संसार में मानव परंपरा है. मानव परंपरा ज्ञान-अवस्था में है. इसके प्रमाण में मानव ने अपना भाषा विकसित किया. भाषा को ज्ञान के स्वरूप में ही माना. इस "ज्ञान" को फिर न्याय में लगाया. फिर रहस्यमयी स्वर्ग-नर्क में लगाया. इसमें काफी समय लगाया. इस से समाधान नहीं निकला, बल्कि समस्या निकला - और फिर विज्ञान का प्रकटन हुआ. विज्ञान धरती के साथ भक्कम अपराध करने में टूट पड़ा, जिससे धरती बीमार हो गयी. यहाँ तक हम पहुँच गए. अब क्या किया जाए? समझदारी से सोचा जाए! समझदारी से मानव का परिभाषा मिला - "मनाकार को साकार करने वाला और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला". यहाँ पता चला मनाकार को साकार करना तो प्रकारांतर से होता रहा है, पर मनः स्वस्थता का खाका वीरान पड़ा है. उसको भरा जाये! इसको भरने के लिए चेतना विकास - मूल्य शिक्षा बताया. जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठतर, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठतम. इन तीनो को अध्ययन कराने की व्यवस्था दे दी. चेतना विकसित होने पर मूल्यों का प्रकटन सहज होता है. जिससे धरती को अखंड राष्ट्र, सर्व मानव को एक जाति, एक धर्म स्वरूप में पहचानना बन जाता है. इस आधार पर सार्वभौम व्यवस्था होती है. सहअस्तित्व विधि से व्यवस्था ही होता है, शासन नहीं होता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)
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