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Wednesday, April 26, 2017

अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन का आधार

भय से मुक्ति हर मानव की आवश्यकता है.  हर मानव चाहता है कि भय न रहे.  हर मानव कहीं न कहीं चाहता है कि हम विश्वास पूर्वक जी सकें।  यह बात मानव में निहित है.  जब तक भय है तब तक अपने में विश्वास कहाँ है?  भय के स्थान पर मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जी सकता है.  इसको मैंने समझ लिया और जी लिया।  इसके बाद "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" को प्रस्तुत किया।  अस्तित्व तो था ही, मानव भी था ही - अस्तित्व में अनुभव पूर्वक मानव के जीने के सूत्र, सुख को अनुभव करने के सूत्र, समाधानित होने के सूत्र, समृद्ध होने के सूत्र, वर्तमान में विश्वास करने के सूत्र, सहअस्तित्व (सार्वभौम व्यवस्था) में जीने के सूत्र को हासिल कर लिया।  मानव ही इन सूत्रों की व्याख्या अपने जीने में करता है.  इस ढंग से वर्तमान में प्रमाणित होने के धरातल से अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन का आधार बना.

अस्तित्व एक ध्रुव है - जो मूल है, अस्तित्व में जागृति दूसरा ध्रुव है - जो फल है.  मूल भी सहअस्तित्व है, फल भी सहअस्तित्व है. अब यह जाँच सकते हैं, मानव क्या जागृति के अनुरूप जी रहा है या नहीं?  जीने के लिए तत्पर है या नहीं?

हर मानव अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के अध्ययन पूर्वक समाधानित होगा तथा अनुभवमूलक विधि से परिवार में समृद्धि, समाज में अभय और राष्ट्र में सहअस्तित्व (सार्वभौम व्यवस्था) को प्रमाणित करेगा।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९९)

Tuesday, April 25, 2017

ईश्वरवाद की समीक्षा

जिज्ञासा के लिए सबसे बाधक तत्व यदि कोई है तो वह है "भय".  ईश्वरवाद को हम जब तक ओढ़े रहेंगे तब तक हम भय से मुक्ति नहीं पाएंगे।  ईश्वरवाद का मतलब है - "ईश्वर सब कुछ करता है."  इस भ्रम को छोड़ देना चाहिए।  ईश्वर की ताकत से ही हम सब भरे हैं, जिसको उपयोग करके हम समाधानित हो सकते हैं, समृद्ध हो सकते हैं - इस ढंग से सोचने की आवश्यकता है.  यह सहअस्तित्ववादी विचार का मूल रूप है.

ईश्वरवादी विधि में सोचा गया - "ईश्वर ही सब कुछ करता है."  इससे मानव का कोई जिम्मेदारी ही नहीं रहा.  हर क्षण ईश्वर से डरते रहो, डर के ईश्वर से प्रार्थना करते रहो.  जो कुछ भी हो रहा है, उन्ही की मर्जी से हो रहा है - ऐसा मानो।  मर गए तो इसका मतलब है ईश्वर रूठ गए.  जी गए तो ईश्वर की कृपा रही.  ऐसी हम व्याख्या देने लगे.  इस तरह डर-भय में जीने वाली बात ईश्वरवाद से आयी.

आदर्शवादी विधि से असंख्य कथाएँ लिखित रूप में आ चुकी हैं.  नर्क के प्रति भय पैदा करना, स्वर्ग के प्रति प्रलोभन पैदा करना - इसी अर्थ में सारी आदर्शवादी कथायें लिखी गयी हैं.

आदर्शवाद मानव को ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचान नहीं पाया और मानव को भी एक जीव ही कहा.  जीव में स्वाभाविक रूप से भय की प्रवृत्ति होती है, ऐसा बताये।  भय से मुक्त होने के लिए 'आश्रय' की आवश्यकता होना बताया गया.  मूल आश्रय ईश्वर होना बताया गया.  ईश्वर ही सबके भय को दूर करने वाला है, उनकी कृपा होने की आवश्यकता है - ऐसे ले गए.  इसकी दो शाखाएं निकली - पहले ज्ञान ही एक मात्र बात थी, बाद में भक्ति को भी लोकमान्यता मिली।  भक्ति से भी भय से मुक्ति हो जाती है - ऐसी परिकल्पना दी गयी.  कौन भय से छुड़ायेगा?  इस प्रश्न के उत्तर में ईश्वर के स्थान पर देवी-देवता आ गए.  देवी-देवता को प्रमाणित करने वाला कोई नहीं है, किन्तु देवी-देवता से भय-मुक्ति हो जाएगा - ऐसा सबके मन में भरे.  भय को मानव की स्वाभाविक गति बताया गया.  

