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Sunday, February 15, 2009

जागृत मानव और प्रेरणा

अनुसंधान पूर्वक मुझे जागृत-मानव का स्वरूप समझ में आया। मनुष्य ही जागृत होता है - यह समझ में आया। मेरे सम्मुख कोई आदमी आता है तो मैं बता सकता हूँ, वह जागृत है या नहीं। जागृत मानव के उस स्वरूप को प्रमाणित करने के लिए मैं स्वयं तैयार हुआ। जागृति पूर्वक जीने का मॉडल निकला - "समाधान समृद्धि"। समाधान-समृद्धि को जीने में प्रमाणित करने वाला व्यक्ति ही जागृत-मानव है। इस मॉडल के अलावा बाकी सब "भ्रम" सिद्ध हुआ। भ्रम से जागृति तक का अध्ययन का रास्ता लगाया। उसको "अनुभव-गामी विधि" कहा। अब आप भ्रम से जागृत होने के क्रम में हैं तो उस विधि से बात करो। यदि आप जागृत हो चुके हैं तो उस विधि से बात करो।

प्रश्न: क्या आपको जागृत होने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से प्रेरणा मिली?

मुझको पूर्ण जागृत मानव प्रेरणा दिए ही हैं, तभी तो मैं जागृति लक्ष्य के लिए सहमत हुआ। सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में जागृति है - इस को मैं विश्वास करता हूँ। अस्तित्व में जो नहीं है, वह होता भी नहीं है। सह-अस्तित्व में मुझको प्रेरणा मिलती रही, तभी मैं जागृति के स्वरूप को समझा। इसके अलावा क्या कहा जा सकता है - आप ही बताओ?

प्रश्न: आज की स्थिति में मैं जब अध्ययन कर रहा हूँ - तो आपके जीने, कहने, और करने को प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में स्वीकारता हूँ। आप के लिए इस तरह का प्रेरणा स्त्रोत तो नहीं था?

जीवन शरीर के साथ ही नहीं, शरीर छोड़ने के बाद भी प्रेरणा देने में समर्थ होता है। जागृत-जीवन दूसरों की जागृति के लिए प्रेरक होते ही हैं। उनका प्रेरणा जहाँ प्रभावी हो सकता है, वहाँ वे प्रेरणा देते हैं। इसी धरती पर अनेक समाधि-संयम पूर्वक अनुभव-संपन्न जीवन हैं, जो प्रमाणित नहीं हो पाये हैं। मुझसे पहले किसी को समाधि नहीं हुआ, संयम नहीं हुआ, अनुभव नहीं हुआ - ऐसा मैंने नहीं कहा है। जागृति का प्रमाण मानव-परम्परा में नहीं हुआ, अध्ययन-गम्य नहीं हुआ - यह कहा है। जागृति को मानव-परम्परा में प्रमाणित करने का काम, उसको अध्ययनगम्य बनाने का काम मैं कर रहा हूँ। इसके लिए पूर्व में जागृत-जीवन मेरे लिए प्रेरक रहे। अभी जैसे आप ही यदि कल जागृति को प्रमाणित करने योग्य होते हो, तो आप में वह कैसे आ गया? यह प्रश्न बनता ही है। उसके लिए आपको जागृत व्यक्ति का प्रेरणा है कि नहीं? प्रेरणा नहीं मिली तो आप में कैसे आ गया? अभी हम बात कर रहे हैं - मैं स्वयं जागृत हूँ, उससे आपको प्रेरणा मिल रहा है। इसी प्रकार से मेरी जागृति के लिए मुझे भी पूर्व जागृत जीवनों से प्रेरणा मिली। दूसरा और कोई रास्ता नहीं है।

प्रश्न: आपको जो मह्रिषी रमण और आचार्य चंद्रशेखर भारती ने जो साधना करने के लिए जो आशीर्वाद दिया था - क्या वह भी प्रेरणा ही थी?

वह भी प्रेरणा ही थी। यहाँ अमरकंटक आने से पहले अनुभव का तो मुझे कोई ज्ञान नहीं था। जिनको मैं पूज्य मानता था - उनकी बात को मैंने मान लिया, स्वीकार कर लिया। उनकी बात "अच्छे काम" के लिए प्रेरणा रही क्योंकि मैं प्रमाणित हो गया। यदि मैं प्रमाणित नहीं हो पाता, असफल हो जाता - तो "अच्छा काम" क्या होता, "प्रेरणा" क्या होती?

प्रश्न: तो आज की स्थिति में आप यह कह पाते हैं कि उनका आशीर्वाद आपके लिए प्रेरणा थी, क्योंकि आप का अनुसंधान सफल हो गया।

हाँ। शास्त्रों में साधना-समाधि के लिए लिखी बात पर उन्होंने बल दिया। "समाधि में ज्ञान होता है" - उनके इस निर्देश को मैंने स्वीकार लिया। उन दोनों व्यक्तियों से मैं पूछ सकता था - आपको समाधि हुई थी या नहीं? आपको समाधि में ज्ञान हुआ था कि नहीं? पर उन दोनों व्यक्तियों से मैंने यह सवाल नहीं किया, अपना शंका व्यक्त नहीं किया।

प्रश्न: क्यों नहीं किया?

