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Saturday, February 14, 2009

तदाकार तद्रूप

हर मनुष्य में तदाकार-तद्रूप होने का माद्दा है। कल्पनाशीलता के आधार पर तदाकार होते हैं। जिसके फलन में अनुभव मूलक विधि से तद्रूपता को प्रमाणित करते हैं।

प्राप्त का अनुभव और प्राप्य का सान्निध्य होता है। सत्ता (व्यापक) हमको "प्राप्त" है - उसका हमको अनुभव करना है। सभी मनुष्य-सम्बन्ध और मनुष्येत्तर सम्बन्ध हमको "प्राप्य" हैं - उनको हम तदाकार विधि से समझते हैं, और तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। जैसे - आपकी माता के साथ आपका सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को आप तदाकार विधि से समझते हैं, और समझने के बाद इस सम्बन्ध में न्याय प्रमाणित करना है या नहीं करना है - उसका आप निर्णय लेते हैं। समझने के बाद "न्याय प्रमाणित करना है" - यही निर्णय करना बनता है। फ़िर उस सम्बन्ध को आप तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह व्यवस्था संबंधों को भी तदाकार-तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह उपकार करने में भी तदाकार-तद्रूप विधि से प्रमाणित होते हैं। तदाकार-तद्रूप विधि के अलावा स्वयं को प्रमाणित करने का दूसरा कोई विधि हो ही नहीं सकता।

प्रश्न: तदाकार-तद्रूप नहीं हो पा रहे हैं - तो क्या करें?

उत्तर: उसके कारण को खोजना पड़ेगा। यदि अपनी कल्पनाशीलता को हम अमानवीय कृत्यों में जीव-चेतना विधि से प्रयोग करते हैं - तो उससे छूट नहीं पाते हैं। इस तरह सुविधा-संग्रह बलवती हो जाता है, समाधान-समृद्धि लक्ष्य की प्राथमिकता नीचे चली जाती है। यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य प्राथमिक बनता है, तो बाकी सब उसके नीचे चला जाता है। समाधान-समृद्धि में जब हम पारंगत हो जाते हैं, तो बाकी सब उसमें घुल जाता है। समस्याएं समाधान में विलय हो जाती हैं। उनका कोई अवशेष नहीं बचता। सारा अज्ञान ज्ञान में विलय हो जाता है।

ज्ञान के पक्ष में हम सभी हैं। ज्ञान क्या है - उसको स्वीकारने का माद्दा मनुष्य में है। जीव-चेतना को हम पकड़े रहे - और हमको ज्ञान हो जाए, यह हो नहीं सकता। मानव-चेतना में जीव-चेतना विलय होता है।

मनुष्य में जीवन-सहज विधि से तदाकार-तद्रूप होने की विधि है। जैसे अभी रूप, पद, धन, और बल के साथ तदाकार-तद्रूप है ही मनुष्य। सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होना शेष रह गया। सच्चाई क्या है? - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आपके अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में जीवन-ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है। सह-अस्तित्व से परे कुछ भी नहीं है। जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - ये तीनो के मिलने से ज्ञान हुआ।

सत्य हमको प्राप्त है। प्राप्त का हमको अनुभव करना है। अनुभव के लिए अध्ययन आवश्यक है।

तदाकार-तद्रूप होना ही अनुभव है। अनुभव उससे अलग नहीं है।

प्रश्न: अभी प्रचलित शिक्षा में जो हम पढ़ते हैं, उसकी विधि क्या इससे अलग है?

उत्तर: आज जो प्रचलित-शिक्षा में पढ़ा रहे हैं - वह इस सह-अस्तित्व ज्ञान से कोसों दूर है। अभी की शिक्षा से जो हम अपराध सीखते हैं, और करते हैं - वह भी तदाकार-तद्रूप विधि से ही करते हैं। इस तरह - अवैध को वैध मानने से जीने में गलतियाँ होती हैं। गलतियां समस्याओं को जनित करती हैं। समस्याएं पीड़ा को जनित करती है। यही पीड़ा फ़िर "वैध" की आवश्यकता को स्वयं में जनित करती है। संवेदनशीलता से होने वाली मदद इतना ही है। संवेदनशीलता पूर्वक होने वाली पीड़ा संज्ञानीयता की आवश्यकता को स्वयं में बना देती है।

(मध्यस्थ दर्शन के) अध्ययन पूर्वक हम संज्ञानीयता तक पहुँचते हैं। संज्ञानीयता में फ़िर संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं। इससे अच्छा क्या हो सकता है - आप ही बताओ? इसमें किसी का आक्षेप नहीं है। आक्षेप होता तो प्रतिशोध होता। सुधार होता है तो आक्षेप कहाँ है?

प्रश्न: आप जब अपने प्रस्ताव को विगत का "विकल्प" कहते हैं, तो कई लोग उससे तुनक जाते हैं।

उत्तर: उनका तुनक जाना इस प्रस्ताव के प्रति उनका आक्षेप और प्रतिशोध ही है। मैं कहता हूँ - आप को यह बात स्वीकार नहीं होती तो आप दूर रहो इससे। क्या तकलीफ है उससे? तुनकने के साथ कथकली भी कर लो! वीर-रस का प्रयोग कर लो!! पर है वह प्रतिशोध ही!

प्रश्न: इस प्रस्ताव को समझने में मुझे बहुत समय लग रहा है, उसका क्या करें?

उत्तर: अभी आप और सब चीजों को साथ लेकर चलते हुए समझने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए समय लग रहा है। सघन विधि से अध्ययन करें - तो समय ज्यादा नहीं लगेगा।

प्रश्न: यदि मेरा नौकरी करना बाधक है, तो उसको मुझे छोड़ देना चाहिए?

उत्तर: समझने के लिए कोई छोड़ने-पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। समझने के बाद "जीने" के लिए आप निर्णय कीजिये - आपको कैसे जीना है? जीने का डिजाईन बनाने की जब बात आती है - तब नौकरी छोड़ना, कुछ नया setup बनाना, या नए setup में शामिल होना - ये सब बात आती है।

प्रश्न: लेकिन इस बात को भी सोचें और नौकरी भी करें - यह बहुत अंतर्विरोधी हो जाता है?

उत्तर: वह तो स्वाभाविक है। नौकरी और व्यापार "जीने" से कोसों दूर हैं। जीने में sincerity है। व्यापार और नौकरी में insincerity है। समझने के बाद निर्णय लेने की ताकत आती है


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

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