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Saturday, September 4, 2010

व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप

सत्ता अमूर्त है। ज्ञान अमूर्त है। अस्तित्व में अमूर्त वस्तु एक ही है। ज्ञान व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप है। व्यापक वस्तु ही ज्ञान स्वरूप में मानव को प्राप्त है। प्रबुद्धता पूर्वक अमूर्त-वस्तु (ज्ञान) के आधार पर मनुष्य का जीना बन जाता है। प्रबुद्धता = अनुभव मूलक अभिव्यक्ति। व्यक्ति प्रमाणित होने के अर्थ में प्रबुद्धता है। अभी भ्रमित-स्थिति में मनुष्य क्रिया के आधार पर जीता है, या भाषा के आधार पर जीता है, या कल्पना के आधार पर जीता है।

प्रश्न: "ज्ञान व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप है" - इससे क्या आशय है?

उत्तर: सह-अस्तित्व सहज प्रगटन-क्रम में व्यापक-वस्तु ज्ञान स्वरूप में मनुष्य द्वारा प्रगट होता है। ज्ञान व्यापक का ही स्वरूप है। प्रतिरूप इसे ही कहा है।

व्यापक-वस्तु चेतना के रूप में चैतन्य-वस्तु को प्राप्त है। चेतना ही ज्ञान है। मानव में ज्ञान स्वरूप में व्यापक-वस्तु दिखता है। तात्विक रूप में व्यापक, चेतना, ज्ञान, साम्य-ऊर्जा - एक ही वस्तु है। अमूर्त-वस्तु एक ही है - जो जड़-प्रकृति को ऊर्जा रूप में प्राप्त है और चैतन्य प्रकृति (जीवन) को चेतना और ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।

व्यापक वस्तु (ज्ञान) मानव द्वारा व्यवहार में प्रकाशित होता है। प्रकाशित होने का स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य। व्यापक-वस्तु ही मनुष्य द्बारा मूल्यों के रूप में प्रमाणित होता है। मूल्यों का अर्थ अमूर्त ही होता है। सभी मूल्य ज्ञान का ही प्रकाशन हैं। मूल्यों का प्रकाशन क्रिया के साथ है, फल-परिणाम के साथ है।

अमूर्त-वस्तु (व्यापक) और मूर्त-वस्तु (प्रकृति) दोनों अस्तित्व में अविभाज्य स्वरूप में हैं, और अध्ययन-गम्य हैं। अमूर्त-वस्तु मूर्त-वस्तु के द्वारा ही प्रमाणित होगी। सह-अस्तित्व का मतलब यही है। अमूर्त और मूर्त का सह-अस्तित्व नित्य-वर्तमान है।

मूर्त-वस्तु के बिना अमूर्त-वस्तु का प्रगटन नहीं होता है। जैसे - मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन भी मूर्त है। शरीर भी मूर्त है। ज्ञान अमूर्त है। जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है। शरीर ऊर्जा का धारक-वाहक है। कार्य-ऊर्जा द्वारा जो काम होना है, वह शरीर द्वारा होता रहता है। अमूर्त-वस्तु (ज्ञान) का मूर्त-परम्परा (मानव = जीवन + शरीर) में प्रमाणित होना है। मानव ही इसका धारक-वाहक है। इस तरह मानव के प्रमाणित हुए बिना सह-अस्तित्व प्रमाणित होगा ही नहीं! बहुत अच्छे मन से इस बात को समझने की ज़रुरत है, अनुभव करने की ज़रुरत है, प्रमाणित करने की ज़रुरत है।

जागृत-मानव ही सह-अस्तित्व प्रमाण का धारक वाहक है। मानव का प्रगटन होते तक शरीर-रचना में परिवर्तन होता रहा। झाड से लेकर मानव-शरीर रचना तैयार होते तक प्राण-कोशों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होता रहा। उसी प्रकार जीव-चेतना से मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना तक "चेतना-विकास" की व्यवस्था दे दिया। समाधान और अभय स्वरूप में सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है। समृद्धि शरीर के लिए हो जाता है। अभी तक परंपरा में समाधान-समृद्धि के योग को पहचाना नहीं गया था।

आप इस पूरी बात को समझने का अपने में पूरा धैर्य संजोइए, स्वयं पूरा पड़ने के बाद आज यह बात जिस स्तर तक पहुँची है, उससे अगले स्तर तक पहुंचाइये। आगे की पीढी आगे!

प्रश्न: आपसे हमे इस पूरी बात की सूचना मिली, अब इसको अध्ययन करके अनुभव करने की आवश्यकता है। क्या इस क्रम में ऐसा हो सकता है कि मुझे भ्रम हो जाए कि मुझे 'अनुभव' हो गया है, 'पूरा समझ' आ गया है - जबकि वास्तव में ऐसा न हुआ हो?

उत्तर: अनुभव होता है तो वह जीने में समाधान-समृद्धि पूर्वक प्रमाणित होता है। वही तो कसौटी है। सूचना देना समाधान देना नहीं है। समाधान जी कर ही प्रमाणित होता है। समाधान का वितरण करना शुरू करते हैं, तो सभी स्तरों पर समझा पाते हैं। आप मुझे देखिये - किसी भी बारे में समाधान प्रस्तुत करने में मुझ पर कोई दबाव नहीं पड़ता है। मैं अपने गुरु जी से पूछ के बताऊंगा, कोई किताब को पढ़ कर बताऊंगा - ऐसा कहने की कोई जरूरत मुझे नहीं है। समाधान की कसौटी में उतरे बिना एक भी व्यक्ति प्रमाणित नहीं होगा। "मैं प्रमाणित हूँ" - यह कहने के लिए जाँचिये, क्या आप समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हैं? शरीर की आवश्यकता के लिए समृद्धि, जीवन की आवश्यकता के लिए समाधान।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

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