This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
सहअस्तित्व में जो व्यापक वस्तु है वह नित्य एक सा रहता है, सतत एक सा विद्यमान रहता है. उसमे कोई बदलाव होता नहीं है. आज ऐसे पारदर्शी-पारगामी है, कल दूसरी तरह पारदर्शी-पारगामी हो - उसमे ऐसा कुछ होता नहीं है. एक ही सा रहता है. व्यापक में भीगे रहने से प्रकृति की इकाइयों में एक ही सा आचरण करने की प्रेरणा होता है. इस आधार पर नियम यथावत रहता है.
"सहअस्तित्व में सब हैं" - यह बात अभी तक जो सोचा नहीं गया था, वह यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादित है. सहअस्तित्व में प्रत्येक एक अपने यथास्थिति में वैभव है. यह मुख्य बात है. यह समझ में आने पर मानव को भी अपने यथास्थिति में रहने की इच्छा बन जाती है. इच्छा बन जाती है तो एक दिन वह स्वयंस्फूर्त हो ही जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
ये दोनों मिलने पर समाज गति होगी. इससे कम में समाज गति नहीं होगी. इससे कम में समाज कुंठित होना ही है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य, तद्रूप, तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन है. ईष्ट के नाम, रूप, गुण, एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के अनुपात में सफल होती है." यह परंपरागत भक्ति से कैसे भिन्न है?
उत्तर: रहस्यवादी परम्परा में ईष्ट सेवन को रहस्य से जोड़ा है. परम्परा में रहस्यमयी देवी-देवताओं के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य को कहा है. यहाँ ईष्ट सेवन को जागृत व्यक्ति (देव मानव, दिव्य मानव) से जोड़ रहे हैं. पहले भक्ति का जो सूत्र रहा उसी को बता रहे हैं, पर यहाँ जागृत व्यक्ति के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य की बात कह रहे हैं. यह व्यवहारिक हो गया न? इसका उद्देश्य है भक्ति को पूर्णतया प्रमाणित करना.
यदि आपको यह स्वीकार होता है कि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब मेरे सान्निध्य से आपका उपकार होगा. दूसरे विधि से यदि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब उपकार कर पाऊंगा. इसमें क्या परेशानी है?
प्रश्न: आपके सान्निध्य में मेरा ध्यान वस्तु पर जाता है. तो तदाकार वस्तु के साथ है या जागृत व्यक्ति के साथ?
उत्तर: जागृत व्यक्ति के साथ सान्निध्य होता है, अस्तित्व में वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होता है.
परम्परागत भक्ति में देवी-देवता के आकार में स्वयम को डालो - ऐसा कहते रहे. देवी-देवता के साथ तद्रूप हो जाओ तब मुक्ति मिलेगा - ऐसा कहते रहे. यहाँ हम कह रहे हैं - सहअस्तित्व स्वरूपी वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होने से भ्रम-मुक्ति होगी. देवमानव, दिव्यमानव के सान्निध्य में तत्सान्निध्य की बात पूरा होता है. यही भ्रम-मुक्ति के लिए स्त्रोत है.
प्रश्न: अध्ययन हेतु सान्निध्य के लिए क्या हमेशा जागृत मानव के साथ रहना ज़रूरी है? जैसे आपसे मिल कर मैं अपने शहर वापस चला जाता हूँ तो क्या मेरा अध्ययन नहीं होगा?
उत्तर: सान्निध्य एक बार होने के बाद उसकी निरंतरता है. सान्निध्य उपरान्त आप अपने शहर वापस जाते हो, फिर हम जैसे फोन पर आगे बात करते हैं तो वह सान्निध्य के आधार पर ही आपको बोध होगा. एक बार सान्निध्य होने के बाद वह सदा स्मरण में बसा ही रहता है. अब कहाँ भागना है, भागो!!
स्मरण में बसने के बाद इसको झटकारा नहीं जा सकता. विरोध होने पर ही झटकारना बनता है. विरोध तब होता है जब हम आपको कोई बात नहीं समझा पाए, या हम आपको ऐसा कह दें कि आप नहीं समझोगे. इसीलिये जागृत व्यक्ति के पास "प्रश्न मुक्ति अभियान" बना रहता है.
इस तरह जागृत मानव के सान्निध्य में ज्ञानार्जन होता है. इसको अच्छे से सोच के देखो. मेरे पास जो समझ है उसको आप शोध करोगे तभी तो आप समझोगे, नहीं तो आप कैसे समझोगे? इससे कम में क्या अध्ययन हो पायेगा? मानव चेतना में नहीं पहुंचेंगे तो जीवचेतना रखा ही है, वहीं रहेंगे.