भय वश। यदि मैं उनसे पूछ लेता - "आपको समाधि हुआ है या नहीं?" और वे कहते - नहीं! तो मुझे साधना पूर्वक समाधि होगा इस बात पर मैं कैसे विश्वास करता? यदि वे कहते - हाँ, हमको समाधि हुआ है। तो मेरा उनसे पूछना बनता ही - "आपको समाधि में क्या ज्ञान हुआ?" यह सब पूछने के अपने अधिकार मैंने इन दो व्यक्तियों पर प्रयोग नहीं किया। इन दो व्यक्तियों के प्रति मेरी श्रद्धा थी, इसलिए मैंने उनकी बात को बिना शर्त मान लिया। उनकी प्रेरणा के अनुसार मैंने साधना किया। साधना के फल में समाधि की स्थिति को भी प्राप्त किया। समाधि के बाद संयम का डिजाईन बनाने में मैंने अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग किया। जिसको करने पर मैंने संयम काल में अस्तित्व का अध्ययन किया, अनुभव किया। अब आप बताओ - इसमें किस पर दोष है, किस पर आरोप है? मेरे साधना के सफल होने में उन दो व्यक्तियों का प्रेरणा बलवती नहीं रहा - यह मैं मान ही नहीं सकता। संयम पूर्वक अनुभव संपन्न होने पर अब मैं कह रहा हूँ - सम्पूर्ण मानव जाति के पुण्य से मैं सफल हुआ हूँ। इसलिए जो मैंने पाया उसको मानव को अर्पित कर दिया। क्या गलती किया?

प्रश्न: आपकी सफलता मानव जाति के पुण्य से घटित हुई, यह निर्णय आपने कैसे ले लिया?

इसलिए क्योंकि मानव जाति में "शुभ" की कामना है, पर शुभ घटित नहीं हुआ है। शुभ के लिए प्रयास कर रहे हों, या अशुभ के लिए प्रयास कर रहे हों - पर हर मनुष्य में शुभ की अपेक्षा है। इस आधार पर मैं मानव-जाति का पुण्य मानता हूँ। मैंने जो पाया उसमें सर्व-शुभ का सूत्र है। इसलिए मैंने अपने कार्यक्रम को मानव के पुण्य से जोड़ लिया। सर्व-शुभ के लिए यह प्रस्ताव पर्याप्त है या नहीं - इसको हर व्यक्ति अपने में जांचेगा। जरूरत होगा तो अपनाएगा, जरूरत नहीं होगा तो छोड़ देगा। छोड़ देगा तो आगे और कोई अनुसंधान करेगा सर्व-शुभ के लिए। कोई दीवाल नहीं है किसी के लिए। यह बिल्कुल निर्विवाद बात है। यदि आप बुद्धि का प्रयोग करो - तो आप यही पायेंगे। निर्बुद्धि से आप इस प्रस्ताव को गाली देते रहो - मैं सुन ही लेता हूँ। निर्बुद्धि की बातों के लिए मेरे पास "क्षमा" बहुत है! क्षमा का मतलब है - दूसरे की अयोग्यता से प्रभावित नहीं होना। अयोग्यता से प्रभावित होना अयोग्यता ही है। यह निर्विरोध कार्यक्रम है। इसको करने के लिए मैं कोई पसीना बहा रहा हूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। स्वाभाविक रूप में हो रहा है।

प्रश्न: समझने की प्रक्रिया में भी क्या कोई संघर्ष नहीं है?

पहले से हम दोनों मनुष्य हैं।
हम दोनों शुभ चाहते हैं।
यह सर्व-शुभ के अध्ययन का प्रस्ताव है।
चाहो तो इसका अध्ययन करो, नहीं चाहो तो मत करो!
अध्ययन करने पर आप सर्व-शुभ के लिए इस प्रस्ताव में कुछ कमी पाते हो, तो आप आगे अनुसंधान करो।
यह पूरी तरह निर्विरोध और निर्विवाद बात है।
यह पूरी तरह सकारात्मक बात है।
सकारात्मक को नकारना आदमी से बनता नहीं है।
हर मुद्दे पर सकारात्मक का सार्वभौम आधार आज तक बना नहीं है।
हर मुद्दे पर सकारात्मक के सार्वभौम-आधार का यह प्रस्ताव है।

मानव जाति के लिए एक अद्भुत बात तो हुआ है। प्रभावशील होने की जहाँ तक बात है, धीरे-धीरे होगा। नियति विधि से परिस्थितियां जन-मानस को इस ओर सोचने के लिए मजबूर कर रही हैं। ५० वर्ष पहले की तुलना में आज की स्थिति में इस मुद्दे पर सोचने वालों की संख्या लाखों गुना बढ़ गयी है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

2 comments:

Gopal Bairwa said...

"जीवन शरीर के साथ ही नहीं, शरीर छोड़ने के बाद भी प्रेरणा देने में समर्थ होता है। " We should ask Baba how do they do that ? Is it through the work they did while they were living or they are able to impact even after leaving the body.

Rakesh if you have any thought, could you plz. share.

Thanks,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

I think, it is both...

(1) The works these jagrut-jeevans did while living become an inspiration, if others after them are able to realize the same knowledge in their living.

(2) The jagrut jeevans themselves are capable of giving inspiration even after their bodily journey. The need for inspiration is in jeevan (self) who wants to get awakened. The capability of giving inspiration is in jeevan (self) who has beome awakened. Jeevan expresses thoughts and receives thoughts. Jeevan has capacity for visualization and inference through symbols and images. These facts combined together make the reception of inspiration possible. There is nothing occult or mysterious about it - if we comprehend it the way it is. Unknowingly we get inspirations even today, we act on them.

Method (1) is desirable, straight-forward, and needed.

Regards,
Rakesh