(अध्ययन विधि से) अस्तित्व में वस्तु का साक्षात्कार होता है. सहअस्तित्व स्वरूप में सम्पूर्णता का और उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं का साक्षात्कार होता है. इस तरह चारों अवस्थाओं के साथ हमारे सम्बन्ध की पहचान और इनके अंतर्संबंधों की पहचान होती है. नियति विधि से "अंतर्संबंध" हैं, मानव के कार्य विधि से "सम्बन्ध" हैं. मानव कार्य विधि से चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को पहचानता है और प्रमाणित करता है. नियति विधि से पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, इसके शाश्वत अन्तर्सम्बन्धों की पहचान होती है. इन शाश्वत अंतर्संबंधों के आधार पर अपने आचरण को fit कर देना - इसी का नाम है उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशीलता.
अध्ययन विधि से यह पहचान क्रम से होता है. अनुक्रम से सम्पूर्णता समझ में आता है, अनुभव में आता है. अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ खनिज संसार, वनस्पति संसार, जीव संसार कैसा सम्बंधित है, एक दूसरे के साथ कैसा अनुप्राणित है. इन सबके साथ हम जुड़े हैं, सम्बंधित हैं - शरीर से और जीवन से. इन जुडी हुई कड़ियों को पहचानने की बात है. यही तो सम्बन्ध है, और कौनसा सम्बन्ध है? यह मार्मिक बात है. ऐसे सम्बन्ध पहचानने से मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन प्रमाणित होगा और मानव प्रकृति के साथ न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित होगा. फलस्वरूप मानव परम्परा संतुलित रहेगा. मानव अपराध मुक्त हो कर, अपना-पराया से मुक्त हो कर अच्छे ढंग से जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती को अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, फलस्वरूप शाश्वत रूप में मानव परम्परा के धरती पर रहने की सम्भावना बनेगी. सर्वशुभ का स्वरूप यही है. सर्वशुभ में स्वशुभ समाया है. सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को आज तक कोई प्रमाणित नहीं किया.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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