हमारे बुजुर्गों ने (आदर्शवाद/वेद-विचार) कहा था – अनुभव अनिर्वचनीय है और अव्यक्त है. जबकि यहाँ हमने कहा है – अनुभव ही सम्पूर्ण प्रमाण के साथ वचनीय है. अनुभव ही प्रत्यक्ष है. अनुभव ही व्यक्त है. दूसरा कुछ व्यक्त करने से संतुष्टि नहीं होती है. झूठ को व्यक्त करने से कौनसा संतुष्टि होती है? कहाँ संतुष्टि है? झूठ को व्यक्त करने से किसको संतुष्टि है? संतुष्टि-बिंदु को पकड़ेंगे या नहीं? संतुष्टि-बिंदु को पकड़ना मानव जाति के लिए झकमारी है!
अध्ययन से अनुभव, और अनुभव मूलक व्यवहार से तृप्ति मिलती है. तब अनुभव का प्रमाण हुआ. यह बोलने की, करने की, जीने की सही व्यवस्था हुआ कि नहीं?
वैदिक विचार में (यजुर्वेद में) मैं कुछ २००-३०० ऋचाओं को पहचानता हूँ, जिनके आधार पर इस प्रस्ताव की पूरी व्याख्या की जा सकती है. लेकिन उस मार्ग को मैंने त्याग दिया. यदि इस तरह व्याख्या करने जाते तो अभी तक जितनी व्याख्याएं वेद-विचार पर हो चुकी हैं, उनके सिलसिले में यह प्रस्ताव भी जुड जाता. विगत की नयी व्याख्या करके इस प्रस्ताव को स्थापित नहीं किया जा सकता. इस तरह “विकल्प” का आधार नहीं बनता है.
इस बात को प्रस्तुत करने में पहली चुनौती थी, भाषा को कैसे प्रयोग किया जाए? १ का मतलब यह, २ का मतलब यह – इस ढांचे खांचे में भी इस बात को प्रस्तुत किया जा सकता है. किन्तु ऐसा करने में भी कुछ भाषा का प्रयोग होता ही. इस आधार पर मैंने परिभाषा-विधि को अपनाया. हिंदी में तत्सम और तद्भव दो प्रकार की भाषा है. तत्सम भाषा का मैंने प्रयोग किया है. तत्सम भाषा में हमारे बुजुर्गों ने धातु के आधार पर ध्वनि दिया है. मैंने ध्वनि का परिभाषा कर दिया. हर मानव में कल्पनाशीलता सम्पदा रूप में पहचाना, उसके आधार पर तदाकार होता है पहचाना. उसके आधार पर अध्ययन का पूरा ढांचा-खांचा बना दिया, और अपनी बात को प्रस्तुत कर दिया. इस प्रस्तुति के तीन ही अवयव हैं – मेरा अनुभव, भाषा, और उसका परिभाषा. भाषा परंपरा की है, परिभाषा मेरी है.
जैसे ‘संस्कृति’ एक शब्द है. संस्कृति की परिभाषा दिया - पूर्णता के अर्थ में की गयी कृतियाँ संस्कृति हैं. पूर्णता को क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के रूप में पहचाना. “पूर्णता की परंपरा होगी या अपूर्णता की परंपरा होगी?” – यह घंटी बजाना शुरू किया. किसी भी धरती पर पूर्णता की ही परंपरा होगी, अपूर्णता की परंपरा नहीं होगी. अपूर्णता के साथ हम कुछ भी करेंगे तो वह अवैध ही होगा. अवैधता को हमारे बच्चे ही नकारेंगे. उसके प्रमाण में, हमारे ही अपने वेद-मूर्ति परिवार के बच्चे आज उस परंपरा को नहीं स्वीकारते और विदेश जा कर बस गए. मैं अपने ही गाँव में कुछ वर्ष पूर्व गया था. वहाँ युवा पीढ़ी है ही नहीं. इससे ज्यादा क्या बताएं?
