*व्यक्ति में पूर्णता -क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता*
मानवीयता में क्रियापूर्णता रहता ही है. अर्थात अनुभव सम्पन्नता (क्रिया पूर्णता) के उपरान्त समाधान पूर्वक जीना बनता ही है, न्याय पूर्वक जीना बनता ही है, नियंत्रण पूर्वक जीना बनता ही है, नियम पूर्वक जीना बनता ही है. इसके बाद शेष रहता है - अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जीना या "सत्य" स्वरूप में जीना. सत्य को लेकर बताया - सहअस्तित्व ही परम सत्य है. सहअस्तित्व सूत्र-व्याख्या में ही हम अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जी पाते हैं.
अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित न हो, ऐसे हम समाधान पूर्वक जी ही नहीं सकते. हमारा सम्पूर्ण समाधान अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित होगा और व्याख्यायित होगा. यह बहुत महत्त्वपूर्ण है.
प्रश्न: क्या आप ऐसा कह रहे हैं कि जब तक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था नहीं हो जाता तब तक व्यक्ति समाधान पूर्वक जी ही नहीं पायेगा?
उत्तर: नहीं! मैं कह रहा हूँ - व्यक्ति के समाधान पूर्वक जीने से वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र होगा, जिसकी व्याख्या होती रहेगी. इस तरह वो multiply होगा. हम समाधानित होने पर अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में ही जीते हैं. इसी लिए वह multiply होता है. यही मानवीयता है. मानवीयता पूर्वक जिए बिना multiply होने की बात ही नहीं है. दूसरे को हम समाधान पूर्वक जीने योग्य बनाते हैं तब हमने जीने दिया. इसके बिना हम जी ही नहीं सकते. समझने के बाद प्रमाणित होने का विधि यही है.
इस तरह एक व्यक्ति जागृत होता है तो वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था के लिए स्त्रोत बन जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सत्संग, २००५)
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