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Monday, January 24, 2011

प्रतिबिम्बन और पहचान

साम्य-सत्ता में संपृक्त रहने से प्रत्येक वस्तु (परमाणु, अणु, अणु-रचित रचना, पेड़-पौधे, जीव-जानवर, मानव) ऊर्जा-संपन्न है, बल-संपन्न है, क्रियाशील है. क्रियाशीलता के साथ वस्तु में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म आ गया. रूप, गुण, स्वभाव, धर्म = यथास्थिति. क्रियाशीलता के फलस्वरूप इकाई अपने सभी ओर अपनी यथास्थिति के साथ प्रतिबिंबित रहता है. हर इकाई का सभी ओर प्रतिबिम्बन रहता है. इस सिद्धांत को हृदयंगम करने की आवश्यकता है. इकाई का प्रतिबिम्ब सभी ओर रहता है इसीलिये इकाई सभी ओर से दिखता है.

लक्ष्य के आधार पर पहचान सिद्ध होती है. लक्ष्य-विहीन कोई पहचान नहीं है. लक्ष्य क्या है? विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति लक्ष्य है. सह-अस्तित्व में इतना ही लक्ष्य है. हर इकाई लक्ष्य के अर्थ में ही पहचान और निर्वाह करती है. लक्ष्य के अनुकूल यदि दूसरी इकाई होती है तो उसके साथ वह इकाई रहती है. लक्ष्य के प्रतिकूल यदि दूसरी इकाई होती है तो उसके साथ वह इकाई रहती नहीं है. साम्य-सत्ता में संपृक्त रहने से परमाणुओं में लक्ष्य-सम्मत पहचान की अर्हता आ गयी. साम्य-सत्ता यथावत रहते हुए, सभी परमानुएं उसमें भीगे रहते हुए लक्ष्य-सम्मत पहचान का वैभव हो गया. लक्ष्य के अर्थ में प्रतिबिम्बन पूर्वक पहचान की शुरुआत परमाणु-अंशों से ही है. सभी परमाणु-अंश एक सा होते हुए, परमाणुओं के गठन में परमाणु-अंशों की मात्रा के आधार पर उनका कार्य-शैली बदलता गया.

“रहने” की दो विधियाँ हैं – यौगिक विधि और सहवास विधि. परमानुएं सहवास विधि से सबके साथ रहते हैं, यौगिक विधि से कुछ के साथ रहते हैं. यौगिक-स्वरूप में होने का मुख्य मुद्दा है – उभय-सुकृतियाँ होना. यौगिक-विधि द्वारा मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता है. यौगिक-विधि द्वारा दो प्रकार की वस्तुएं मिल कर काम करने लगे और उनके काम करने का यह स्वरूप इससे पहले वाले स्वरूपों से भिन्न है. कुल मात्रा तो उतनी ही रही, पर उनमें मिल कर काम करने से गुणात्मक-परिवर्तन हो गया. झाड-पौधों से जीव-शरीरों तक मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता रहा.

हर वस्तु के प्रतिबिम्ब को मनुष्य द्वारा समझने की विधि है – जानना, मानना, पहचानना, और निर्वाह करना. इन चार में से पहचानना और निर्वाह करना मनुष्येत्तर प्रकृति में भी स्पष्ट है. मानव में ही जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करना होता है. अभी तक मानव-जाति ’मानने’ के आधार पर पहचान-निर्वाह किया है. मानव में कल्पनाशीलता नियति-प्रदत्त विधि से है – जिसके आधार पर मानव अभी तक ‘मानने’ के आधार पर जिया है. ‘जानता’ कुछ नहीं है. ‘जानना-मानना’ पूरा करने के लिए यह छोटा सा प्रस्ताव है.

पदार्थ-अवस्था में रूप-प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. प्राण-अवस्था में रूप और गुण प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. जीव-अवस्था में रूप, गुण, और स्वभाव प्रधान विधि से परस्पर पहचान-निर्वाह है. जीव जानवर एक दूसरे के क्रियाकलाप (गुणों) को देखते हैं, उससे क्रूर-अक्रूर स्वभाव को पहचानते हैं. जीव-जानवरों ने खाने-पीने के आधार पर ही स्वभाव की पहचान है. ज्ञान-अवस्था के मानव में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म प्रधान से परपर पहचान-निर्वाह का प्रावधान है. मानव इन सबके रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को समझता है. इनमें से मुख्यतः मानव को समझने की ज़रूरत है, और प्रमाणित करने की ज़रूरत है.

मानव का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म ज्ञान होने के लिए जीवन-ज्ञान होना आवश्यक है. बिना जीवन के मानव संज्ञा नहीं है. जीवन कहाँ है? सह-अस्तित्व में जीवन है. इसलिए सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान आवश्यक है. इसके बाद मानव के प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान आवश्यक है. इन तीनो ज्ञान होने पर हम मानव के रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को पहचान सकते हैं. इन तीनो ज्ञान के पहले मानव का रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को पहचानना न किसी से हुआ, न किसी से होगा. अभी तक तो नहीं हुआ! सबने अपनी-अपनी ढफली, अपना-अपना राग कर लिया – इसके बावजूद नहीं हुआ.

