This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
जीव-चेतना में जीना = पांच संवेदनाओं की सीमा में जीना। पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध) में से कोई ऐसी संवेदना ही नहीं है जिससे सदा-सदा अच्छा लगता रहे। इसलिए जीव-चेतना की सीमा में जीने से कोई "संतुष्टि बिंदु" ही नहीं है।
संतुष्टि चाहिए या नहीं चाहिए? - यह पूछने पर यही उत्तर मिलता है, "चाहिए!"
ज्ञान-विवेक-विज्ञानं ऐसा वस्तु है, जो सदा-सदा के लिए हमारा स्वत्व हो सकता है। ज्ञान-विवेक-विज्ञानं स्वत्व होने पर हमारा निरंतर सुख पूर्वक जीना बनता है। इस प्रकार जीने को "मानव चेतना" में जीना कहा। इस तरह "संतुष्टि" पूर्वक जिया जा सकता है।
इसमें किसको आपत्ति हो सकती है?
किसके "पक्ष" में, और किसके "विपक्ष" में यह बात है?
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
जागृति पूर्वक हर मानव के जीने का स्वरूप बनता है - "समाधान समृद्धि"।
समाधान में ज्यादा-कम की गुंजाइश नहीं है। समाधान ज्यादा-कम होने पर, या मनमानी होने पर समानता का आधार ही नहीं बनता। समाधान के लिए ज्ञान ही है। ज्ञान को कोई आधा-पौना किया नहीं जा सकता। सभी में ज्ञान स्वीकृत होने पर, सब में समाधान प्रमाणित होने पर ही "समानता" का आधार बनता है।
समृद्धि में ज्यादा-कम की गुंजाइश है। दो परिवारों में समृद्धि की मात्रा में भेद हो सकता है। किसी परिवार को कम मात्रा में समृद्धि का अनुभव होता है, किसी को ज्यादा मात्रा में समृद्धि का अनुभव होता है। समृद्धि का अनुभव होना आवश्यक है। समृद्धि की मात्रा का निर्णय परिवार की आवश्यकता के अनुसार है। समृद्धि के लिए उत्पादन आवश्यक है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
ज्ञानार्जन करने में सभी स्वतन्त्र हैं। ज्ञानार्जन करने के बाद शुभ-कार्य में प्रवृत्त होना, प्रमाणित होना - यह वेतन-भोगिता के साथ संभव नहीं है। वेतन-भोगिता विधि से आदमी उपकार नहीं कर सकता। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही वेतन-भोगिता विधि और व्यापार-विधि के अभिशाप से मुक्त होने का उपाय है। कुछ लोगों में इस अभिशाप से मुक्त होने का माद्दा तत्काल है, कुछ में नहीं है। जिनके पास माद्दा है, वे बाकियों का सहयोग करें - यही निकलता है।
जीने के तरीके में परिवर्तन समझने के बाद ही होता है। समझने का अधिकार हर किसी के पास है। चाहे चोर हो, डाकू हो - सभी समझ सकते हैं।
"सभी समझ सकते हैं!" - इसी आधार पर हम इस प्रस्ताव का लोकव्यापीकरण कार्यक्रम शुरू किये हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन का मध्यांश है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाएं चुप रहती हैं। आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप रहने के फलन में ही भ्रमित-मनुष्य में "सुख की आशा" बनी हुई है।
प्रश्न: अध्ययन-काल में आत्मा की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: अनुभव के प्रगट होते तक आत्मा चुप रहता है। अध्ययन काल में आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। प्रबोधन को स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा क्रियाशील हो जाता है। अनुभव-संपन्न हो जाता है। अनुभव-सम्पन्नता जीवन में तृप्ति का आधार है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव-शीलता (अनुभव की निरंतरता) है। अनुभव पूर्वक मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, और संतुलन प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक मनुष्य-प्रकृति के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
स्वयं में विश्वास नहीं है तो दूसरे पर विश्वास करना सम्भव नहीं है। आज के प्रचलित तरीके से जीने से आदमी अहमता के आधार पर अकेला हो गया है, जबकि वास्तविक रूप में नियति विधि से आदमी सह-अस्तित्व में है।
प्रश्न: मनुष्य के मनुष्य से जुड़ने की विधि क्या हो?
उत्तर: पहले हम "श्रेष्ठता" के साथ जुड़ते हैं, फ़िर "समानता" के साथ जुड़ते हैं। "यह व्यक्ति मेहनत करके कुछ पाया है" - ऐसी श्रेष्ठता के अनुमान के साथ आप मुझसे जुड़े हो। ज्ञान में समानता, विचार में समानता, और प्रयोजन में समानता - इन तीन जगह में समानता आने पर समानता के साथ जीना बन जाता है। समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने के दो बिन्दु पहचाने - (१) अमीरी-गरीबी में संतुलन, (२) नर-नारी में समानता। मनुष्य के इस तरह व्यवस्था में जीने के लिए उसका "समझदार" होना आवश्यक है - यह मैंने स्वीकारा है। समझदारी के पहले आदमी का व्यवस्था में जीना बनेगा नहीं।
प्रश्न: समझदार होने तक क्या किया जाए?