अध्ययन से अनुभव, और अनुभव मूलक व्यवहार से तृप्ति मिलती है. तब अनुभव का प्रमाण हुआ. यह बोलने की, करने की, जीने की सही व्यवस्था हुआ कि नहीं?
वैदिक विचार में (यजुर्वेद में) मैं कुछ २००-३०० ऋचाओं को पहचानता हूँ, जिनके आधार पर इस प्रस्ताव की पूरी व्याख्या की जा सकती है. लेकिन उस मार्ग को मैंने त्याग दिया. यदि इस तरह व्याख्या करने जाते तो अभी तक जितनी व्याख्याएं वेद-विचार पर हो चुकी हैं, उनके सिलसिले में यह प्रस्ताव भी जुड जाता. विगत की नयी व्याख्या करके इस प्रस्ताव को स्थापित नहीं किया जा सकता. इस तरह “विकल्प” का आधार नहीं बनता है.
इस बात को प्रस्तुत करने में पहली चुनौती थी, भाषा को कैसे प्रयोग किया जाए? १ का मतलब यह, २ का मतलब यह – इस ढांचे खांचे में भी इस बात को प्रस्तुत किया जा सकता है. किन्तु ऐसा करने में भी कुछ भाषा का प्रयोग होता ही. इस आधार पर मैंने परिभाषा-विधि को अपनाया. हिंदी में तत्सम और तद्भव दो प्रकार की भाषा है. तत्सम भाषा का मैंने प्रयोग किया है. तत्सम भाषा में हमारे बुजुर्गों ने धातु के आधार पर ध्वनि दिया है. मैंने ध्वनि का परिभाषा कर दिया. हर मानव में कल्पनाशीलता सम्पदा रूप में पहचाना, उसके आधार पर तदाकार होता है पहचाना. उसके आधार पर अध्ययन का पूरा ढांचा-खांचा बना दिया, और अपनी बात को प्रस्तुत कर दिया. इस प्रस्तुति के तीन ही अवयव हैं – मेरा अनुभव, भाषा, और उसका परिभाषा. भाषा परंपरा की है, परिभाषा मेरी है.
जैसे ‘संस्कृति’ एक शब्द है. संस्कृति की परिभाषा दिया - पूर्णता के अर्थ में की गयी कृतियाँ संस्कृति हैं. पूर्णता को क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के रूप में पहचाना. “पूर्णता की परंपरा होगी या अपूर्णता की परंपरा होगी?” – यह घंटी बजाना शुरू किया. किसी भी धरती पर पूर्णता की ही परंपरा होगी, अपूर्णता की परंपरा नहीं होगी. अपूर्णता के साथ हम कुछ भी करेंगे तो वह अवैध ही होगा. अवैधता को हमारे बच्चे ही नकारेंगे. उसके प्रमाण में, हमारे ही अपने वेद-मूर्ति परिवार के बच्चे आज उस परंपरा को नहीं स्वीकारते और विदेश जा कर बस गए. मैं अपने ही गाँव में कुछ वर्ष पूर्व गया था. वहाँ युवा पीढ़ी है ही नहीं. इससे ज्यादा क्या बताएं?
मानव-चेतना को शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण किया जा सकता है। उसको लेकर हम अभी जहां तक किये हैं वह ठीक है या नहीं - उसको आप को देखना होगा, शोध करना होगा। हर बात के लिए शोध ही एक मात्र विधि है। आपको स्वयम जांचना ही पड़ेगा। आपको किसी भी बारे में अपना मंतव्य देना है तो आपको उसे समझना ही होगा। प्रचलित-परंपरा विधि से इस प्रस्ताव के बारे में मंतव्य प्रस्तुत करने का कोई तरीका ही नहीं है। इस प्रस्ताव से सहमत होना ही विगत-परंपरा से जुड़ता है। और कुछ भी नहीं जुड़ता। जैसे - आज के दंड-संहिता रुपी संविधान से यह प्रस्ताव जुड़ ही नहीं सकता। आज की लाभोंमादी, कामोमादी, भोगोंमादी शिक्षा से यह प्रस्ताव जुड़ ही नहीं सकता।
यह विगत की सोच का विकल्प है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)
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