कोई भयभीत आदमी ईश्वर को वर करके भय मुक्त हो गया हो, ऐसा प्रमाण मिला नहीं।  न ही कोई व्यक्ति ऐसा घोषणा कर पाया कि मैं भय से मुक्त हो गया हूँ, भय मुक्त विधि से जी रहा हूँ.  जो अपने को भय से मुक्त हो गया मानते हैं, ऐसे "सिद्ध" कहलाने वाले भी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं - "हमको भय से मुक्ति कराओ, दरिद्रता से छुडाओ!"  और जो सिद्ध नहीं हुए हैं, उनको भी ऐसे ही प्रार्थना करना है!  फिर क्या फर्क पड़ा?

ईश्वर है तो वह वस्तु क्या है?  ईश्वर वस्तु (जो कोई वास्तविकता को व्यक्त करे) है या केवल शब्द या भाषा ही है?

ईश्वरवादी विधि में शब्द को प्रमाण माना, वस्तु को प्रमाण माना ही नहीं!  यह ऐसा ही है, जैसे मैं आपको कहूं आप गौण हैं, आपका नाम प्रधान है.  इस प्रकार की बातें आने से मानव और गुमराह हो गया.  मैं अपनी मूर्खता वश, या हठ वश, या परिस्थिति वश, या स्वविवेक वश, या नियति वश कहीं न कहीं इसको लांघ गया.  मैंने सोचा - यह तो कहीं गड़बड़ है, इसकी स्पष्ट रूपरेखा होना आवश्यक है.

ईश्वरवाद के अभ्यास, साधना, योग आदि उपक्रमों से मैं गुजरा हूँ.  मैंने यह निष्कर्ष निकाला - ये सारे उपक्रम, अभ्यास विधियों का उपयोग करना कोई अनुचित नहीं है यदि समझदारी को प्राप्त करना लक्ष्य हो तो.  यदि समझदारी लक्ष्य नहीं है, केवल पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, जप-तप आदि करने को ही समझदारी का प्रमाण बताना चाहेंगे तो वह सार्थक नहीं होगा।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९९)   

जीवन बल और शक्ति

Sunday, April 23, 2017

ध्यान देना होगा

प्रश्न:  ज्ञान यदि हमको "प्राप्त" ही है तो वह हमारे अनुभव में कैसे नहीं है, हम इसको प्रमाणित क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

उत्तर: "प्राप्त" को पहचान सके इसीलिये अध्ययन है.  प्राप्त ज्ञान में अनुभव करने के लिए अध्ययन को जोड़ दिया.  जो "है" - उसी का अध्ययन कर सकते हैं.  जो "है ही नहीं" - उसका कैसे अध्ययन करोगे?  अध्ययन की प्रक्रिया मानव परंपरा में उपलब्ध नहीं थी - उसको जोड़ दिया.

सत्ता में सम्पृक्तता (भीगे रहना) ही जीवन में ज्ञान के प्राप्त रहने का आधार  है.  जीवन को ज्ञान प्राप्त करने के लिए "प्रयत्न" नहीं करना पड़ता.  ज्ञान प्राप्त रहता ही है.  ज्ञान से संपन्न होने के लिए मानव को कोई प्रयत्न नहीं करना है.  प्राप्त ज्ञान को कार्य रूप में परिणित करने के लिए मानव को प्रयत्न करना होता है.  शरीर द्वारा ज्ञान को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करने के लिए पूरा अध्ययन है.  अध्ययन ही अभ्यास है, साधना है.

अध्ययन एक synchronization प्रोग्राम है, उसको प्रगट करना एक expansion प्रोग्राम है.  समझने में एक बिंदु तक पहुँचने की बात है.  Expansion अभिव्यक्ति में है.  समझने की विधि में expansion को लगाओगे तो कभी समझ नहीं आएगा.  इसी में रुका है.  अध्यवसायिक विधि में या intellectually रुकावट वहीं है.  नहीं तो अभी तक पार ही न पा जाते!  Synchronization की जगह Expansion को लगा देते हैं - यहीं रुका है.   आप अपना शोध करोगे तो यही पाओगे.  ७०० करोड़ आदमी अपने को शोध करें तो यही पायेंगे.  आप शोध ही नहीं करें तो हम नमन के अलावा क्या कर सकते हैं?

