मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के प्रणेता श्री ए नागराज (१९२०-२०१६) का लगभग १२
वर्षों का साथ मिला और उनसे एक आत्मीय सम्बन्ध बना, जिसे आज उनके सशरीर साथ न होने पर भी
मैं उतना ही तरोताजा पाता हूँ. उनके साथ
संवाद क्रम में धीरे-धीरे मुझे यह स्पष्ट हुआ कि उनकी अनुसंधान पूर्वक प्राप्त
उपलब्धि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मानवीयता की शिक्षा के लिए एक विकल्पात्मक प्रस्ताव
है. मैं स्वयं को अभी इस शिक्षा को ग्रहण
करने के क्रम में ही पाता हूँ, और इसी विनम्रता से इस लेख को प्रस्तुत कर रहा
हूँ.
शिक्षा मानव की एक मौलिक
आवश्यकता है. मानव का सारा आचरण और कार्य-व्यवहार उसकी
मानसिकता पर निर्भर है. यह मानसिकता या
विचार का स्वरूप वंशअनुषंगी नहीं है, बल्कि संस्कार अनुषंगी है. एक मूर्ख की संतान बहुत विद्वान भी हो सकती है,
और एक विद्वान की संतान मूर्ख भी हो सकती है. मानव जैसा समझा है, वैसा ही आचरण
करता है. इस तरह मानव जीवों से
मौलिकतः भिन्न है. मानव जीवों जैसे आहार, निद्रा, भय, मैथुन की
सीमा भर में न जिए, बल्कि मानव को जैसे जीना है वैसे जिए – उसके लिए उसको सीखना-समझना
आवश्यक है, उसी के लिए शिक्षा है. मानव की भौतिक आवश्यकताएं तो हैं ही – जैसे
रोटी, कपड़ा, मकान. जिनको अर्जित करने के
लिए उसको सीखने की आवश्यकता है. उसको सुख,
शान्ति, न्याय, विश्वास भी चाहिये, जिसके लिए उसको समझने की आवश्यकता है.
शिक्षा मानव में, से, के
लिए है.
मिटटी-पत्थर, पेड़ पौधे, जीव-जानवर को कुछ सीखने-समझने की आवश्यकता नहीं है,
न वे कुछ सीखते-समझते हैं. इनका आचरण
यांत्रिक है और निश्चित है. जीव जानवरों से
मानव जो करवा लेता है, जैसे भालू से सर्कस में साईकिल चलवा लेना, वे उसको यांत्रिक
रूप में ही करते हैं. यांत्रिकता भर मानव
के जीने में संतुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं है.
संवेदनशीलता यांत्रिकता से अधिक है, किन्तु संवेदनाओं की सीमा में भी मानव
की संतुष्टि नहीं है. संवेदनाओं को हमेशा
राजी रखने के लिए सुविधा संग्रह आवश्यक है, सुविधा संग्रह के लिए संघर्ष आवश्यक
है. संघर्ष दुःख में ही अंत होता है. संवेदनाओं का दमन करना या विरक्ति भी व्यवहारिक
नहीं है. मानव की संतुष्टि ज्ञान को पाने और उसको अपने जीने में प्रमाणित करने से
है. संज्ञानीयता में ही संवेदनाएं
नियंत्रित रहती हैं. हर मानव में
कल्पनाशीलता है, जिसके आधार पर वह सीख और समझ सकता है. मानव मानव से ही सीखता और समझता है. शिक्षा में कम से कम दो व्यक्तियों का होना
आवश्यक है – पहला विद्यार्थी और दूसरा शिक्षक.
शिक्षक अनुभवमूलक विधि से समझाता है और अपने जीने में प्रमाणों को प्रस्तुत
करता है. विद्यार्थी अनुभवगामी पद्दति से
समझता है. प्रस्ताव की सूचना को निरीक्षण,
परीक्षण और सर्वेक्षण करता है. शिक्षक के
अनुभव की रौशनी में विद्यार्थी स्मरण पूर्वक शब्द से अर्थ का क्रमशः साक्षात्कार
करता है, जिससे सच्चाई के प्रति क्रमशः अवधारणा बनती जाती है. इसके साथ वह जीने में कर्म-अभ्यास और
व्यवहार-अभ्यास पूर्वक शिक्षक का अनुकरण
करता है. शिक्षक से अपने प्रश्न, शंका और
जिज्ञासा का तर्क सम्मत, प्रयोजन संगत और व्यवहारिक उत्तर प्राप्त करके संतुष्ट
होता है, निष्कर्ष निकालता है और अपनी शिक्षा में आगे बढ़ता है. साक्षात्कार की यह श्रंखला पूर्ण होने पर
विद्यार्थी की कल्पनाशीलता अस्तित्व में तदाकार हो जाती है, या अस्तित्व-अनुरूप हो
जाती है – जिसे अनुभवगामी बोध या अवधारणा कहते हैं. अवधारणा होने पर प्रमाणित होने के संकल्प के
साथ विद्यार्थी अनुभव संपन्न हो जाता है, फिर अनुभव ही जीवन में और जीने में
प्रभावित हो जाता है. इस तरह शिक्षा का
प्रयोजन सिद्ध हो जाता है.
