मनुष्य को अनुभव होता है या नहीं? इस बारे में आप का क्या मानना है?
मैं मानता हूँ, मनुष्य को अनुभव हो सकता है।
आप को अनुभव हो सकता है या नहीं? आप अनुभव करना चाहते हैं या नहीं?
हो सकता है, चाहता हूँ।
सर्व-मानव में अनुभव का स्वरूप "एक" होगा या "अनेक" होगा?
एक ही होगा।
बतंगड़ का स्वरूप एक होगा या अनेक होगा?
अनेक होगा।
बतंगड़ पूर्वक या बातों ही बातों में जो हिसा-प्रतिहिंसा के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं, वह एक अंत-विहीन कथा है। विखंडन-वादिता से हम किसी सत्यता को पा नहीं सकते। अभी तक मनुष्य विखंडन-वादिता विधि से ही चला है। सर्व-मानव के अपराध में फंस जाने का यही मूल-कारण है। इसका कारण शोध करने पर पता चला - मनुष्य अभी तक "जीव चेतना" में जिया है। जीव-चेतना में विखंडन-विधि ही होती है। जीव-चेतना में सम्पूर्णता या "अनुभव विधि" नहीं है। जीव-चेतना में मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर विखंडन-वादिता के रास्ते पर चल दिया। विखंडन करते-करते हम किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचेंगे ऐसे विज्ञानियों द्वारा सोचा गया, पर ऐसा हुआ नहीं।
आदर्शवादियों ने मानव को विभाजित करने का प्रयास किया। सभी मानवों का प्रवृत्ति एक जैसा है - यह आदर्श-वादियों ने नहीं माना। रंग और नस्ल के आधार पर प्रवृत्ति होती है - ऐसा सोचा गया। इसी आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - ये चार भाग कर दिए। यहीं से वेद-विचार की शुरुआत है। वेद-विचार में वर्णों के अनुसार नित्य-कर्मो को बताया - जिसको "धर्म" कहा। इस तरह धर्म के लक्षण को पकड़ा, धर्म पकड़ में आया नहीं!
नित्य-कर्म लक्षण हैं या धर्म? हम जो कर्म करते हैं, वे लक्षण हैं या धर्म हैं? धर्म अनुभव में आता है - या लक्षणों में रहता है?
(मध्यस्थ दर्शन के) अनुसंधान पूर्वक यह निकला - "मानव सुख-धर्मी है। सुख-धर्म मनुष्य के अनुभव में आता है।"
मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित - इन ९ प्रकार से कर्म करता है। सभी मनुष्यों के पास इन ९ तरह कर्म करने का माद्दा है - चाहे ब्राह्मण कहलाओ, चाहे शूद्र कहलाओ; चाहे गोरा कहलाओ, चाहे काला कहलाओ। सभी मनुष्य इन ९ तरह से ही काम करते हैं। यह सभी मनुष्यों में "समानता" को पहचानने का आधार हुआ कि नहीं?
मनुष्य काम क्यों करते हैं? - इसका शोध करने पर पता चला, सुखी होने के लिए मनुष्य काम करता है। सुख-धर्म मानव के "अनुभव" में आता है।
सुख अनुभव में आने पर वह अनुभव में ही रहेगा या उसका कोई प्रमाण भी होगा?
अनुभव का प्रमाण होगा या नहीं? इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का ही प्रमाण होगा। अनुभव के अलावा और किसी बात का प्रमाण होता नहीं है।
इस तरह सुख-धर्म जो मनुष्य के अनुभव में आता है, उसके प्रमाणित होने का स्वरूप क्या होगा?
इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का प्रमाण "समाधान" के स्वरूप में ही होगा। हर मोड़-मुद्दे पर समाधान को प्रस्तुत करना ही मनुष्य के "सुखी" होने का प्रमाण है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
मैं मानता हूँ, मनुष्य को अनुभव हो सकता है।
आप को अनुभव हो सकता है या नहीं? आप अनुभव करना चाहते हैं या नहीं?
हो सकता है, चाहता हूँ।
सर्व-मानव में अनुभव का स्वरूप "एक" होगा या "अनेक" होगा?
एक ही होगा।
बतंगड़ का स्वरूप एक होगा या अनेक होगा?
अनेक होगा।
बतंगड़ पूर्वक या बातों ही बातों में जो हिसा-प्रतिहिंसा के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं, वह एक अंत-विहीन कथा है। विखंडन-वादिता से हम किसी सत्यता को पा नहीं सकते। अभी तक मनुष्य विखंडन-वादिता विधि से ही चला है। सर्व-मानव के अपराध में फंस जाने का यही मूल-कारण है। इसका कारण शोध करने पर पता चला - मनुष्य अभी तक "जीव चेतना" में जिया है। जीव-चेतना में विखंडन-विधि ही होती है। जीव-चेतना में सम्पूर्णता या "अनुभव विधि" नहीं है। जीव-चेतना में मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर विखंडन-वादिता के रास्ते पर चल दिया। विखंडन करते-करते हम किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचेंगे ऐसे विज्ञानियों द्वारा सोचा गया, पर ऐसा हुआ नहीं।
आदर्शवादियों ने मानव को विभाजित करने का प्रयास किया। सभी मानवों का प्रवृत्ति एक जैसा है - यह आदर्श-वादियों ने नहीं माना। रंग और नस्ल के आधार पर प्रवृत्ति होती है - ऐसा सोचा गया। इसी आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - ये चार भाग कर दिए। यहीं से वेद-विचार की शुरुआत है। वेद-विचार में वर्णों के अनुसार नित्य-कर्मो को बताया - जिसको "धर्म" कहा। इस तरह धर्म के लक्षण को पकड़ा, धर्म पकड़ में आया नहीं!
नित्य-कर्म लक्षण हैं या धर्म? हम जो कर्म करते हैं, वे लक्षण हैं या धर्म हैं? धर्म अनुभव में आता है - या लक्षणों में रहता है?
(मध्यस्थ दर्शन के) अनुसंधान पूर्वक यह निकला - "मानव सुख-धर्मी है। सुख-धर्म मनुष्य के अनुभव में आता है।"
मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित - इन ९ प्रकार से कर्म करता है। सभी मनुष्यों के पास इन ९ तरह कर्म करने का माद्दा है - चाहे ब्राह्मण कहलाओ, चाहे शूद्र कहलाओ; चाहे गोरा कहलाओ, चाहे काला कहलाओ। सभी मनुष्य इन ९ तरह से ही काम करते हैं। यह सभी मनुष्यों में "समानता" को पहचानने का आधार हुआ कि नहीं?
मनुष्य काम क्यों करते हैं? - इसका शोध करने पर पता चला, सुखी होने के लिए मनुष्य काम करता है। सुख-धर्म मानव के "अनुभव" में आता है।
सुख अनुभव में आने पर वह अनुभव में ही रहेगा या उसका कोई प्रमाण भी होगा?
अनुभव का प्रमाण होगा या नहीं? इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का ही प्रमाण होगा। अनुभव के अलावा और किसी बात का प्रमाण होता नहीं है।
इस तरह सुख-धर्म जो मनुष्य के अनुभव में आता है, उसके प्रमाणित होने का स्वरूप क्या होगा?
इसका शोध करने पर पता चलता है - अनुभव का प्रमाण "समाधान" के स्वरूप में ही होगा। हर मोड़-मुद्दे पर समाधान को प्रस्तुत करना ही मनुष्य के "सुखी" होने का प्रमाण है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
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