकता है – यह समझ में आता है. व्यर्थता क्या है – यह समझ में आने पर प्रारब्ध का प्रभाव उड़ना शुरू कर देता है. अध्ययन हुआ, उसका मापदंड यही है. अध्ययन-क्रम में ऊट-पटांग बातें जो मन में आती हैं, उनकी समीक्षा होती जाती है. यह क्रम एक स्थिति में पहुँचता है, जब ऊट-पटांग बातें आना शून्य हो जाता है. साथ ही साथ समझदारी विकसित होता जाता है. समझदारी विकसित होने पर, प्रमाणित होने की श्रंखला बनने पर, ये ऊट-पटांग बातें कहाँ आती हैं? कहीं भी आप इसको आजमा सकते हैं. यह सूत्र १००% सफल है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)