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Saturday, January 8, 2011

संस्कार और प्रारब्ध


संस्कार क्या है? मानव जाति में अभी संस्कार का क्या स्वरूप है?

मानव जाति में अभी तक संस्कार बना ही नहीं है. संस्कार अभी भाषा रूप में है. विकसित-चेतना – अर्थात मानवचेतना, देवचेतना, दिव्यचेतना यदि जीने में आता है तो उसका नाम है – ‘संस्कार’. मानवचेतना प्रमाणित होने से पहले संस्कार नहीं होता. संस्कार का सिद्धांत है – “चारों अवस्थाएं अपने त्व सहित व्यवस्था में हैं, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती हैं.” अभी मानव जाति समझदारी के रास्ते में ही है, समझदारी को पाए नहीं हैं. समझदारी चाहते हैं, पर समझदार हुए नहीं हैं.

मानव जाति में अभी तक संस्कार के न होने का कारण क्या है?

उसका कारण है – मानव परंपरा में अभी तक जो कुछ भी है, वह जीवचेतना है. जीवचेतना विधि से ही कुछ बातों को “अच्छा” और कुछ बातों को “बुरा” मान लिए हैं. मानव “अच्छा बोलना” सीख गया है – यह अवश्य है. “अच्छा बोलने” को संस्कार नहीं कह सकते हैं. संस्कार “अच्छा जीने” का ही स्वरूप है. यदि “अच्छा जीने” को संस्कार माने तो कहना पड़ता है, मानव जाति में अभी तक संस्कार हुआ नहीं.

“अच्छा” है क्या?

अच्छेपन या श्रेष्ठता का शोध किया तो पता चला – जीवचेतना से मानवचेतना श्रेष्ठ है. मानवचेतना से देवचेतना श्रेष्ठतर है. देवचेतना से दिव्यचेतना श्रेष्ठतम है. मानवचेतना के आने से संस्कार हुआ.

आपने बताया है – “जीव-चेतना से मानवचेतना में विकास के लिए वातावरण, संस्कार, और अध्ययन आवश्यक है.” इसमें “संस्कार” से क्या आशय है?

यहाँ संस्कार से आशय “पूर्व-संस्कार” से नहीं है. संस्कार मानव में हुआ ही नहीं है अभी तक! अभी मानव जाति में संस्कार नहीं है, “संस्कार की अपेक्षा” है. “अच्छाई की अपेक्षा” है – पर अच्छाई को समझे नहीं हैं.

इतिहास में अभी तक कोई मानव-चेतना में जिया कि नहीं जिया?

अभी तक तो मानवचेतना पूर्वक जीने का कोई प्रमाण नहीं है. जीने का प्रमाण आचरण में होता है, शिक्षा में होता है, व्यवस्था में होता है, संविधान में होता है. इन चारों जगह पर संस्कार का जिक्र नहीं है. मानव में संस्कार की अपेक्षा है, इसीलिये मानव-चेतना पूर्वक जीने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है. मानवचेतना पूर्वक मानव व्यवस्था में जी सकता है. जीवचेतना पूर्वक मानव व्यवस्था में जी नहीं सकता.

अभी कुछ विरले लोगों को मानव-चेतना का ज्ञान हो सकता है. मानवचेतना का वातावरण ऐसे विरले लोगों से बनेगा. विरले लोग, अर्थात थोड़े से लोग, जो इस प्रस्ताव को स्वीकार रहे हैं.

लोगों में अंतर क्यों है? सभी समान रूप से आगे क्यों नहीं बढ़ पाते हैं?

क्योंकि जीवचेतना को वे छोड़ नहीं पाते हैं. जो आगे बढ़ पाते हैं, उनमें संस्कार के लिए शोध की प्रवृत्ति है. अच्छाई को शोध पूर्वक समझना, अपनाना, और प्रमाणित करना.

मानवचेतना मानव के “व्यवस्था में जीने” के रूप में है. नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य को समझना और समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को जीने में प्रमाणित करना. ऐसे जीना = आचरण. आचरण ही नियम है. आचरण की निरंतरता ही संस्कार है. आचरण में निरंतरता होना ही संस्कार का प्रमाण है. मानव में संस्कार पूर्वक जीवन और शरीर का संतुलन होना बन जाता है. यदि इसका परंपरा बनता है तो चारों अवस्थाओं के साथ संतुलन पूर्वक जीना बनता है. “त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी” की जो प्रमाण परंपरा बनती है, उसका नाम है “संस्कार”.