उत्तर: समझदार होने तक समझदार व्यक्ति का अनुकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति अगर समझदार होता है, तो वह कुछ लोगों को appeal होता है। कुछ लोगों को वह appeal नहीं भी होता है। इसके साथ यह भी है, अनुभवशील व्यक्ति किसी न किसी को appeal होता ही है, कि "यह श्रेष्ठ व्यक्ति है।" श्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी appeal होता है। इसी लिए अनुकरण की सम्भावना बनती है। जिसको प्रमाण के रूप में स्वीकारते हैं, उसका अनुकरण कर सकते हैं। समझदार व्यक्ति को प्रमाण रूप में स्वीकारने की गवाही उसका अनुकरण करने में है।
प्रश्न: अध्ययन काल में (समझदार होने तक) बाकी लोगों के साथ संबंधों में क्या किया जाए?
उत्तर: शिष्टता का निर्वाह। मैं भी समझदार नहीं हुआ हूँ, आप भी समझदार नहीं हुए हैं - उस स्थिति में शिष्टता का निर्वाह हो सकता है। दो में से एक व्यक्ति समझदार होता है, तो अध्ययन और अनुकरण की सम्भावना बनती है। दोनों के समझदार होने पर समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात बनती है।
प्रश्न: आपकी किस बात का अनुकरण करें?
उत्तर: समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का। और किस बात का अनुकरण करोगे? समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना अनुकरण योग्य है।
साक्षात्कार-बोध के लिए निरंतर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ऐसे प्रयत्न करते हुए हमारी दिनचर्या भी उसके अनुकूल होना आवश्यक है। अपने "करने" का यदि अपने "सोचने" से विरोधाभास रहता है तो साक्षात्कार-बोध नहीं होता। पुनः हम शरीर-मूलक विधि में ही रह जाते हैं। आवेश के साथ अध्ययन नहीं होता। आवेश अध्ययन के लिए अड़चन है।
पहले रास्ता ठीक होगा, तभी तो गम्य-स्थली तक पहुंचेंगे! रास्ते पर चल कर ही गम्य-स्थली तक पहुँचा जा सकता है। रास्ते पर हम चलें नहीं, और हमें गम्य-स्थली मिल जाए, ऐसा कैसे हो? इसके लिए हमें यह जांचने की ज़रूरत है - क्या हमारा "करना" हमारे गम्य-स्थली तक पहुँचने के लिए अवरोध तो पैदा नहीं कर रहा है? हम जैसा सोचते हैं, वैसा करें भी, वैसा कहें भी, वैसे फल-परिणामो को पाएं भी, वैसा प्रमाणित भी करें - यही "गम्य-स्थली" है।
जैसे - हम "नियम" का अध्ययन कर रहे हैं, और हमारा आचरण नियम के विपरीत हो - तो इसमें अंतर्विरोध हो गया। इस अंतर्विरोध के साथ नियम का साक्षात्कार नहीं होता। अध्ययन के साथ "स्वयं का शोध" चलता रहता है। मैं जो समझ रहा हूँ, क्या मैं उसके अनुरूप जी रहा हूँ? इसको पूरा करने के लिए ही "अनुकरण विधि" है।
अध्ययन एक "निश्चित साधना" है। अध्ययन रुपी साधना के साथ "समाधान-समृद्धि" के मॉडल का अनुकरण किया जा सकता है। यह आदर्शवाद के प्रस्ताव से भिन्न है, जिसमें साधना के साथ सामने कोई मॉडल रहता नहीं है। आदर्शवादी साधना में अनुकरण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भौतिकवाद में साधना का कोई मतलब ही नहीं है। भौतिकवाद में उपलब्धि या गम्य-स्थली के रूप में यंत्र है। यंत्र को खरीदो और प्रयोग करो - इतना ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है। इस विकल्पात्मक प्रस्ताव के अध्ययन से ही मैं "सब कुछ" पा सकता हूँ - उसको "केंद्रीय ध्यान" कहा। केंद्रीय-ध्यान में अध्ययन पूर्ण होता है।
हम यदि स्वीकारे रहते हैं की हमारे पास पहले से ही कुछ "समझ" है, और उस "समझ" के आधार पर हमको कुछचाहिए, तीसरे - इस "समझ" से हमे कुछकरना है - तो वह इस विकल्पात्मक प्रस्ताव के स्वीकार होने में बाधक होता है। इन तीनो पर निषेध लगाते हैं, या नकार देते हैं, तो इस प्रस्ताव के अध्ययन के लिए ध्यान लगता है। यह "अवैध" को अवैध स्वीकारने की बात है। यह "निषेध" को निषेध स्वीकारने की बात है। इस तरह अवैध पर निषेध लगाने पर हमारा मन "वैध" के अध्ययन के लिए तैयार हो जाता है। अवैध पर निषेध के साथ अपनी ईमानदारी को खोजने की आवश्यकता है।
प्रश्न: अध्ययन-काल में मन और वृत्ति की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: अध्ययन से अनुभव की सम्भावना उदय हो जाती है। जिससे मन और वृत्ति में पहले उत्साह, फ़िर उत्सव!