प्रश्न:  Synchronization की जगह Expansion में न जाएँ, इसके लिए हम क्या करें?

उत्तर:  ध्यान देना होगा.  अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है, अनुभव के बाद ध्यान बना रहता है.  मन लगाना ही ध्यान देना है.  मन लगेगा तो अध्ययन होगा, मन नहीं लगेगा तो अध्ययन नहीं होगा - किसी का भी!  जैसे - मेरा  अनुसंधान करने में मन लगा, तभी मैं अनुसंधान कर पाया.  मेरा मन नहीं लगता तो मैं कहाँ से अनुसंधान करता?  उसी तरह अध्ययन के लिए भी मन लगाना पड़ता है.  मैंने तीस वर्ष मन लगाया - आप तीस दिन तो मन को लगाओ!  आप तीन वर्ष तो मन को लगाओ! 

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अछोटी, जुलाई २०११)

Tuesday, April 18, 2017

भाषा की शैली

प्रश्न: आपकी भाषा शैली के बारे में कुछ बताइये.  हम दर्शन को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय किन बातों का ध्यान रखें?

भाषा अपने में स्वतन्त्र नहीं है, मानव द्वारा रचित शैली द्वारा नियंत्रित है.  शैली का एक आयाम है - कर्ता, कारण, कार्य, फल-परिणाम इनमे से किसको महत्त्व या प्राथमिकता देनी है उसको पहले रखना.
दर्शन में कारण को महत्त्व दिया है.  वाद में कर्ता को महत्त्व दिया है.  शास्त्र में कार्य को महत्त्व दिया है.  संविधान में फल-परिणाम को महत्त्व दिया है.

लिंग के आधार पर विभक्तियों को कम या समाप्त कर दिया.  इस प्रस्ताव को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय इस बात का ध्यान रहे.

प्रश्न:  शैली क्या समय के साथ बदलती है?

मूल वस्तु बदलता नहीं है, उसको बताने का तरीका समय के साथ बदल जाता है.

प्रश्न:  आपने अपनी समझ को बताने के लिए शब्दों का चुनाव कैसे किया?

उत्तर:  मैंने जब वस्तु को देखा तो उसको बताने के लिए नाम अपने आप से मुझ में आने लगा.  शब्द को मैंने बुलाया नहीं, शब्द अपने आप से आने लगा.  उसमें से एक शब्द को लगा दिया.

मैंने प्रयत्न पूर्वक इस दर्शन को व्यक्त किया, ऐसा नहीं है.  यह स्वाभाविक रूप में हुआ.  समझने के बाद सबको ऐसा ही होगा.  समझ के लिखा जाए तो लाभ होगा.

-श्री ए नागराज के साथ संवाद  पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Saturday, April 15, 2017

मानवीय शिक्षा के लिए एक विकल्पात्मक प्रस्ताव

मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के प्रणेता श्री ए नागराज (१९२०-२०१६) का लगभग १२ वर्षों का साथ मिला और उनसे एक आत्मीय सम्बन्ध बना, जिसे आज उनके सशरीर साथ न होने पर भी मैं उतना ही तरोताजा पाता हूँ.  उनके साथ संवाद क्रम में धीरे-धीरे मुझे यह स्पष्ट हुआ कि उनकी अनुसंधान पूर्वक प्राप्त उपलब्धि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मानवीयता की शिक्षा के लिए एक विकल्पात्मक प्रस्ताव है.  मैं स्वयं को अभी इस शिक्षा को ग्रहण करने के क्रम में ही पाता हूँ, और इसी विनम्रता से इस लेख को प्रस्तुत कर रहा हूँ. 

शिक्षा मानव की एक मौलिक आवश्यकता है.  मानव का सारा आचरण और कार्य-व्यवहार उसकी मानसिकता पर निर्भर है.  यह मानसिकता या विचार का स्वरूप वंशअनुषंगी नहीं है, बल्कि संस्कार अनुषंगी है.  एक मूर्ख की संतान बहुत विद्वान भी हो सकती है, और एक विद्वान की संतान मूर्ख भी हो सकती है. मानव जैसा समझा है, वैसा ही आचरण करता है.  इस तरह मानव जीवों से मौलिकतः  भिन्न है.  मानव जीवों जैसे आहार, निद्रा, भय, मैथुन की सीमा भर में न जिए, बल्कि मानव को जैसे जीना है वैसे जिए – उसके लिए उसको सीखना-समझना आवश्यक है, उसी के लिए  शिक्षा है.  मानव की भौतिक आवश्यकताएं तो हैं ही – जैसे रोटी, कपड़ा, मकान.  जिनको अर्जित करने के लिए उसको सीखने की आवश्यकता है.  उसको सुख, शान्ति, न्याय, विश्वास भी चाहिये, जिसके लिए उसको समझने की आवश्यकता है. 

शिक्षा मानव में, से, के लिए है.  मिटटी-पत्थर, पेड़ पौधे, जीव-जानवर को कुछ सीखने-समझने की आवश्यकता नहीं है, न वे कुछ सीखते-समझते हैं.  इनका आचरण यांत्रिक है और निश्चित है.  जीव जानवरों से मानव जो करवा लेता है, जैसे भालू से सर्कस में साईकिल चलवा लेना, वे उसको यांत्रिक रूप में ही करते हैं.  यांत्रिकता भर मानव के जीने में संतुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं है.  संवेदनशीलता यांत्रिकता से अधिक है, किन्तु संवेदनाओं की सीमा में भी मानव की संतुष्टि नहीं है.  संवेदनाओं को हमेशा राजी रखने के लिए सुविधा संग्रह आवश्यक है, सुविधा संग्रह के लिए संघर्ष आवश्यक है.  संघर्ष दुःख में ही अंत होता है.  संवेदनाओं का दमन करना या विरक्ति भी व्यवहारिक नहीं है. मानव की संतुष्टि ज्ञान को पाने और उसको अपने जीने में प्रमाणित करने से है.  संज्ञानीयता में ही संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं.  हर मानव में कल्पनाशीलता है, जिसके आधार पर वह सीख और समझ सकता है.  मानव मानव से ही सीखता और समझता है.  शिक्षा में कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है – पहला विद्यार्थी और दूसरा शिक्षक.  शिक्षक अनुभवमूलक विधि से समझाता है और अपने जीने में प्रमाणों को प्रस्तुत करता है.  विद्यार्थी अनुभवगामी पद्दति से समझता है.  प्रस्ताव की सूचना को निरीक्षण, परीक्षण और सर्वेक्षण करता है.  शिक्षक के अनुभव की रौशनी में विद्यार्थी स्मरण पूर्वक शब्द से अर्थ का क्रमशः साक्षात्कार करता है, जिससे सच्चाई के प्रति क्रमशः अवधारणा बनती जाती है.  इसके साथ वह जीने में कर्म-अभ्यास और व्यवहार-अभ्यास पूर्वक शिक्षक  का अनुकरण करता है.  शिक्षक से अपने प्रश्न, शंका और जिज्ञासा का तर्क सम्मत, प्रयोजन संगत और व्यवहारिक उत्तर प्राप्त करके संतुष्ट होता है, निष्कर्ष निकालता है और अपनी शिक्षा में आगे बढ़ता है.  साक्षात्कार की यह श्रंखला पूर्ण होने पर विद्यार्थी की कल्पनाशीलता अस्तित्व में तदाकार हो जाती है, या अस्तित्व-अनुरूप हो जाती है – जिसे अनुभवगामी बोध या अवधारणा कहते हैं.  अवधारणा होने पर प्रमाणित होने के संकल्प के साथ विद्यार्थी अनुभव संपन्न हो जाता है, फिर अनुभव ही जीवन में और जीने में प्रभावित हो जाता है.  इस तरह शिक्षा का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है.