शिक्षा परंपरा-विधि से होती
है. जिसमे
पिछली पीढ़ी अगली पीढ़ी के लिए शिक्षा का स्त्रोत होती है. परंपरा में जिस बात का
ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है, उस अज्ञात को ज्ञात करने के लिए तीव्र जिज्ञासा होने
पर अनुसन्धान या प्रयोग करने की बात होती है.
शिक्षा कोई प्रयोग नहीं है. शिक्षा
एक पद्दति है. प्रयोग में फल के प्रति
अनिश्चितता रहती है. पद्दति में फल के
प्रति निश्चितता रहती है. शिक्षा
प्रमाण-सम्मत निष्कर्षों को प्रस्तुत करने के लिए है. शिक्षक “प्रमाण” का आधार होता है. जो वह समझाता है, उसको वह अनुभव किया रहता है
और उसके अनुरूप वह स्वयं जीता है. इससे
प्रेरणा पा कर शिष्य अनुकरण पूर्वक सीखता है और समझता है. बिना अनुकरण के कोई शिक्षा नहीं है. शिक्षक का स्वायत्त होना नितांत आवश्यक
है. वेतनभोगिता विधि से या दान चंदे से
स्वायत्तता की शिक्षा नहीं दी जा सकती.
शिक्षा की वस्तु अस्तित्व
समग्र है. अस्तित्व – अर्थात जो कुछ भी है – उसको मानव
समझना चाहता है. वह क्यों है और कैसे है –
इसके बारे में स्पष्ट होना चाहता है.
अस्तित्व को छोड़ के कुछ नहीं है.
अस्तित्व अपने में प्रयोजनशील है, व्यवस्था है - इसी लिए उसको समझा जा सकता
है. यदि अस्तित्व अव्यवस्था होता, या
रहस्य होता – तो उसको कभी कोई समझ नहीं सकता था, और शिक्षा भी संभव नहीं
होती. अस्तित्व को समग्रता में सहअस्तित्व
स्वरूप में दर्शन करना शिक्षा की पहली विषय वस्तु है. अस्तित्व में ही मानव एक इकाई है. मानव को स्वयं को भी समझना है, अपने प्रयोजन और
लक्ष्य को समझना है, अपने क्रियाकलापों को समझना है. मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. जीवन चैतन्य है, अपने में एक गठनपूर्ण परमाणु
है. शरीर एक भौतिक रासायनिक रचना है. जीवन के स्वरूप को अपने आप में पहचान लेना, या
जीवन ज्ञान कर लेना शिक्षा की दूसरी विषय वस्तु है. मानव के व्यवस्था में निश्चित आचरण के स्वरूप
को मूल्य (संबंधों में न्याय), चरित्र (स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य
व्यव्हार), नैतिकता (तन मन धन रुपी अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा) के रूप में समझना –
शिक्षा की तीसरी विषय वस्तु है. इस तरह
मध्यस्थ दर्शन में ज्ञान को तीन भागों में पहचाना गया – (१) सहअस्तित्व दर्शन
ज्ञान, (२) जीवन ज्ञान, (३) मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इसी के साथ है कार्य ज्ञान या तकनीकी - जो मानव उपयोगी वस्तुओं को बनाना, संवारना,
चलाना सीखने के लिए है.
शिक्षा का उद्देश्य है हर मानव
को मानवीयता पूर्वक जीने के योग्य बनाना. हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य व्यवहार
करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.
शिक्षा का दायित्व है – हर विद्यार्थी में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित
करना, सही कार्य व्यव्हार करने के योग्य बनाना और सत्य बोध संपन्न बनाना. इनके संयुक्त स्वरूप का नाम है – शिष्टता. शिक्षा से विद्यार्थी में शिष्टता पूर्ण दृष्टि
का उदय होता है. मानव लक्ष्य है – समाधान,
समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व. शिक्षा से
समझदारी. समझदारी से सर्वतोमुखी
समाधान. समाधान संपन्न परिवार में श्रम से
समृद्धि. समाधान-समृद्धि संपन्न परिवारों
के जीने से समाज में अभयता. और ऐसे अखंड
समाज के आधार पर सम्पूर्ण धरती को एक अखंड राष्ट्र के रूप में पहचान पाना बनता
है. जिससे सार्वभौम व्यवस्था स्थापित होती
है. इस तरह धरती पर जागृति और उसकी
निरंतरता की परंपरा स्थापित होने के लिए शिक्षा ही दायी है.
