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Monday, July 5, 2010

स्व-निरीक्षण

स्व-निरीक्षण विधि से ही हम निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, दूसरे किसी विधि से नहीं। कितना भी प्रयत्न करो, दूसरे विधि से निकलेगा नहीं! स्व-निरीक्षण की ओर ध्यान नहीं जाना ही भूल है। चार विषय, और पांच संवेदनाएं शरीर-सापेक्ष हैं। जीवन के लिए शरीर "पर" (पराया) है। शरीर-मूलक सोच पर-सापेक्ष है, स्व-सापेक्ष नहीं है। स्व-निरीक्षण से पता चलता है - ज्ञान जीवन का है। ज्ञान के किसी न किसी स्तर को प्रमाणित करता हुआ ही मनुष्य मिलेगा। ज्ञान न हो, ऐसा कोई जीवित आदमी आपको मिलेगा नहीं। जीवन-ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। सह-अस्तित्व ज्ञान हुए बिना जीवन-ज्ञान होता नहीं है। अभी तक तो हुआ नहीं है! सारे लोगों ने बहुत सर कूट लिया, साधना कर लिया, यज्ञ कर लिया, तप कर लिया, योग कर लिया... मनुष्य ने क्या नहीं किया? पर उस सबसे जीवन-ज्ञान नहीं हुआ।

चारों अवस्थाओं के साथ सत्तामयता को संयुक्त रूप में अनुभव किये बिना जीवन-ज्ञान हो ही नहीं सकता। जीवन-ज्ञान होने से पहले मानव-चेतना का शुरुआत ही नहीं होगा।

स्व-निरीक्षण विधि से सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान तक पहुँचते हैं। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान होने के बाद स्व-स्वरूप ज्ञान होता है। स्व-स्वरूप ज्ञान ही जीवन-ज्ञान है। फल-स्वरूप ऊर्जा-सम्पन्नता का ज्ञान होता है। जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है, चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता है - यह ज्ञान होता है। यह दोनों स्पष्ट होता है, तो उसके अनुरूप जीने के लिए तत्परता होती है, तो मानवीयता पूर्ण आचरण की शुरुआत हो गयी। व्यवस्था में जीना शुरू हो गया।

स्व-निरीक्षण पूर्वक जीवन दृष्टा-पद प्रतिष्ठा को पाता है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में पहुँचते हैं तो स्व-निरीक्षण हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में नहीं पहुंचे तो स्व-निरीक्षण नहीं हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा स्व-निरीक्षण का प्रमाण है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा पूर्वक सह-अस्तित्व समझ में आता है। चारों अवस्थाओं के साथ मानव का होना समझ में आता है। मानव का शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना समझ में आता है। शरीर का महत्त्व और जीवन का महत्त्व समझ में आता है। शरीर का महत्त्व मनुष्य-परंपरा के रूप में है। जीवन का महत्त्व शाश्वत रूप में है। इसी आधार पर प्रतिपादित किया है - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत"।

प्रश्न: स्व-निरीक्षण की प्रक्रिया क्या होगी?

उत्तर: हम क्या कर रहे हैं? हम क्या सोच रहे हैं? - यही स्व-निरीक्षण है। यह बिलकुल सहज है। मैं क्या करता हूँ, और क्या सोचता हूँ - इसको मिलाओ। यदि "करने" और "सोचने" में मेल नहीं बैठता तो वह "होने" से जुड़ता नहीं है। कर्म करते समय कुछ और हो, फल भोगते समय और कुछ हो - तो तृप्ति कहाँ मिली? मानवीयता पूर्वक मनुष्य कर्म करते समय भी स्वतन्त्र है, और फल भोगते समय भी स्वतन्त्र है।

स्व-निरीक्षण लक्ष्य-सम्मत होना प्रधान बात है। किस लक्ष्य से स्व-निरीक्षण कर रहे हैं - यह मूल मुद्दा है। मानव-लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) के अर्थ में स्व-निरीक्षण करते हैं तो पकड़ में आता है, नहीं तो पकड़ में नहीं आता। लक्ष्य को पकड़ लेने पर सारे फिसलने के रास्ते हट जाते हैं। जागृति के लिए राज-मार्ग शुरू हो जाता है। भ्रमित अवस्था में भी मनुष्य जिस सुविधा-संग्रह लक्ष्य को स्वीकारा रहता है, उसको वह सही माने या गलत - उसके सारे प्रयास उसी के लिए रहते हैं। उसी तरह समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वीकारने पर सारे प्रयास उसी के लिए हो जाते हैं। इस बात को हम सभी शोध कर सकते हैं।

दर्शन में इस बात को स्पष्ट किया है, सूचना दिया है - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतम है। मनुष्य में श्रेष्ठता के लिए अरमान है ही! इसीलिये मानव-चेतना सम्मत लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) सबको स्वीकार होता है।

भौतिकवाद में स्व-निरीक्षण की बात नहीं है। स्व-निरीक्षण की परिकल्पना आदर्शवाद में की गयी है। "स्व-निरीक्षण होना चाहिए" - ऐसी आशा व्यक्त की गयी है। स्व-निरीक्षण किस लक्ष्य के लिए किया जाए - यह आदर्शवाद में स्पष्ट नहीं हुआ। मानव-लक्ष्य का ही वहां पता नहीं चला।

यहाँ मानव-लक्ष्य (समाधान - समृद्धि) के लिए स्व-निरीक्षण करने का संदेश है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

1 comment:

Jandunia said...

खूबसूरत पोस्ट