शिक्षा परंपरा-विधि से होती है.  जिसमे पिछली पीढ़ी अगली पीढ़ी के लिए शिक्षा का स्त्रोत होती है. परंपरा में जिस बात का ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है, उस अज्ञात को ज्ञात करने के लिए तीव्र जिज्ञासा होने पर अनुसन्धान या प्रयोग करने की बात होती है.  शिक्षा कोई प्रयोग नहीं है.  शिक्षा एक पद्दति है.  प्रयोग में फल के प्रति अनिश्चितता रहती है.  पद्दति में फल के प्रति निश्चितता रहती है.  शिक्षा प्रमाण-सम्मत निष्कर्षों को प्रस्तुत करने के लिए है.  शिक्षक “प्रमाण” का आधार होता है.  जो वह समझाता है, उसको वह अनुभव किया रहता है और उसके अनुरूप वह स्वयं जीता है.  इससे प्रेरणा पा कर शिष्य अनुकरण पूर्वक सीखता है और समझता है.  बिना अनुकरण के कोई शिक्षा नहीं है.  शिक्षक का स्वायत्त होना नितांत आवश्यक है.  वेतनभोगिता विधि से या दान चंदे से स्वायत्तता की शिक्षा नहीं दी जा सकती. 

शिक्षा की वस्तु अस्तित्व समग्र है.  अस्तित्व – अर्थात जो कुछ भी है – उसको मानव समझना चाहता है.  वह क्यों है और कैसे है – इसके बारे में स्पष्ट होना चाहता है.  अस्तित्व को छोड़ के कुछ नहीं है.  अस्तित्व अपने में प्रयोजनशील है, व्यवस्था है - इसी लिए उसको समझा जा सकता है.  यदि अस्तित्व अव्यवस्था होता, या रहस्य होता – तो उसको कभी कोई समझ नहीं सकता था, और शिक्षा भी संभव नहीं होती.  अस्तित्व को समग्रता में सहअस्तित्व स्वरूप में दर्शन करना शिक्षा की पहली विषय वस्तु है.  अस्तित्व में ही मानव एक इकाई है.  मानव को स्वयं को भी समझना है, अपने प्रयोजन और लक्ष्य को समझना है, अपने क्रियाकलापों को समझना है.  मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है.  जीवन चैतन्य है, अपने में एक गठनपूर्ण परमाणु है.  शरीर एक भौतिक रासायनिक रचना है.  जीवन के स्वरूप को अपने आप में पहचान लेना, या जीवन ज्ञान कर लेना शिक्षा की दूसरी विषय वस्तु है.  मानव के व्यवस्था में निश्चित आचरण के स्वरूप को मूल्य (संबंधों में न्याय), चरित्र (स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य व्यव्हार), नैतिकता (तन मन धन रुपी अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा) के रूप में समझना – शिक्षा की तीसरी विषय वस्तु है.  इस तरह मध्यस्थ दर्शन में ज्ञान को तीन भागों में पहचाना गया – (१) सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, (२) जीवन ज्ञान, (३) मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान.  इसी के साथ है कार्य ज्ञान या तकनीकी -  जो मानव उपयोगी वस्तुओं को बनाना, संवारना, चलाना सीखने के लिए है. 

शिक्षा का उद्देश्य है हर मानव को मानवीयता पूर्वक जीने के योग्य बनाना.  हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  शिक्षा का दायित्व है – हर विद्यार्थी में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करना, सही कार्य व्यव्हार करने के योग्य बनाना और सत्य बोध संपन्न बनाना.  इनके संयुक्त स्वरूप का नाम है – शिष्टता.  शिक्षा से विद्यार्थी में शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय होता है.  मानव लक्ष्य है – समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व.  शिक्षा से समझदारी.  समझदारी से सर्वतोमुखी समाधान.  समाधान संपन्न परिवार में श्रम से समृद्धि.  समाधान-समृद्धि संपन्न परिवारों के जीने से समाज में अभयता.  और ऐसे अखंड समाज के आधार पर सम्पूर्ण धरती को एक अखंड राष्ट्र के रूप में पहचान पाना बनता है.  जिससे सार्वभौम व्यवस्था स्थापित होती है.  इस तरह धरती पर जागृति और उसकी निरंतरता की परंपरा स्थापित होने के लिए शिक्षा ही दायी है. 

