जिज्ञासा के लिए सबसे बाधक तत्व यदि कोई है तो वह है "भय". ईश्वरवाद को हम जब तक ओढ़े रहेंगे तब तक हम भय से मुक्ति नहीं पाएंगे। ईश्वरवाद का मतलब है - "ईश्वर सब कुछ करता है." इस भ्रम को छोड़ देना चाहिए। ईश्वर की ताकत से ही हम सब भरे हैं, जिसको उपयोग करके हम समाधानित हो सकते हैं, समृद्ध हो सकते हैं - इस ढंग से सोचने की आवश्यकता है. यह सहअस्तित्ववादी विचार का मूल रूप है.
ईश्वरवादी विधि में सोचा गया - "ईश्वर ही सब कुछ करता है." इससे मानव का कोई जिम्मेदारी ही नहीं रहा. हर क्षण ईश्वर से डरते रहो, डर के ईश्वर से प्रार्थना करते रहो. जो कुछ भी हो रहा है, उन्ही की मर्जी से हो रहा है - ऐसा मानो। मर गए तो इसका मतलब है ईश्वर रूठ गए. जी गए तो ईश्वर की कृपा रही. ऐसी हम व्याख्या देने लगे. इस तरह डर-भय में जीने वाली बात ईश्वरवाद से आयी.
आदर्शवादी विधि से असंख्य कथाएँ लिखित रूप में आ चुकी हैं. नर्क के प्रति भय पैदा करना, स्वर्ग के प्रति प्रलोभन पैदा करना - इसी अर्थ में सारी आदर्शवादी कथायें लिखी गयी हैं.
आदर्शवाद मानव को ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचान नहीं पाया और मानव को भी एक जीव ही कहा. जीव में स्वाभाविक रूप से भय की प्रवृत्ति होती है, ऐसा बताये। भय से मुक्त होने के लिए 'आश्रय' की आवश्यकता होना बताया गया. मूल आश्रय ईश्वर होना बताया गया. ईश्वर ही सबके भय को दूर करने वाला है, उनकी कृपा होने की आवश्यकता है - ऐसे ले गए. इसकी दो शाखाएं निकली - पहले ज्ञान ही एक मात्र बात थी, बाद में भक्ति को भी लोकमान्यता मिली। भक्ति से भी भय से मुक्ति हो जाती है - ऐसी परिकल्पना दी गयी. कौन भय से छुड़ायेगा? इस प्रश्न के उत्तर में ईश्वर के स्थान पर देवी-देवता आ गए. देवी-देवता को प्रमाणित करने वाला कोई नहीं है, किन्तु देवी-देवता से भय-मुक्ति हो जाएगा - ऐसा सबके मन में भरे. भय को मानव की स्वाभाविक गति बताया गया.
कोई भयभीत आदमी ईश्वर को वर करके भय मुक्त हो गया हो, ऐसा प्रमाण मिला नहीं। न ही कोई व्यक्ति ऐसा घोषणा कर पाया कि मैं भय से मुक्त हो गया हूँ, भय मुक्त विधि से जी रहा हूँ. जो अपने को भय से मुक्त हो गया मानते हैं, ऐसे "सिद्ध" कहलाने वाले भी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं - "हमको भय से मुक्ति कराओ, दरिद्रता से छुडाओ!" और जो सिद्ध नहीं हुए हैं, उनको भी ऐसे ही प्रार्थना करना है! फिर क्या फर्क पड़ा?
ईश्वर है तो वह वस्तु क्या है? ईश्वर वस्तु (जो कोई वास्तविकता को व्यक्त करे) है या केवल शब्द या भाषा ही है?
ईश्वरवादी विधि में शब्द को प्रमाण माना, वस्तु को प्रमाण माना ही नहीं! यह ऐसा ही है, जैसे मैं आपको कहूं आप गौण हैं, आपका नाम प्रधान है. इस प्रकार की बातें आने से मानव और गुमराह हो गया. मैं अपनी मूर्खता वश, या हठ वश, या परिस्थिति वश, या स्वविवेक वश, या नियति वश कहीं न कहीं इसको लांघ गया. मैंने सोचा - यह तो कहीं गड़बड़ है, इसकी स्पष्ट रूपरेखा होना आवश्यक है.
