रस, छंद, अलंकार - ये सब कुकर्मो को सुकर्म मानने में लगे। मूल में "रस" के बारे में बताया गया था "रसो वै सः" सूत्र द्वारा (तैत्तिरीयोपनिषद् में)। "रस" को मूल में ईश्वर स्वरूपी बताया गया था। ईश्वर को ज्ञान स्वरूप पहले ही वेदों में बताया गया था। ईश्वर (ब्रह्म) ही ज्ञान है, ज्ञाता है, और ज्ञेय है - इन तीनो को मिलाने से त्रिपुटी-संगम कहा। उसको रस कहा। "रस ही ज्ञान है।" - ऐसा निष्कर्ष निकाला।
"सभा में मंच पर अभिनय करने से, प्रस्तुत करने से देखने-सुनने वालों में रसोत्पदन होता है" - ऐसा राजा भरत के समय में बताया गया था। फ़िर जैसा मंच बनाने का स्वरूप बताया था - वैसा बनाया, लोगों को इकठ्ठा किया, राजा स्वयं सभा में बैठा - और उनके सम्मुख रसास्वादन कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। उस तरह की प्रस्तुति ब्रह्म, ईश्वर, ज्ञान न हो कर ईष्ट-देवता के लिए भक्ति हो गयी। पहली गलती वहीं हुई। ईश्वर-रस भक्ति-रस में परिवर्तित हो गया। उसको "भरत-नाट्यम" नाम दिया गया।
वह भरत-नाट्यम अंततोगत्वा श्रृंगारिकता में पहुँच गया। श्रन्गारिकता यौन-चेतना में पहुँच गया। नृत्य सभी राजा के आश्रयी होते गए। नृत्य करने वाले राजाओं के यौन-भोग की वस्तु होते गए। मंदिरों में वे पुजारियों के भोग-द्रव्य बने। "रस" को ईश्वर का स्वरूप बता कर जो सोच शुरू हुई थी - उसकी मृत्यु इस प्रकार हुई। कुल मिला कर इसकी समीक्षा यही है - "रसो वै सः" भक्ति से चल कर श्रृंगार में अंत हुई। आज वही श्रृंगारिकता का भौंडा स्वरूप आप हॉलीवुड और बॉलीवुड के रूप में आप देख ही रहे हो।
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment