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Friday, September 24, 2010

सत्ता का स्वरूप

सत्ता का स्वरूप है: - पहला, सर्वत्र विद्यमानता या व्यापकता। दूसरा, पारदर्शीयता - हर परस्परता के बीच में, हर जर्रे-जर्रे के बीच में। तीसरे, पारगामियता।

प्रत्येक इकाई में, से, के लिए मध्यस्थ-सत्ता साम्य रूप से प्राप्त है। सत्ता जड़-प्रकृति को साम्य-ऊर्जा के रूप में प्राप्त है। सत्ता चैतन्य-प्रकृति को चेतना के रूप में प्राप्त है। यह सत्ता का वैभव है। सत्ता प्रकृति को नित्य प्राप्त है - इसलिए प्रकृति नित्य-वर्तमान है।

इकाई क्रियाशील है, इसलिए उसमें 'पूर्णता' की बात है। हर क्रियाशीलता 'सम्पूर्ण' है। प्रत्येक इकाई अपने वातावरण सहित 'सम्पूर्ण' है। सम्पूर्णता से पूर्णता तक विकास-क्रम है। पूर्णता है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता। सम्पूर्णता के साथ ही पूर्णता का प्रमाण है।

हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता ही है। कितनी भी सूक्ष्म इकाई हो... कितनी भी स्थूल इकाई हो। एक समझने वाला, एक समझाने वाला - इनके मध्य में सत्ता रहता ही है। तभी समझ पाते हैं, तभी समझा पाते हैं। मध्य में सत्ता न हो, तो न समझ पायेंगे - न समझा पायेंगे। वैसे ही हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता है, जिससे उनमें परस्पर पहचान होती है, निर्वाह होता है।

साधना के फल-स्वरूप मुझे समाधि हुआ। समाधि में गहरे पानी में डूब कर आँखे खोल कर देखने में मधुरिम प्रकाश जैसा दिखता है, वैसा मुझे दिखता रहा। समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप रही, यह आंकलित हो गया। इसमें 'ज्ञान' नहीं हुआ। फिर संयम में सत्ता में अनंत प्रकृति को भीगा हुआ देख लिया। समाधि में जो दिख रहा था, वह 'सत्ता' है - यह स्पष्ट हो गया। समाधि के बाद ही संयम होता है।

प्रकृति की वस्तु में अपने में कोई ताकत नहीं है। ताकत सत्ता है। यदि प्रकृति की इकाई स्वयं में ताकतवर होता, तो उसे सत्ता से अलग होना था! लेकिन सत्ता सब जगह है, सत्ता से इकाई बाहर जा ही नहीं सकती। प्रकृति की इकाई कहीं भी जाए, रहती सत्ता में ही है। इसलिए इकाई ऊर्जामय है। इकाई ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर क्रियाशील है।

ऊर्जा की प्यास वस्तु को है। वस्तु को ऊर्जा की प्यास है। ऊर्जा वस्तु को छोड़ नहीं सकती। वस्तु ऊर्जा को छोड़ नहीं सकती। चैतन्य-प्रकृति चेतना के बिना नहीं रह सकती। जड़-प्रकृति ऊर्जा के बिना नहीं रह सकती। चेतना और ऊर्जा सत्ता ही है। सत्ता के प्रगटन के लिए प्रकृति है। प्रकृति की क्रियाशीलता के लिए सत्ता है। इसके आधार पर दोनों निरंतर अविभाज्य साथ-साथ हैं। जिसको हम "सह-अस्तित्व" नाम दे रहे हैं।

सत्ता में प्रकृति की वस्तु को मिटाने या बनाने की कोई "चाहत" नहीं है। चाहत निश्चित दायरे में होती है। सत्ता निश्चित दायरे में नहीं है। इसलिए उसमें चाहत नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

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