मानव परम्परा में हर मनुष्य में अनुभव होने का अधिकार समाया है. उसको प्रयोग अभी तक किया नहीं है. अनुभव के अध्ययनगम्य होने की विधि अभी तक इस धरती पर अवतरित नहीं हुई थी. अभी अवतरण के लिए हम प्रयत्न किये हैं. इसमें १०-२० व्यक्तियों के अनुभव संपन्न होने के सत्यापन होने पर हम संतुष्ट होंगे या नहीं होंगे? इसके लिए मैं प्रयत्न कर रहा हूँ या नहीं - आपके अनुसार? इसको उपकार कहा जाए या नहीं? यही उपकार है.
सहअस्तित्व में अनुभव ही तदाकार-तद्रूप विधि का आधार है. जाग्रति के पहले अध्ययन करते समय में तद्रूप जैसा हमे साक्षात्कार होता है. साक्षात्कार होने की जांच है प्रमाणित होना, अभिव्यक्त होना. प्रमाणित होने के लिए जैसे ही संकल्प हुआ अनुभव हो जाता है. वस्तु साक्षात्कार होते तक ही जो कुछ भी समय लगता है, वह लगता है. साक्षात्कार हुआ तो अनुभव होना ही है. चित्त में साक्षात्कार होने पर बुद्धि में बोध होना ही है, फलस्वरूप प्रमाणित होने का संकल्प होना ही है. जैसा ही संकल्पित हुआ, अनुभव होना ही है. सारा प्रयास साक्षात्कार पूरा होने तक ही है. क्या साक्षात्कार होना है? स्वयं में विश्वास का साक्षात्कार होना है. मैं समझा हूँ, इस बात पर मुझको ही विश्वास होना. उसके बाद समझा सकता हूँ, यह दृढ़ विश्वास होना. समझाने के क्रम में सामने व्यक्ति को बोध हुआ या नहीं - यह ज्ञान होता है. सामने व्यक्ति को बोध कराने में सफल हो गए तो अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो गए.
बोध होने पर, समझने पर प्रश्न मुक्ति हो जाती है. समझने के बाद जीना ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना बोध और अनुभव में तीनो समान हैं, व्यवहार में समान हैं, आचरण में समान हैं, व्यवस्था में जीने में समान हैं - उपकार में अंतर है. मानव चेतना में न्यूनतम उपकार प्रमाणित हुआ. देव मानव में उपकार अधिक हुआ. दिव्य मानव उपकार प्रवृत्ति में पूर्ण है. मानव चेतना और देव चेतना को "विश्राम" की स्थितियां कहा है. दिव्य चेतना को "पूर्ण विश्राम" की स्थिति कहा है. जब संसार से कुछ लेने का कामना ही न हो, संसार के साथ केवल उपकार ही करना हो - इसको "दिव्य मानव" नाम दिया जाए या नहीं दिया जाए?
-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
प्रश्न: आपने लिखा है - "सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति ही मूल्य मूलक विधि से जीने का प्रमाण है, जिसमे निरंतर सुख की सम्भावना दिखने लगती है." इसको समझाइये.
उत्तर: जैसे ही मैंने, एक व्यक्ति ने, अनुभव मूलक विधि से जीना शुरू किया तो (मानव परम्परा के) सुख पूर्वक जीने की सम्भावना उदय हो गयी. परिवार में जब इसको जीने में हम सफल हुए तो यह और सुदृढ़ हुआ. पूरा मानव जाति जब ऐसे जीने के लिए चल दिया तो अपने आप से अभयता तक पहुँच गया. यही क्रम है. मैं स्वयं इसको जिया हूँ.
जो हम स्वयं जियें, हमारे परिवार में सब वैसे जियें - ऐसा इच्छा होता ही है. परिवार जब जिए, अडोस पड़ोस भी वैसा जिए - ऐसा इच्छा होता ही है. अडोस-पड़ोस जब जिए तो पूरा गाँव-शहर ऐसा जिए - ऐसा इच्छा हो जाती है. यदि ऐसे जीना बन जाता है तो सारा धरती के मानव ऐसा जियें , यह इच्छा बन जाता है. अपने आप से यह फैलता है. अपेक्षा भी फैलता है, प्रभाव भी फैलता है.
