प्रश्न: मध्यस्थ दर्शन का आपका यह प्रस्ताव सुनने के बाद यह तो कहना नहीं बनता कि यह ठीक नहीं है, या हमको यह नहीं चाहिए. थोड़ा और आगे चलने के बाद इसकी भाषा को बोलना भी हमसे बन जाता है. फिर हममे यह बनता है कि जो मैं बोल रहा हूँ उसको मैं समझा हूँ या नहीं? जो मैं बोल रहा हूँ, वैसा मैं जीता हूँ या नहीं? यहाँ गाड़ी अटकी है!
उत्तर: समझा हूँ और जीता हूँ - इस जगह में आना है. जीता हूँ - तो वह ठोस हो गया! केवल बोलता हूँ, पर जीता नहीं हूँ - तो वह खोखला हो गया!
प्रश्न: लेकिन बोलना भी आवश्यक था, क्योंकि बिना बोले यह बात आगे नहीं जाती. न हम को सुनने को मिलती, न हमसे किसी को सुनने को मिलती.
उत्तर: जीना मूल बात है. कहने से भनक पड़ती है. भनक पड़ते-पड़ते ही तो आज यहाँ तक पहुंचे हैं. इससे लोगों में उत्साह जगा है, आशा जगा है - इसमें दो राय नहीं है. कुछ लोगों में अध्ययन करने की प्रवृत्ति हुई है - यहाँ आ चुके हैं. इसके बाद इस बात के लोकव्यापीकरण के लिए चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का संयुक्त सिलेबस बनाने की बात किये हैं. वह एक ऐतिहासिक काम होगा. इस तरह इस अनुसंधान की सूचना सब तक पहुंचेगी. सभी भाषाओँ में यह सूचना पहुंचेगी. इसमें इन्टरनेट और प्रचार माध्यमो का उपयोग भी होगा. सूचना प्रसारण का यह सारा कार्यक्रम अनुसन्धान के स्त्रोत और परिभाषा विधि से सम्बद्ध रहेगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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