ध्यस्थ दर्शन के आधार पर शिक्षा की उपरोक्त व्याख्या के आधार पर यदि वर्तमान स्थिति और मानव के इतिहास की समीक्षा करें तो यही निकलता है कि “मानवजाति आदिकाल से अभी तक शिक्षा से वंचित रहा है”.  शिक्षा के लिए मानव अभी भी प्रयोग ही कर रहा है.  शिक्षा की पद्दति को नहीं पाया है.  अस्तित्व को व्यवस्था के रूप में समझाने हेतु, जीवन को समझाने हेतु और मानव के निश्चित आचरण का प्रमाण सम्मत अध्ययन कराने हेतु निष्कर्षात्मक अवधारणाओं को देने में अभी तक सफल नहीं हो पाया है.  मानव के इतिहास में अब तक दो विचारधाराएं आयीं हैं – आदर्शवाद  (ईश्वर केन्द्रित चिंतन) और भौतिकवाद (भौतिक-रासायनिक वस्तु केन्द्रित चिंतन).  इन दोनों विचारधाराओं के आधार पर शिक्षा में प्रयोग हुए हैं.  वर्तमान में भौतिकवादी शिक्षा जिसे वैज्ञानिक शिक्षा या आधुनिक शिक्षा भी कहा जाता है – सभी देशों में प्रचलित है.  भौतिकवादी शिक्षा के मूल में है – कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र, और लाभोंमादी अर्थशास्त्र.  जिसके चलते काम, भोग और लाभ का उन्माद सभी पर चढ़ा है.  फलस्वरूप धरती पर धरती का ताप बढ़ गया, पर्यावरण असंतुलन हो गया, प्रदूषण छा गया और मानव-मानव के बीच व्यक्तिवाद और समुदायवाद की अनेक दीवारें बन गयी.  मानव के धरती पर बने रहने पर अब प्रश्नचिन्ह लग चुका है.  मध्यस्थ दर्शन आदर्शवाद और भौतिकवाद के विकल्प के रूप में शिक्षा के लिए प्रस्तावित है.  यह दर्शन भारत से अवश्य आया है, किन्तु यह बौद्ध विचार या वैदिक विचार पर आधारित नहीं है.  न ही यह किसी पाश्चात्य दर्शन पर आधारित है.  इसका आधार श्री ए नागराज द्वारा सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में अनुभव है.  यह विकल्प स्वरूप में मानव जाति को समर्पित है.  मानव जाति इसको शुद्ध रूप में अपना कर ही अपना स्वत्व बना सकता है. 

मानव जाति को निष्कर्षात्मक और समग्र शिक्षा की आवश्यकता है.  इसके लिए शिक्षा का मानवीयकरण आवश्यक है.  विखंडनवादी सोच के चलते अभी शिक्षा भी विशेषज्ञता के अनेक खण्डों में बंट गयी है और व्यापार के लिए बिक गयी है.  वर्तमान में पढाये जाने वाले प्रत्येक विषय को समग्रता से सम्बद्ध करने के लिए – (१) विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  (२) मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  (३) दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है. (४) अर्थशास्त्र के साथ प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य की सदुपयोगात्मक और सुरक्षात्मक नीति पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  (५) राज्यनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षणात्मक और संवर्धनात्मक नीति पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  (६) समाजशास्त्र  के साथ मानवीय संस्कृति व सभ्यता पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  (७) भूगोल और इतिहास के साथ मानव और मानवीयता का अध्ययन अनिवार्य है.  (८) साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है.  समग्र शिक्षा के तीन आयाम होंगे – (१) चेतना विकास, (२) मूल्य शिक्षा, (३) तकनीकी.  यही “शिक्षा के मानवीयकरण” का अभिप्राय है. 

उपसंहार
अस्तित्व प्रयोजनशील है और अपने में व्यवस्था है.  मानव अस्तित्व का अंगभूत है, और ज्ञानावस्था की इकाई है.  मानव के पास कल्पनाशीलता है, जिसके आधार पर वह अपने इतिहास में अस्तित्व को सटीक समझने का प्रयास करता रहा है, जिस क्रम में दो विचारधाराएं आयी – आदर्शवाद और भौतिकवाद.  इन दोनों के आधार पर शिक्षा में प्रयोग हुए, किन्तु उससे सर्वमानव की संतुष्टि का मार्ग नहीं निकला.  उल्टे इससे धरती ही बीमार हो गयी, समुदायों में अपने-पराये की दीवारें बढ़ गयी, अपराध और युद्ध बढ़ता चला गया.  मध्यस्थ दर्शन – सहअस्तित्ववाद इन दोनों विचारधाराओं के विकल्प स्वरूप में शिक्षा के लिए एक प्रस्ताव है.  यह शिक्षा में प्रयोग नहीं है, बल्कि एक निष्कर्षात्मक अनुभवगामी पद्दति है.  मानवजाति द्वारा इसको अपनाना आवश्यक ही नहीं सौभाग्य है. 