हर व्यक्ति समझदार हो सकता है, व्यवस्था में जी सकता है, दूसरों को समझा कर स्वयं को प्रमाणित कर सकता है – इस बात को लेकर हम चल रहे हैं।

संस्कार और प्रारब्ध में क्या भेद है?

संस्कार यदि समझ आता है तो प्रारब्ध भी समझ आता है. संस्कार जीवन से सम्बंधित है, प्रारब्ध भौतिक-रासायनिक वस्तुओं से सम्बंधित है. जो जितना जानता है, उतना चाहता नहीं है. जितना चाहता है, उतना करता नहीं है. जितना करता है, उतना भोगता नहीं है. जो बच जाता है, वही प्रारब्ध है.

संस्कार पूर्वक मानव के पास भोगने के बाद जो बचता है, उस प्रारब्ध को सहज रूप में संसार स्वीकारता है. मानव-चेतना विधि से प्रारब्ध बंट पाता है, और संस्कार बना रहता है. जीवचेतना विधि से प्रारब्ध बंट नहीं पाता और संस्कार बनता नहीं है.

यहाँ अमरकंटक आने से पहले आपका क्या प्रारब्ध था?

यहाँ आने से पहले, ३० वर्ष तक मैंने अपने प्रारब्ध को जिज्ञासा के रूप में देखा. परंपरा में उस जिज्ञासा का उत्तर न होने से उसके लिए मैं जूझता रहा. पांच वर्ष की आयु में मुझे बड़े-बुजुर्ग दीर्घ-दंड प्रणाम करते रहे. यह देखने पर मुझमें विचार हुआ, मैंने इनको ऐसा क्या दे दिया? ये लोग क्यों मुझे ऐसे प्रणाम करते हैं? मेरे साथ गाँव में मेरे जैसे और बच्चों में ऐसा विचार नहीं आया. यह मेरे प्रारब्ध का ही प्रभाव रहा. इस विचार के चलते राजनीतिक, धर्म-नीतिक, अर्थ-नीतिक विधाओं में मेरे द्वारा गलतियों का आंकलन होने लगा. यह सब मेरे प्रारब्ध वश ही हुआ. मेरे प्रारब्ध में तर्क करने का प्रवृत्ति था. तर्क की ताकत से ही व्यर्थता को नकारना बना. तर्क की ताकत और शुभ की अपेक्षा इन दोनों को लेकर मैं चला. जिज्ञासा वश तर्क और शुभ की अपेक्षा रही. सारा जिज्ञासा विचार में है और इच्छा तक पहुँचता है. हमारे जीवन में जो प्रश्न बने रहते हैं, उनके उत्तर को समझने के लिए जब हम निष्ठान्वित हो जाते हैं, तो जिज्ञासा हुआ. ३० वर्ष के बाद परंपरा के अनुसार समाधि में ज्ञान होने का आश्वासन मिला. उसके लिए मैं तुल गया. इस तरह तुलने पर अभी यहाँ तक पहुंचे हैं.

मानवचेतना में प्रारब्ध का क्या स्वरूप है? अभी आप का क्या प्रारब्ध है?

इस आयु में मैं शरीर के द्वारा काफी कम कर्म करता हूँ. वचन और मन द्वारा अधिक कर्म करता हूँ. कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित – कुल ९ प्रकार से कर्म करने की बात है. अभी मैं अधिकाँश मन प्रधान विधि से वचन से कर्म करता हूँ. जो मैं शरीर द्वारा कर्म करता था – जैसे कृषि, गोपालन, चिकित्सा – वह मेरी संतानों के बीच आवंटित हो गया. इस तरह जो मेरा प्रारब्ध है, वह आवंटित हुआ. प्रमाण-विधि से आयु के अनुसार मेरा कार्यक्रम तय हो गया. कृषि-कार्य को ८० के दशक में मैंने बच्चों पर छोड़ दिया. २००० के दशक से चिकित्सा को भी बच्चों पर छोड़ दिया. इनको करने का ज्ञान मुझमें बना ही हुआ है. जैसे – नाड़ी देखने के ज्ञान का मैं अभी भी प्रयोग करता हूँ.

जीवचेतना में प्रारब्ध का क्या स्वरूप है?