मध्यस्थ दर्शन के आधार पर
शिक्षा की उपरोक्त व्याख्या के आधार पर यदि वर्तमान स्थिति और मानव के इतिहास की
समीक्षा करें तो यही निकलता है कि “मानवजाति आदिकाल से अभी तक शिक्षा से वंचित रहा
है”. शिक्षा के लिए मानव अभी भी प्रयोग ही
कर रहा है. शिक्षा की पद्दति को नहीं पाया
है. अस्तित्व को व्यवस्था के रूप में
समझाने हेतु, जीवन को समझाने हेतु और मानव के निश्चित आचरण का प्रमाण सम्मत अध्ययन
कराने हेतु निष्कर्षात्मक अवधारणाओं को देने में अभी तक सफल नहीं हो पाया है. मानव के इतिहास में अब तक दो विचारधाराएं आयीं
हैं – आदर्शवाद (ईश्वर केन्द्रित चिंतन) और
भौतिकवाद (भौतिक-रासायनिक वस्तु केन्द्रित चिंतन). इन दोनों विचारधाराओं के आधार पर शिक्षा में
प्रयोग हुए हैं. वर्तमान में भौतिकवादी
शिक्षा जिसे वैज्ञानिक शिक्षा या आधुनिक शिक्षा भी कहा जाता है – सभी देशों में
प्रचलित है. भौतिकवादी शिक्षा के मूल में
है – कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र, और लाभोंमादी
अर्थशास्त्र. जिसके चलते काम, भोग और लाभ
का उन्माद सभी पर चढ़ा है. फलस्वरूप धरती
पर धरती का ताप बढ़ गया, पर्यावरण असंतुलन हो गया, प्रदूषण छा गया और मानव-मानव के
बीच व्यक्तिवाद और समुदायवाद की अनेक दीवारें बन गयी. मानव के धरती पर बने रहने पर अब प्रश्नचिन्ह लग
चुका है. मध्यस्थ दर्शन आदर्शवाद और
भौतिकवाद के विकल्प के रूप में शिक्षा के लिए प्रस्तावित है. यह दर्शन भारत से अवश्य आया है, किन्तु यह बौद्ध
विचार या वैदिक विचार पर आधारित नहीं है.
न ही यह किसी पाश्चात्य दर्शन पर आधारित है. इसका आधार श्री ए नागराज द्वारा सहअस्तित्व
स्वरूपी अस्तित्व में अनुभव है. यह विकल्प
स्वरूप में मानव जाति को समर्पित है. मानव
जाति इसको शुद्ध रूप में अपना कर ही अपना स्वत्व बना सकता है.
मानव जाति को निष्कर्षात्मक
और समग्र शिक्षा की आवश्यकता है. इसके लिए शिक्षा का मानवीयकरण आवश्यक है. विखंडनवादी सोच के चलते अभी शिक्षा भी विशेषज्ञता
के अनेक खण्डों में बंट गयी है और व्यापार के लिए बिक गयी है. वर्तमान में पढाये जाने वाले प्रत्येक विषय को
समग्रता से सम्बद्ध करने के लिए – (१) विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन
अनिवार्य है. (२) मनोविज्ञान के साथ
संस्कार पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है. (३)
दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है. (४) अर्थशास्त्र के साथ
प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य की सदुपयोगात्मक और सुरक्षात्मक नीति पक्ष का
अध्ययन अनिवार्य है. (५) राज्यनीति
शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षणात्मक और संवर्धनात्मक नीति पक्ष का अध्ययन
अनिवार्य है. (६) समाजशास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति व सभ्यता पक्ष का
अध्ययन अनिवार्य है. (७) भूगोल और इतिहास
के साथ मानव और मानवीयता का अध्ययन अनिवार्य है.
(८) साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है. समग्र शिक्षा के तीन आयाम होंगे – (१) चेतना
विकास, (२) मूल्य शिक्षा, (३) तकनीकी. यही
“शिक्षा के मानवीयकरण” का अभिप्राय है.
उपसंहार
अस्तित्व प्रयोजनशील है और
अपने में व्यवस्था है. मानव अस्तित्व का
अंगभूत है, और ज्ञानावस्था की इकाई है.
मानव के पास कल्पनाशीलता है, जिसके आधार पर वह अपने इतिहास में अस्तित्व को
सटीक समझने का प्रयास करता रहा है, जिस क्रम में दो विचारधाराएं आयी – आदर्शवाद और
भौतिकवाद. इन दोनों के आधार पर शिक्षा में
प्रयोग हुए, किन्तु उससे सर्वमानव की संतुष्टि का मार्ग नहीं निकला. उल्टे इससे धरती ही बीमार हो गयी, समुदायों में
अपने-पराये की दीवारें बढ़ गयी, अपराध और युद्ध बढ़ता चला गया. मध्यस्थ दर्शन – सहअस्तित्ववाद इन दोनों विचारधाराओं
के विकल्प स्वरूप में शिक्षा के लिए एक प्रस्ताव है. यह शिक्षा में प्रयोग नहीं है, बल्कि एक
निष्कर्षात्मक अनुभवगामी पद्दति है. मानवजाति
द्वारा इसको अपनाना आवश्यक ही नहीं सौभाग्य है.
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राकेश गुप्ता, बैंगलोर (१५
अप्रैल २०१७)
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