जैसे पेड़-पौधों में क्रिया होती है, वैसे ही शरीर में क्रियावाही तंत्र का कार्य-कलाप होता है। जीवन क्रिया-वाही तंत्र को जीवंत रख कर संरक्षित रखता है, तभी जीवन उसको चला पाता है। जब तक क्रियावाही तंत्र जीवंत कार्यकलाप करता है, तब तक ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा जीवन उसको चला पाता है। क्रियावाही तंत्र का अपना कार्य-कलाप बंद कर देना ही 'मृत्यु' के रूप में पहचाना जाता है। जीवन सारे शरीर में, हर प्राण-कोशा तक जो भ्रमण करता है, उससे जीवंत बनाने का कार्य होता है। जीवंत बनाना = ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा व्यक्त होने योग्य बनाना। जीवन शरीर को जीवंत बनाने के लिए कितना काम करता है, उसका मूल्याङ्कन होने की आवश्यकता है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध - ये पांच ज्ञान-इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों से मेधस, मेधस से जीवन तक संकेत प्रसारण और जीवन से मेधस, मेधस से कर्मेन्द्रियाँ तक संकेत प्रसारण - यह ज्ञान-वाही तंत्र के माध्यम से है।
जीवन शरीर के उपयोग से "देखता" है, और शरीर का उपयोग करके "करता" है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव है।
प्रश्न: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन-शरीर की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन अपने कार्य को स्वयं देखता है, और स्वयं करता है - शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को जीवंत बनाने का कार्य नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन मेधस से, शरीर से असंलग्न रहता है। समाधि-काल में जीवन शरीर संवेदनाओं को ग्रहण नहीं करता। जीवन शरीर के आस-पास ही रहता है। इस तरह समाधि की स्थिति में मेधस का कोई रोल नहीं है।
अध्ययन-विधि जीवंत शरीर के साथ है। अनुसन्धान पूर्वक समाधि-संयम करना हर किसी के वश का रोग नहीं है, इसीलिये अध्ययन-विधि प्रस्तावित है। अनुसंधान करने के लिए 'तीव्र जिज्ञासा' का होना आवश्यक है। 'तीव्र जिज्ञासा' होने के लिए प्रचलित परंपरा (चाहे भौतिकवादी या आदर्शवादी) पर पूरा चलने के बाद उसके किसी मुद्दे पर उत्तर न मिल पाने की घोर-पीड़ा होनी आवश्यक है। यदि प्रचलित परंपरा से चलते हुए कोई अटकाव, निराशा नहीं है - तो जिज्ञासा कहाँ हुई? बिना जिज्ञासा के अनुसंधान के लिए निष्ठा कैसे होगी?
यह प्रस्ताव भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों परम्पराओं से जुड़ता नहीं है। इसीलिये इस प्रस्ताव को 'विकल्प' कहा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध - ये पांच ज्ञान-इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों से मेधस, मेधस से जीवन तक संकेत प्रसारण और जीवन से मेधस, मेधस से कर्मेन्द्रियाँ तक संकेत प्रसारण - यह ज्ञान-वाही तंत्र के माध्यम से है।
जीवन शरीर के उपयोग से "देखता" है, और शरीर का उपयोग करके "करता" है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव है।
प्रश्न: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन-शरीर की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन अपने कार्य को स्वयं देखता है, और स्वयं करता है - शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को जीवंत बनाने का कार्य नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन मेधस से, शरीर से असंलग्न रहता है। समाधि-काल में जीवन शरीर संवेदनाओं को ग्रहण नहीं करता। जीवन शरीर के आस-पास ही रहता है। इस तरह समाधि की स्थिति में मेधस का कोई रोल नहीं है।
अध्ययन-विधि जीवंत शरीर के साथ है। अनुसन्धान पूर्वक समाधि-संयम करना हर किसी के वश का रोग नहीं है, इसीलिये अध्ययन-विधि प्रस्तावित है। अनुसंधान करने के लिए 'तीव्र जिज्ञासा' का होना आवश्यक है। 'तीव्र जिज्ञासा' होने के लिए प्रचलित परंपरा (चाहे भौतिकवादी या आदर्शवादी) पर पूरा चलने के बाद उसके किसी मुद्दे पर उत्तर न मिल पाने की घोर-पीड़ा होनी आवश्यक है। यदि प्रचलित परंपरा से चलते हुए कोई अटकाव, निराशा नहीं है - तो जिज्ञासा कहाँ हुई? बिना जिज्ञासा के अनुसंधान के लिए निष्ठा कैसे होगी?
यह प्रस्ताव भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों परम्पराओं से जुड़ता नहीं है। इसीलिये इस प्रस्ताव को 'विकल्प' कहा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
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