हम जैसा भी जीते हैं उसका प्रभाव एक वातावरण बनाता ही है. मानव चेतना में जब हम जीते हैं तो वो जीव चेतना पर अपना प्रभाव डालता है. जिसके फलस्वरूप जीव चेतना में जीने वाले में भी मानव चेतना में जीने की इच्छा हो ही जाता है. इसी का नाम है प्रभाव! कितना सुगम है यह आप सोच लो! जीव चेतना में जीते हुए व्यक्ति को मानव चेतना में जीते हुए व्यक्ति से प्रेरणा मिलना शुरू होता है. एक दिन उसमे मानव चेतना को अपनाने की इच्छा हो ही जाता है. ऐसा चल रहे हैं हम.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
उत्तर: इसका आशय है - पदार्थावस्था में धनात्मक विधि से श्रम का नियोजन पूर्वक प्राणावस्था का प्रकटन है. किसी अवस्था में धनात्मक विधि से श्रम नियोजन पूर्वक ही अगली अवस्था का प्रकटन है. पूरकता के लिए श्रम नियोजन को "+ श्रम" कहा. यह नियति विधि है.
पदार्थावस्था में श्रम पूर्वक ही यौगिक विधि से रसायन संसार में परिवर्तन है. रसायन संसार में परिवर्तित होने से ही प्राणकोशाओं के रूप में प्राणावस्था की बुनियाद बनी. प्राणावस्था अपने यथास्थिति में कार्य करते समय में उत्सवित हो कर ही जीवावस्था के शरीरों की प्राणकोशाओं के स्वरूप में प्रकट हुआ. जीवावस्था के स्थापित होने के उपरान्त पुनः पूरकता के लिए श्रम नियोजन हुआ. प्राणकोशाओं में गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक ही मानव शरीर का प्रकटन हुआ. यह उन्नति क्यों हुई? ताकि जीवन अपनी जाग्रति को परंपरा में व्यक्त कर सके. अवस्थाओं में क्रमशः उन्नति मानव शरीर के प्रकटन के लक्ष्य से चला है.
प्रश्न: मानव में श्रम का क्या स्वरूप है? श्रम का क्षोभ क्या है?
उत्तर: आज हम जिस स्थिति में हैं, जैसा जी रहे हैं - उससे अधिक की हम अपेक्षा करते हैं, उसके लिए श्रम करते हैं, वह हमको नहीं मिलना ही "श्रम का क्षोभ" है, वह हमको मिलते रहना ही "श्रम का विश्राम" है.
श्रम पूर्वक आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने में तृप्ति, समाधान है. श्रम करने पर आवश्यकता से अधिक हो गया तो हम तृप्त हो गए. श्रम करने पर भी आवश्यकता पूरा नहीं हुआ, यह श्रम का क्षोभ है.
श्रम का क्षोभ ही विश्राम (समाधान) की तृषा है. यथास्थिति से अधिक की आवश्यकता का पूरा नहीं होने से जो रिक्तता है - वही अभाव या समस्या है. इस अभाव या समस्या की स्वीकृति ही श्रम का क्षोभ है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
सहअस्तित्व में अनुभव होने से न्याय पूर्वक प्रस्तुत होना बनता है.
न्याय व्यव्हार में ही स्पष्ट होता है.
समझा हुआ विधि से आचरण करने पर पता चलता है कि हम न्याय कर पाए या नहीं? जब हम न्याय में प्रमाणित हो जाते हैं तो यह भी समझ में आता है कि दूसरा व्यक्ति प्रमाणित हो रहा है या नहीं?
देखने की बात पहले स्वयं में है, उसके बाद संसार के साथ है.
हम यदि ठीक से प्रस्तुत होते हैं तो सामने वाला व्यक्ति ठीक से प्रस्तुत हो रहा है या नहीं - उसको भी मूल्यांकित करना हमसे बनता है. जब तक हम ठीक से प्रस्तुत नहीं होते, हमारे द्वारा सामने व्यक्ति का मूल्यांकन करना बनता नहीं है. यही मुख्य बात है. इसी आधार पर मनोबल बढ़ता है.
आस्वादन-चयन प्रक्रिया में संबंधों का चयन हम जो करते हैं, उसी में न्याय प्रतिष्ठित होता है. संबंधों को हम संबोधित करते ही हैं. हर सम्बन्ध में हम न्याय पूर्वक प्रकाशित हुए या नहीं? जब तक इसमें मजबूती न आ जाए, इसका शोध करते ही जाना. यदि हम अपने सभी संबंधों में पूरा पड़ गए तो हर सम्बन्ध किसी मानव के साथ ही है, वह कहाँ तक न्याय किया - यह मूल्यांकन करने का अधिकार भी हममे बन जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)