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Wednesday, January 19, 2011

मध्यस्थ-क्रिया


व्यवस्था का मूल स्वरूप परमाणु है. परमाणु में व्यवस्था का आधार है – मध्यस्थ क्रिया. परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया स्वयं को संतुलित बना कर रखने के स्वरूप में मिला. कैसे? परमाणु के नाभिक में जो अंश हैं, वे घूर्णन गति करते हैं और परिवेशीय परमाणु-अंश वर्तुलात्मक और घूर्णनात्मक दोनों गतियाँ करते हैं. वर्तुलात्मक गति करते हुए परिवेशीय अंशों का नाभिक के बहुत पास आ जाने या नाभिक से बहुत दूर चले जाने का सम्भावना बना रहता है. उसको सटीक अच्छी दूरी में बनाए रखने के लिए मध्यस्थ-क्रिया काम करता रहता है. यही मध्यस्थ-शक्ति है, मध्यस्थ-बल है. हर परमाणु में ऐसा है.

स्वयं में संतुलित रहने के फलन में परमाणु अपने सम्पूर्णता के साथ त्व सहित व्यवस्था में प्रवृत्त हो गया. उसके फलन में परमाणु रसायन-संसार के लिए पूरक हो गया. रसायन-संसार तो आप के सामने गवाही के रूप में प्रत्यक्ष रखा है. स्वयं-स्फूर्त विधि से सह-अस्तित्व जो प्रकट हुआ है, इसी विधि से हुआ है. जिसको मैं देखा हूँ.

सत्ता में संपृक्तता वश हर परमाणु क्रियाशील है. क्रियाशीलता स्थिति-गति स्वरूप में व्यक्त है. क्रिया दो प्रकार से है – स्थिति और गति. स्थिति-क्रिया को हम ‘बल’ नाम दिया. गति में जो कार्य होता है, उसको ‘शक्ति’ नाम दिया. गति को बारम्बार निरंतर दोहराता है परमाणु. अभी विज्ञानी स्थिति-क्रिया को पहचानते नहीं हैं. गति को ही कभी बल मानते हैं, कभी शक्ति मानते हैं. जबकि स्थिति में बल और गति में शक्ति होती है. परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को व्यक्त करता है.

मध्यस्थ-क्रिया (मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति) से परमाणु में क्या लाभ हुआ?

मध्यस्थ-क्रिया के फलस्वरूप परमाणु में स्वयं-स्फूर्त कार्य करना, त्व सहित व्यवस्था होना, तथा परमाणु की पूरकता-उपयोगिता सिद्ध हुई. यह निष्कर्ष आज धरती के ७०० करोड आदमियों के बीच नहीं है. मध्यस्थ-क्रिया के बल और शक्ति को अभी तक मनुष्य-जाति मानने की जगह में नहीं आया है. मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति को हमें पहचानने की आवश्यकता है – स्वयं नियंत्रित रहने के लिए. एक परमाणु ने भी स्वयं नियंत्रित रहने के लिए मध्यस्थ-बल और मध्यस्थ-शक्ति का प्रयोग किया है. नियंत्रित रहने से स्वयं की पूरकता और उपयोगिता सिद्ध होती है.

व्यापक-वस्तु पारगामी है – परमाणु-अंश में, परमाणु में, अणु में, अणु-रचित रचना में, जड़-प्रकृति में, चैतन्य प्रकृति में, मानव में – सब में पारगामी है. व्यापक पारगामी होने से वस्तु सत्ता में भीगा है. फलस्वरूप वस्तु में बल-सम्पन्नता है. यह बल-सम्पन्नता चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है. चुम्बकीय-बल सम्पन्नता का प्रमाण परमाणु प्रस्तुत किया. दो अंश मिल करके ही परमाणु का संज्ञा बनती है. अकेले परमाणु-अंश से परमाणु-संज्ञा बनता नहीं है. इस तरह दो अंश से लेकर अनेक अंशों तक परमाणु बने हैं. इनकी दो प्रजातियां हैं – भूखे परमाणु और अजीर्ण परमाणु. दोनों तरह के परमाणु अपनी सम्पूर्णता के साथ त्व-सहित व्यवस्था में होते हैं. अजीर्ण-परमाणु भी सम्पूर्णता के साथ संतुलित रहता है. अजीर्ण-परमाणु स्वयं से परमाणु-अंशों को बहिर्गत करने के लिए प्रवृत्त रहता है. अजीर्ण-परमाणु परमाणु-अंशों को बहिर्गत करते समय संतुलन पूर्वक ही बहिर्गत करता है. संतुलित रहे बिना कोई त्यागता नहीं है. यह बात मनुष्य में भी देखा जा सकता है. संतुलित रहे बिना मनुष्य त्यागता नहीं है. अनावश्यक वस्तु को त्यागना - तब भी संतुलित रहना, आवश्यक वस्तु को त्यागना – तब भी संतुलित रहना. इस तरह परमाणु-अंशों को स्वयं से बहिर्गत करने में कोई बाहरी दबाव नहीं रहता है. स्वयं-स्फूर्त विधि से ही करता है. बहिर्गत करते हुए परमाणु का खुशहाली में नर्तन कोई आवेश नहीं है.

