आपने हमको बताया: आपने साधना पूर्वक "समाधि" की स्थिति प्राप्त की। समाधि में आपने कहा - आपको ज्ञान नहीं हुआ। आपने फ़िर "संयम" करने का अपना डिजाईन बनाया। जिसके फलन में आपने एक परमाणु से लेकर मनुष्य तक अस्तित्व में व्यवस्था के स्वरूप को देखा, उसका अध्ययन किया। उसका आपने हमको वर्णन भी किया। क्या हम जो अध्ययन कर रहे हैं, उससे हमको वही सब दिखेगा?
उत्तर: मैंने जो देखा वह आपके पास सूचना है। सूचना होना भर आपके लिए पर्याप्त नहीं है। इस सूचना से आपको तदाकार होने तक जाना है। तदाकार होने पर आपको वही दिखेगा जो मुझे दिखा। अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक प्रयत्न करने से हम तदाकार होने की स्थिति में पहुँचते हैं।
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता हर व्यक्ति में पूंजी के रूप में रखा है। यह हर व्यक्ति में अध्ययन करने का स्त्रोत है। इससे ज्यादा क्या guarantee दी जाए?
मैंने एक मिट्टी से लेकर मानव तक त्व-सहित व्यवस्था में रहने के स्वरूप का अध्ययन किया। व्यवस्था में होने का प्रवृत्ति एक परमाणु-अंश में भी है, इस बात का मैं अध्ययन किया हूँ। तदाकार विधि से आप अध्ययन करेंगे तो आप को भी वैसे ही दिखेगा। इसके लिए कोई यंत्र काम नहीं आएगा, कोई किताब काम नहीं आएगा - केवल जीवन ही काम आएगा। जीवन की प्यास अस्तित्व सहज वास्तविकताओं में तदाकार होने पर ही बुझती है।
तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।
शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।
तदाकार होने की स्थिति में जब हम पहुँचते हैं - तो हमको स्पष्ट होता है:
वस्तु, वस्तु का प्रयोजन, और वस्तु के साथ हमारा सम्बन्ध।
यह हर वस्तु के साथ होना। इसमें कोई भी कड़ी छुटा तो वह केवल शब्द ही सुना है। इस association में जो सबसे प्रबल प्रस्ताव है, वह यही है।
तदाकार होने की स्थिति केवल अध्ययन से आता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आता है - यह अनुभव के बाद होता है।
तदाकार-तद्रूप होने की स्थिति ही "दृष्टा-पद" है।
इससे पहले (मध्यस्थ-दर्शन के प्रकटन से पहले) भक्ति में तदाकार-तद्रूप की बात की गयी है। जैसे - नारद भक्ति सूत्र में। और कहीं तदाकार-तद्रूप की बात नहीं है। उसमें ईष्ट-देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है। उसके लिए नवधा-भक्ति सूत्र दिया गया। कौन उन नौ सीढियों को पार कर पाया - उसका कोई प्रमाण परम्परा में आया नहीं।
यहाँ (मध्यस्थ-दर्शन में) कह रहे हैं - अस्तित्व में सभी वस्तुएं (वास्तविकताएं) हैं। वस्तु को पहचानना ज्ञान है। उसमें तदाकार होना भक्ति है। ज्ञान के बिना भक्ति होता नहीं है।
प्रश्न: क्या तदाकार-तद्रूप होने के लिए कोई discipline की आवश्यकता है?
उत्तर: जीने के लिए कोई "उपदेश" की ज़रूरत नहीं है। अस्तित्व सहज नियमो को पहचानने पर तदाकार-तद्रूप स्वरूप में जीने की अर्हता बन ही जाता है। समझदारी के लिए सूचना है। सूचना के बाद अध्ययन है। अध्ययन पूर्वक हम अनुभव मूलक विधि से जीने के लिए तैयार हो जाते हैं।
प्रश्न: समझने के क्रम में क्या discipline का कोई रोल नहीं है?
उत्तर: सही जीने का कोई मॉडल हो, उस ढंग से हम जीना शुरू कर देते हैं, तो उस ढंग से विचारने की ओर भी जाते हैं। सही जीने का मॉडल वही व्यक्ति होगा जो सही को समझा होगा। सही जीने का मॉडल है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मॉडल का हम अनुकरण-अनुसरण करते हैं, उसके साथ शब्द को सुनते हैं, शब्द से अर्थ की ओर जाते हैं। अनुकरण-अनुसरण करना अध्ययन के लिए प्रेरणा है। अर्थ की ओर जाने पर उसके मूल में अस्तित्व में वस्तु से तदाकार होने का प्रवृत्ति जीवन में रहता ही है। तदाकार होने पर साक्षात्कार हो गया, बोध हो गया, अनुभव हो गया। अनुभव होने पर हम तद्रूप हो गए। तद्रूपता प्रमाण है।
प्रश्न: प्रमाण रूप में जीने का क्या अर्थ है?
