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Thursday, January 27, 2011

जीवन का अध्ययन

हर व्यक्ति के साथ जीवन शरीर को जीवंत बनाने के रूप में है। शरीर को जीवंत बनाए बिना जीवन अपने को शरीर द्वारा व्यक्त नहीं कर पाता है। जब तक जीवन शरीर को जीवंत बनाता है, प्राण-कोशायें जिन्दा रहते हैं, शरीर पुष्ट रहता है। जीवन शरीर को छोड़ देता है तो प्राण-कोशायें मर जाते हैं। शरीर के लिए आहार का निश्चयन जीवन ही करता है। जीवों में वंश के अनुसार जीवन आहार का निर्धारण (शाकाहार या मांसाहार) करता है। जीवों में आहार की पहचान 'गंध' के आधार पर होता है। मानव आहार को 'रूचि' के आधार पर पहचानता है। दोनों में फर्क यह है।

जीवन 'ताकत' रूप में है। शरीर 'काम करने' के रूप में है। जीवन की ताकत है - ज्ञान। ज्ञान की ताकत से प्रमाणित होना मानव-परंपरा में जीवन और शरीर के संयोग से ही होता है।

अणु-बंधन और भार-बंधन से मुक्त होने के बाद गठन-पूर्ण होकर जीवन पहले आशा-बंधन के अनुरूप शरीर चलाने को तैयार होता है। उसके बाद विचार-बंधन और इच्छा-बंधन के अनुरूप शरीर चलाने को तैयार होता है। इन बन्धनों से परेशान हो कर फिर बंधन-मुक्ति के लिए प्रयासरत होता है। बंधन-मुक्ति = भ्रम-मुक्ति। भ्रम = अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोष। इन दोषों से मुक्त होना ही भ्रम-मुक्ति है।

प्रश्न: जीवन का 'रूप' क्या है?

जीवन का रूप गठन-पूर्ण परमाणु है। यह अध्ययन पूर्वक स्पष्ट होता है। प्रयोग विधि से जीवन का रूप हम नहीं समझ सकते।

प्रश्न: जीवन अपने 'गुणों' को कैसे प्रदर्शित करता है?

उद्भव, विभव, और प्रलय कार्यों में अपनी शक्तियों (चयन, तुलन, चित्रण) का प्रयोग करने के स्वरूप में। व्यवहार द्वारा ही जीवन के गुणों को पहचाना जाता है।

प्रश्न: जीवन के 'स्वभाव' का कैसे पता चलता है?

व्यवहार पूर्वक। धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा जागृत-जीवन का स्वभाव है।

प्रश्न: जीवन का 'धर्म' क्या है?

सुख। इसके प्रमाण में हर मनुष्य सुखी होना चाहता है। मनुष्य के साथ व्यवहार में ही सुखी रहने या दुखी रहने का पता चलता है।

सुखी होने की स्थली शरीर में कहीं नहीं है। ४ विषयों में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। ५ संवेदनाओं में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। ३ ईश्नाओं में कोई निरंतर सुखी हो जाए - ऐसा होता नहीं। इसीलिये इनका त्याग होता है। अनावश्यकता का विसर्जन = त्याग। उपकार विधि से सदा सुखी होने की बात होती है। उपकार = समझदारी पूर्वक स्वयं सुखी रहना, और अन्य को समझदार बनाना। उपकार गुरु-मूल्य है। ३ ईश्नायें, ५ संवेदनाएं, और ४ विषय लघु-मूल्य हैं। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाहित होता है। ३ ईश्नाओं में जीना गुरु-मूल्य है -५ संवेदनाओं में जीने से। ५ संवेदनाओं में जीना गुरु-मूल्य है - ४ विषयों में जीने से।

जीवन में संतुलन की चाह बनी है, पर करते समय असंतुलन का काम करता है। यही आत्म-वंचना है। संतुलित रहना चाहते हैं, शुभ चाहते हैं - पर करते समय उसका विपरीत कर देते हैं।

जीवन में सच्चाई की प्यास है। जीवन में सच्चाई की प्यास आत्मा में सबसे प्रबल है। उसके बाद बुद्धि में। उसके बाद बाकी तीनो भागों में। जीवन में सच्चाई की प्यास होने से ही भ्रमित-मनुष्य को भी न्याय-धर्म-सत्य का भास्-आभास होता है। इसीलिये फिर प्रतीति और अनुभूति के लिए प्रयास होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

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