-    राकेश गुप्ता, बैंगलोर (१५ अप्रैल २०१७



Thursday, April 13, 2017

रोटी, बेटी, राज्य और धर्म

मानव जाति अनेक समुदायों में अभी बँट गया है.  इन समुदायों का एक दूसरे के साथ कोई तालमेल नहीं है.  सबका अपने ढंग का नाच-गाना, अपने ढंग का पहनावा, अपने ढंग का रहन-सहन, अपने ढंग का खान-पान.

अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था के लिए रोटी, बेटी, राज्य और धर्म में एकता होना जरूरी है.  अभी मानव इस जगह में नहीं है.  इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है.  चेतना विकास - मूल्य शिक्षा इसको जोड़ता है.  

रोटी-बेटी में एकता होने पर हम अखंड-समाज का अनुभव करते हैं.  

प्रश्न:  "रोटी-बेटी में एकता" का क्या अर्थ है?

उत्तर:  "रोटी में एकता" का मतलब है - हम सब मानव साथ में एक प्रकार के आहार को खा सकें।  आज की स्थिति में सबकी रोटी (आहार) अलग अलग है.  रोटी में एकता के लिए मानव को अपनी आहार पद्दति को तय करना होगा।  ऐसा आहार शाकाहार ही हो सकता है.  "बेटी में एकता" का मतलब है - हम किसी भी परिवार में विवाह सम्बन्ध तय कर सकें।  ऐसा हुए बिना "अखंड समाज" हुआ - कैसे माना जाए?  रोटी-बेटी संस्कृति-सभ्यता से जुड़ी बात है.

प्रश्न: राज्य और धर्म में एकता होने का क्या अर्थ है?

उत्तर: राज्य नीति  (तन मन धन रुपी अर्थ की सुरक्षा) और धर्म नीति (तन मन धन रुपी अर्थ का सदुपयोग) विधि (क़ानून) और व्यवस्था से जुड़ी हैं.  राज्य और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं.  राज्य के बिना धर्म और धर्म के बिना राज्य नहीं हो सकता।  

अभी हर राष्ट्र अपनी सीमा के अंतर्गत अपनी-अपनी विधि और व्यवस्था की बात करता है.  भारत भी करता है.  नेपाल भी करता है.  हर राष्ट्र विखंडित होता गया है.  एकता को लेकर काम ही नहीं किया।  अभी ऐसा सोचते हैं - विखंडित करने से हम ज्यादा प्रगति करते हैं.  सार्वभौम व्यवस्था के लिए धरती को एक "अखंड राष्ट्र" के रूप में पहचानना होगा। 

सार्वभौम व्यवस्था (अखंड राष्ट्र) स्वरूप में राज्य के पहुँचने के लिए "अखंड समाज" होना बहुत आवश्यक है.  अखंड समाज के बिना सार्वभौम व्यवस्था होगा नहीं।

प्रश्न: हमारी इस विखंडनवादी सोच से तो "अखंड समाज" भी कैसे बनेगा?  फिर रास्ता क्या है?

उत्तर:  विखंडनवादी सोच ही संयुक्त परिवार से एकल परिवार (nuclear family) की ओर ले गया.  मियाँ-बीवी  राजी रहें - इतने से अखंड समाज होता हो तो कर लो!  अखंड समाज सर्वमानव के साथ होता है.  उसके लिए एकल परिवार में जीना क्या पर्याप्त होगा?  

अखंड समाज के लिए सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में संबंधों को पहचानना होगा।  सभी मानव सम्बन्धी हैं.  कम से कम मित्र सम्बन्ध सबके साथ है.  सम्बन्ध के आधार पर पहचान और मूल्यों का निर्वाह।  मूल्यों का निर्वाह ही निष्ठा है.  पहले परिवार में व्यवस्था और परिवार में न्याय।  उससे पहले मानव में स्वयं में विश्वास।  समझदार होने, समाधान संपन्न होने, समृद्धि को प्रमाणित करने योग्य होने - ये तीनों के जुड़ने से स्वयं में विश्वास होता है.  

इसका रास्ता शिक्षा है.  हर स्नातक को इन तीनों के योग्य बनाना हम चाह रहे हैं.  समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से ही मानवों में एक दूसरे के भय से मुक्ति की बात होती है.  यह अभयता ही अखंड समाज का स्वरूप है.  

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)