जड़-प्रकृति में सम और विषम क्रियाओं को मनुष्य पहचाना है – जैसे कुछ बनना, कुछ बिगडना. यह मनुष्य के पकड़ में आया है। जड़-प्रकृति में त्व सहित व्यवस्था में होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना परमाणु में मध्यस्थ-क्रिया का फलन है. यही स्वभाव-गति है. अस्तित्व में मानव के प्रकटन तक व्यवस्था ही व्यवस्था है. मानव के प्रकटन के बाद व्यवस्था और अव्यवस्था की गणना है.

रचना के स्तर पर मध्यस्थ-क्रिया नहीं है. मध्यस्थ-क्रिया परमाणु के स्तर पर है, और उसके बाद (जागृत) मानव के साथ है.

परमाणु में मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता ही रहता है. मध्य में परमाणु-अंश की अवस्थिति के आधार पर उसका मध्यस्थीकरण क्रियाकलाप है. यही परमाणु-अंश यदि परिवेश में हों तो वह परिवेशीय अंश के अनुसार ही काम करता है. परिवेशीय अंश यदि मध्यांश के स्थान पर हों तो वह उसके अनुसार कार्य करता है. परमाणु में यदि एक से अधिक अंश मध्य में होते हैं तो वे सभी मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं. मध्य-स्थिति में होने से मध्यस्थ-क्रिया ही करते हैं, यही स्थान का बल है.

स्थान के अनुसार काम करने की बात प्रकटन-क्रम में प्राण-अवस्था तक आ गया. प्राण-अवस्था की रचना की मूल इकाई प्राण-कोशा है. प्राण-कोशा में निहित प्राण-सूत्रों में रचना विधि समाई है. जड़, तने, पत्ती, फूल, फल सभी में प्राण-कोशा हैं. रचना में जहां पर जो प्राण-कोशा है, वह उस स्थान के अनुसार काम करती है. स्थान के अनुसार काम करने की शुरुआत परमाणु से ही है. पदार्थ-अवस्था में परमाणु-अंशों और प्राण-अवस्था में प्राण-कोशों में अपने स्थान के अनुसार कार्य-रूप है. इस तरह क्रिया करने की बात जीव-अवस्था तक चला. जीव-अवस्था में शरीर के अनुसार जीवन काम करता है. जीव-अवस्था में शरीर के क्रियाकलाप का केन्द्र जीवन हुआ. उस ढंग से जीव-अवस्था की इकाइयां काम करती हैं.

पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, और जीव-अवस्था स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील हैं. कर्ता-पद में मानव ही है. सह-अस्तित्व सहज प्रकटन क्रम मानव तक पहुँचने पर यह बात होने लगी – “हम यह नहीं करेंगे, हम वह नहीं करेंगे. हम यह नहीं चाहेंगे, हम वह नहीं चाहेंगे.”. मानव ही अपने कर्ता होने को पहचानता है. मनुष्येत्तर-प्रकृति क्रिया होते हुए भी उसमें कर्ता पद का ज्ञान नहीं है. इनमें ‘करने’ का स्वीकृति है, पर अपने कर्ता होने का ज्ञान नहीं है.

मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? - यह उसको पता ही नहीं है. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र क्या है? – उसको पहचानने के लिए हम अध्ययन शुरू किये हैं. मानव के क्रियाकलाप का केन्द्र ‘समझ’ है. अपनी समझ के आधार पर काम करने की बात मानव से ही शुरू हुआ. मानव में समझ दो स्वरूप में है – अविकसित-चेतना और विकसित-चेतना. अविकसित-चेतना में जीने से क्या होता है इस बात के बारे में हम स्पष्ट हो चुके हैं. क्या होना चाहिए? – इसके लिए हम इस प्रस्ताव का अध्ययन शुरू किये हैं.

मानव में ही ज्ञान होता है. मानव को इसलिए ज्ञान-अवस्था बताया. मानव ज्ञान के आधार पर प्रवर्तनशील है. ज्ञान के चार स्तर बताए – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना. इसमें से जीव-चेतना में जीना मानव के लिए अपराध है, अन्याय है. मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीना मानव के लिए विधि है, न्याय है. जिसमें जीना है, उसी में जी लो! मानव जीव-चेतना की समझ से सारे अपराध को अपना लिया. अब मानव-चेतना की समझ से न्याय को अपना सकते हैं. एक पन्ने पर विधि है, दुसरे पन्ने पर निषेध है – जैसे जीना है वैसे जी लो! यह ‘विधि’ और ‘निषेध’ केवल मानव के लिए ही है. बाकी सब विधि में ही है. विधि के अलावा दूसरा कुछ होता ही नहीं है. विधि के बिना एक तिनका भी नहीं बनता. विधि पूर्वक ही एक तिनका बनना तय हुआ, जल बनना तय हुआ, रसायन बनना तय हुआ, पेड़-पौधे बनना तय हुआ, जीव-जानवर बनना तय हुआ. अब मानव को तय करना है – उसे कैसे जीना है.

सभी मनुष्य नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक ही तृप्त होते हैं. इनको अभिव्यक्त करने से समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व होता है. इसका अनुभव सुख, शान्ति, संतोष, आनंद रूप में होता है. नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य अध्ययन की वस्तु हैं. हर मनुष्य में कल्पनाशीलता पूंजी के रूप में रखा है. कल्पनाशीलता वश हर मनुष्य में तदाकार होने की सम्भावना रखा हुआ है.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

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