उत्तर: प्रमाण रूप में जीना = हर मोड़-मुद्दे पर समाधानित जीना। श्रम पूर्वक अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना। शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति इन तीन के अलावा भौतिक वस्तुओं का और कहीं नियोजन ही नहीं है। मानवीयता विधि से भौतिक वस्तुओं के नियोजन की सीमा यही तक है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
उत्तर: मैंने जो देखा वह आपके पास सूचना है। सूचना होना भर आपके लिए पर्याप्त नहीं है। इस सूचना से आपको तदाकार होने तक जाना है। तदाकार होने पर आपको वही दिखेगा जो मुझे दिखा। अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक प्रयत्न करने से हम तदाकार होने की स्थिति में पहुँचते हैं।
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता हर व्यक्ति में पूंजी के रूप में रखा है। यह हर व्यक्ति में अध्ययन करने का स्त्रोत है। इससे ज्यादा क्या guarantee दी जाए?
मैंने एक मिट्टी से लेकर मानव तक त्व-सहित व्यवस्था में रहने के स्वरूप का अध्ययन किया। व्यवस्था में होने का प्रवृत्ति एक परमाणु-अंश में भी है, इस बात का मैं अध्ययन किया हूँ। तदाकार विधि से आप अध्ययन करेंगे तो आप को भी वैसे ही दिखेगा। इसके लिए कोई यंत्र काम नहीं आएगा, कोई किताब काम नहीं आएगा - केवल जीवन ही काम आएगा। जीवन की प्यास अस्तित्व सहज वास्तविकताओं में तदाकार होने पर ही बुझती है।
तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।
शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।
तदाकार होने की स्थिति में जब हम पहुँचते हैं - तो हमको स्पष्ट होता है:
वस्तु, वस्तु का प्रयोजन, और वस्तु के साथ हमारा सम्बन्ध।
यह हर वस्तु के साथ होना। इसमें कोई भी कड़ी छुटा तो वह केवल शब्द ही सुना है। इस association में जो सबसे प्रबल प्रस्ताव है, वह यही है।
तदाकार होने की स्थिति केवल अध्ययन से आता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आता है - यह अनुभव के बाद होता है।
तदाकार-तद्रूप होने की स्थिति ही "दृष्टा-पद" है।
इससे पहले (मध्यस्थ-दर्शन के प्रकटन से पहले) भक्ति में तदाकार-तद्रूप की बात की गयी है। जैसे - नारद भक्ति सूत्र में। और कहीं तदाकार-तद्रूप की बात नहीं है। उसमें ईष्ट-देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है। उसके लिए नवधा-भक्ति सूत्र दिया गया। कौन उन नौ सीढियों को पार कर पाया - उसका कोई प्रमाण परम्परा में आया नहीं।
यहाँ (मध्यस्थ-दर्शन में) कह रहे हैं - अस्तित्व में सभी वस्तुएं (वास्तविकताएं) हैं। वस्तु को पहचानना ज्ञान है। उसमें तदाकार होना भक्ति है। ज्ञान के बिना भक्ति होता नहीं है।
प्रश्न: क्या तदाकार-तद्रूप होने के लिए कोई discipline की आवश्यकता है?
उत्तर: जीने के लिए कोई "उपदेश" की ज़रूरत नहीं है। अस्तित्व सहज नियमो को पहचानने पर तदाकार-तद्रूप स्वरूप में जीने की अर्हता बन ही जाता है। समझदारी के लिए सूचना है। सूचना के बाद अध्ययन है। अध्ययन पूर्वक हम अनुभव मूलक विधि से जीने के लिए तैयार हो जाते हैं।
प्रश्न: समझने के क्रम में क्या discipline का कोई रोल नहीं है?
उत्तर: सही जीने का कोई मॉडल हो, उस ढंग से हम जीना शुरू कर देते हैं, तो उस ढंग से विचारने की ओर भी जाते हैं। सही जीने का मॉडल वही व्यक्ति होगा जो सही को समझा होगा। सही जीने का मॉडल है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मॉडल का हम अनुकरण-अनुसरण करते हैं, उसके साथ शब्द को सुनते हैं, शब्द से अर्थ की ओर जाते हैं। अनुकरण-अनुसरण करना अध्ययन के लिए प्रेरणा है। अर्थ की ओर जाने पर उसके मूल में अस्तित्व में वस्तु से तदाकार होने का प्रवृत्ति जीवन में रहता ही है। तदाकार होने पर साक्षात्कार हो गया, बोध हो गया, अनुभव हो गया। अनुभव होने पर हम तद्रूप हो गए। तद्रूपता प्रमाण है।
प्रश्न: प्रमाण रूप में जीने का क्या अर्थ है?
उत्तर: प्रमाण रूप में जीना = हर मोड़-मुद्दे पर समाधानित जीना। श्रम पूर्वक अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना। शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति इन तीन के अलावा भौतिक वस्तुओं का और कहीं नियोजन ही नहीं है। मानवीयता विधि से भौतिक वस्तुओं के नियोजन की सीमा यही तक है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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