प्रश्न: जीव-चेतना में मानव के पहचान की क्या सीमा है?

जीव-चेतना में मानव शरीर-मूलक विधि से पहचान करता है. शरीर-मूलक विधि से आँखों के द्वारा ‘रूप’ की भी पहचान नहीं होती. रूप = आकार, आयतन, घन. आयतन का आधा-भाग (सम्मुख भाग) आँखों में आता है, बाकी आँखों में आता नहीं है. ‘घन’ आँखों में आता नहीं है. आँखों में आयी बात को सच्चाई मान कर हम कहाँ तक पहुंचेंगे? इस तरह चलते हुए मनुष्य सम-विषम गुणों को पहचानता है. स्वभाव और मध्यस्थ-गुण को पहचानता नहीं है. साढ़े चार क्रिया में पहचान की यही सीमा है. इससे ४ विषयों और ५ संवेदनाओं की पहचान होती है.

आँखों की सीमा में सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है. आँखों की सीमा में आदमी कुछ भी करे, धोखा ही होगा. आप इसे १००% जाँचिये, यह १००% सही निकलेगा. संवेदनाओं के आधार पर हम कुछ भी करें, तो धोखे की जगह पर पहुँचते हैं या नहीं? कुंठा की जगह पर पहुँचते हैं या नहीं? निराशा की जगह में पहुँचते हैं या नहीं? असफलता की जगह में पहुँचते हैं या नहीं? सबको आंकलन करिये. व्यर्थता के आंकलन में ज्यादा देर लगाने की आवश्यकता नहीं है, सार्थकता में जीने की आवश्यकता है. मेरा यही सुझाव है.

प्रश्न: अध्ययन में प्रतिबिम्बन का क्या महत्त्व है?

प्रतिबिम्बन के आधार पर ही अध्ययन है. प्रतिबिम्बन को यदि पहचानते नहीं हैं तो शब्द को कैसे पहचानेंगे? शब्द का अर्थ प्रतिबिंबित है तभी शब्द से अर्थ की पहचान है. अर्थ स्वरूपी प्रतिबिम्ब के साथ तदाकार होना ही निष्ठा है. शब्द के अर्थ में तदाकार होने पर ही निष्ठा हुई. इतना ही बात है. यह बात बहुत छोटी है, पर इसका प्रभाव बहुत विशाल है! कल्पनाशीलता को तदाकार तक पहुंचाते हैं तब निष्ठा हुई. उससे दूर रहते हैं तो आँखों की सीमा वाली पहचान ही रही.

तदाकार होने का औज़ार हमारे पास है, उसका नाम है – कल्पनाशीलता. हमारी चाहत के अनुसार हमारी कल्पनाशीलता काम करती है. हम तदाकार नहीं होना चाहें तो तदाकार नहीं हो पाते हैं. अध्ययन विधि में यही अड़चन है, और यही सुगमता भी है. अधिकार भी यही है. जब हम तदाकार हो जाते हैं तो वस्तु को समझने लग जाते हैं. तदाकार नहीं हो पाते हैं तो आँखों की सीमा में ही रह जाते हैं.

अस्तित्व स्वयं पर प्रतिबिंबित है, तदाकार होने पर हम उसको समझ पाते हैं. समझना = जानना-मानना. इस तरह तदाकार-विधि से हम प्रमाणित होते हैं. जिसके फलन में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं. न्याय – धर्म - सत्य को प्रमाणित करते हैं. समाधान – समृद्धि – अभय - सह-अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं. सुख – शांति – संतोष – आनंद को प्रमाणित करते हैं. मानव का लक्ष्य यही है. मानव के लक्ष्य को पहचानने की विधि भी यही है. दूसरा कुछ विधि भी नहीं है.

इस अनुसंधान में एक मौलिक बात हुई – सर्व-मानव में कल्पनाशीलता है, इस बात को स्वीकारा. कल्पनाशीलता ही एक मात्र वस्तु है जो तदाकार हो सकती है. किस प्रयोजन के लिए – सच्चाई को पाने के लिए. सच्चाई को समझना ही सच्चाई को पाना है. इस प्रस्ताव के अध्ययन से यदि ठौर मिलता है तो बहुत-अच्छा है, नहीं तो आप अनुसंधान कर लेना. हम ऐसा कोई व्यर्थ का दावा नहीं कर रहे हैं कि इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता. मैंने जितना किया उतना आप के सामने प्रस्तुत कर दिया. इस प्रस्ताव के आने से मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने का सम्भावना तो उदय हो गया. इतना तो मैंने देख लिया, कर दिया, जी भी लिया. किन्तु संसार प्रमाणित होना अभी दूर ही है. संसार अपने रंग में डूबा ही है. एक व्यक्ति के जीने मात्र से संसार प्रमाणित हो गया, ऐसा कुछ नहीं है.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

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