ईश्वरवाद के अभ्यास, साधना, योग आदि उपक्रमों से मैं गुजरा हूँ. मैंने यह निष्कर्ष निकाला - ये सारे उपक्रम, अभ्यास विधियों का उपयोग करना कोई अनुचित नहीं है यदि समझदारी को प्राप्त करना लक्ष्य हो तो. यदि समझदारी लक्ष्य नहीं है, केवल पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, जप-तप आदि करने को ही समझदारी का प्रमाण बताना चाहेंगे तो वह सार्थक नहीं होगा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९९)
ईश्वरवादी विधि में सोचा गया - "ईश्वर ही सब कुछ करता है." इससे मानव का कोई जिम्मेदारी ही नहीं रहा. हर क्षण ईश्वर से डरते रहो, डर के ईश्वर से प्रार्थना करते रहो. जो कुछ भी हो रहा है, उन्ही की मर्जी से हो रहा है - ऐसा मानो। मर गए तो इसका मतलब है ईश्वर रूठ गए. जी गए तो ईश्वर की कृपा रही. ऐसी हम व्याख्या देने लगे. इस तरह डर-भय में जीने वाली बात ईश्वरवाद से आयी.
आदर्शवादी विधि से असंख्य कथाएँ लिखित रूप में आ चुकी हैं. नर्क के प्रति भय पैदा करना, स्वर्ग के प्रति प्रलोभन पैदा करना - इसी अर्थ में सारी आदर्शवादी कथायें लिखी गयी हैं.
आदर्शवाद मानव को ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचान नहीं पाया और मानव को भी एक जीव ही कहा. जीव में स्वाभाविक रूप से भय की प्रवृत्ति होती है, ऐसा बताये। भय से मुक्त होने के लिए 'आश्रय' की आवश्यकता होना बताया गया. मूल आश्रय ईश्वर होना बताया गया. ईश्वर ही सबके भय को दूर करने वाला है, उनकी कृपा होने की आवश्यकता है - ऐसे ले गए. इसकी दो शाखाएं निकली - पहले ज्ञान ही एक मात्र बात थी, बाद में भक्ति को भी लोकमान्यता मिली। भक्ति से भी भय से मुक्ति हो जाती है - ऐसी परिकल्पना दी गयी. कौन भय से छुड़ायेगा? इस प्रश्न के उत्तर में ईश्वर के स्थान पर देवी-देवता आ गए. देवी-देवता को प्रमाणित करने वाला कोई नहीं है, किन्तु देवी-देवता से भय-मुक्ति हो जाएगा - ऐसा सबके मन में भरे. भय को मानव की स्वाभाविक गति बताया गया.
कोई भयभीत आदमी ईश्वर को वर करके भय मुक्त हो गया हो, ऐसा प्रमाण मिला नहीं। न ही कोई व्यक्ति ऐसा घोषणा कर पाया कि मैं भय से मुक्त हो गया हूँ, भय मुक्त विधि से जी रहा हूँ. जो अपने को भय से मुक्त हो गया मानते हैं, ऐसे "सिद्ध" कहलाने वाले भी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं - "हमको भय से मुक्ति कराओ, दरिद्रता से छुडाओ!" और जो सिद्ध नहीं हुए हैं, उनको भी ऐसे ही प्रार्थना करना है! फिर क्या फर्क पड़ा?
ईश्वर है तो वह वस्तु क्या है? ईश्वर वस्तु (जो कोई वास्तविकता को व्यक्त करे) है या केवल शब्द या भाषा ही है?
ईश्वरवादी विधि में शब्द को प्रमाण माना, वस्तु को प्रमाण माना ही नहीं! यह ऐसा ही है, जैसे मैं आपको कहूं आप गौण हैं, आपका नाम प्रधान है. इस प्रकार की बातें आने से मानव और गुमराह हो गया. मैं अपनी मूर्खता वश, या हठ वश, या परिस्थिति वश, या स्वविवेक वश, या नियति वश कहीं न कहीं इसको लांघ गया. मैंने सोचा - यह तो कहीं गड़बड़ है, इसकी स्पष्ट रूपरेखा होना आवश्यक है.
ईश्वरवाद के अभ्यास, साधना, योग आदि उपक्रमों से मैं गुजरा हूँ. मैंने यह निष्कर्ष निकाला - ये सारे उपक्रम, अभ्यास विधियों का उपयोग करना कोई अनुचित नहीं है यदि समझदारी को प्राप्त करना लक्ष्य हो तो. यदि समझदारी लक्ष्य नहीं है, केवल पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, जप-तप आदि करने को ही समझदारी का प्रमाण बताना चाहेंगे तो वह सार्थक नहीं होगा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी १९९९)
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