जीवचेतना में शुभ को चाहते भर हैं, लेकिन शुभ को कर पाना, शुभ को भोग पाना, और शुभ को आवंटित कर पाना नहीं है. इस तरह जीवचेतना में शुभ चाहत में ही रह गया, प्रमाणित नहीं हो पाया. बल्कि जीवचेतना में मनुष्य के साथ और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ कर्म किया – वह अपराध में गण्य हो गया. ऐसा जो प्रारब्ध हुआ, वह आवंटित नहीं होता. जीवचेतना विधि से प्रारब्ध बंट नहीं पाता.

जीवचेतना की सीमा में पिछली शरीर यात्रा में जो कुछ किया, उसका अवशेष जीवन में प्रवृत्ति के रूप में रहता है – जो अगली शरीर यात्रा के लिए प्रारब्ध होता है. पिछली शरीर-यात्रा में अपने जीवचेतना के कार्यकलापों के फल-परिणाम के पराभव वश जो भोगा नहीं रहता है, उसको भोगने की अपेक्षा प्रारब्ध स्वरूप में रहता है।

एक शरीर यात्रा से दूसरी शरीर यात्रा तक प्रारब्ध बना रहता है। स्वीकृति रूप में "विधि", स्मृति रूप में "निषेध" होता है। अनुभव के बिना बुद्धि में स्वीकृति होता नहीं है। अनुभव के आधार पर ही स्वीकृतियां होते हैं।

एक मनुष्य जो जीवचेतना में एक शरीर-यात्रा किया, उसके पास अगली शरीर यात्रा में क्या कोई स्वीकृतियां होती हैं?

नहीं। जैसे वह पहले जिया होता है, उसके आगे वह नयी शरीर यात्रा में शुरू करता है। सुखी होने की अपेक्षा में हम जितने भी प्रकार से जिए, उसमें जब सुखी नहीं हुए, तो कोई और तरीका होगा जिसमें सुखी होने का रास्ता होगा। इसका नाम है - शोध। यह शोध कब तक चलेगा? - जब तक सुखी नहीं हो जाते! परंपरा में जब तक सुखी नहीं होते, तब तक यह रहेगा। इसमें किस ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी को तकलीफ है?

मानव अपने जीवचेतना के प्रारब्ध से कैसे मुक्त हो सकता है?

जब कभी भी मानव जागृति की ओर शुरू करता है, कदम बढाता है – उसी समय यह श्राप, ताप, पाप रुपी प्रारब्ध समाप्त हो जाता है. ‘श्राप’ है – हम जो स्वयं नहीं चाहते हैं, फिर भी उसे करते हैं. जीव-चेतना में मनुष्य जो स्वयं नहीं चाहता है, फिर भी करता है – इसे ‘श्राप’ नाम न दिया जाए, तो और क्या नाम दिया जाए? ‘ताप’ है – जो दूसरों की अपेक्षा के विरुद्ध है, वैसा हम जियें. ‘पाप’ है – अमानवीय कर्म जो हम कर चुके हैं, जिनका प्रभाव हम पर है. मानवचेतना की ओर शुरुआत करने से ये तीनो चीज समाप्त हो जाते हैं. ये तीनो शुभ के लिए सहायक नहीं हैं, इसलिए ये उड़ जाते हैं.

मानवचेतना की ओर शुरुआत करना अर्थात मानवचेतना को समाधान-समृद्धि पूर्वक जी कर प्रमाणित करना. यदि मानवचेतना को आप जी कर प्रमाणित नहीं करते, तो मानवचेतना को आप सुने भी हैं – ऐसा कैसे कहा जाए? सुनने के बाद ही मानव अभ्यास की शुरुआत करता है, इस दिशा में कदम बढाता है. कदम जैसे ही बढाता है – वैसे ही श्राप, ताप, पाप तीनो समाप्त हो जाता है.

अध्ययन करने से क्या व्यर्थता है, और क्या सार्थकता है – यह समझ में आता है. व्यर्थता क्या है – यह समझ में आने पर प्रारब्ध का प्रभाव उड़ना शुरू कर देता है. अध्ययन हुआ, उसका मापदंड यही है. अध्ययन-क्रम में ऊट-पटांग बातें जो मन में आती हैं, उनकी समीक्षा होती जाती है. यह क्रम एक स्थिति में पहुँचता है, जब ऊट-पटांग बातें आना शून्य हो जाता है. साथ ही साथ समझदारी विकसित होता जाता है. समझदारी विकसित होने पर, प्रमाणित होने की श्रंखला बनने पर, ये ऊट-पटांग बातें कहाँ आती हैं? कहीं भी आप इसको आजमा सकते हैं. यह सूत्र १००% सफल है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

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