प्रश्न: अध्ययन-काल में अपनी पूर्व-स्मृतियों की क्या स्थिति रहती है?
उत्तर: पूर्व-स्मृतियाँ प्राथमिकता में नीचे रहते हैं।
प्रश्न: क्या ध्यान के लिए जो परम्परा-गत अभ्यास-विधियाँ बताई गयी हैं, उनसे अध्ययन में कोई मदद मिलती है?
उत्तर: अध्ययन ही अभ्यास है। आँखें मूँद लेना कोई ध्यान देना नहीं है। परम्परा-गत अभ्यास-विधियों का मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन से कोई लेना-देना नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
(1) भ्रमित-अवस्था में कल्पनाशीलता आशा, विचार, और इच्छा की "अस्पष्ट गति" है। हर मनुष्य में प्रकृति-प्रदत्त विधि से कल्पनाशीलता है। अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करने का हर व्यक्ति के पास अधिकार है। इस कल्पनाशीलता का प्रयोजन है - तदाकार-तद्रूप विधि से अनुभव-प्रतिष्ठा को पाना। कल्पनाशीलता संज्ञानीयता में गुणात्मक-परिवर्तन होने के लिए बीज-रूप है। कल्पनाशीलता ही गुणात्मक-परिवर्तन पूर्वक अनुभव-प्रमाण संपन्न होती है। "हर मनुष्य के पास कल्पनाशीलता है।" - यदि यह निर्णय नहीं निकलता है तो मनुष्य को अध्ययन कराने का कोई रास्ता ही नहीं है।
प्रश्न: "तदाकार-तद्रूप" से क्या आशय है?
उत्तर: "तद" शब्द सच्चाई को इंगित करता है। सच्चाई के स्वरूप में कल्पनाशीलता हो जाना ही 'तदाकार-तद्रूप' है। अनुभव-प्रमाण जीवन स्वरूप में समाहित हो जाना तदाकार-तद्रूप है। यह अध्ययन विधि से होता है।
(2) अध्ययन विधि से क्रमशः जागृति के लिए "सच्चाइयों का साक्षात्कार" होता है। साक्षात्कार आशा-विचार-इच्छा की "स्पष्ट गति" है। साक्षात्कार-क्रम में जीव-चेतना से छूटने की स्वीकृति और मानव-चेतना को पाने की स्वीकृति दोनों रहता है। अध्ययन-विधि में क्रम से वास्तविकताएं साक्षात्कार हो कर बोध होती हैं। पहले सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना, फ़िर सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति साक्षात्कार होकर बोध होना। बोध पूर्ण होने के फलस्वरूप आत्मा में अनुभव होता है।
रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म का साक्षात्कार होता है। इसमें से स्वभाव और धर्म का बोध होता है। बोध पूर्ण होने पर धर्म का अनुभव होता है। इस तरह "संक्षिप्त" हो कर अनुभव होता है।
प्रश्न: मुझे किसी वास्तविकता का साक्षात्कार हुआ है या नहीं - इसका मुझे कब पता चलेगा?
उत्तर: अनुभव के बाद ही पता चलेगा। उससे पहले पता नहीं चलता। अनुभव के बाद स्वयं को प्रमाणित कर पाते हैं - तो मतलब साक्षात्कार हुआ है, नहीं तो नहीं हुआ।
प्रश्न: "मूल्यों का साक्षात्कार" से क्या आशय है?
उत्तर: सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम और जागृति के अध्ययन में "मूल्य" (जैसे - विश्वास, सम्मान, कृतज्ञता, आदि) शामिल हैं। अध्ययन करने वाले को मूल्यों की सूचना स्वीकार हो जाता है। स्वीकार नही होता है तो अध्ययन का क्या मतलब हुआ? अध्ययन पूर्वक वह अनुभव में बीज रूप में अवस्थित हो जाता है। अनुभव को जीने में अभिव्यक्त/प्रकाशित करने जब जाते हैं, तो मूल्य गिनने में आ जाते हैं।
(३) अनुभव की रोशनी में अध्ययन होता है। अध्ययन विधि में - "अनुभव की रोशनी" अध्ययन कराने वाले के पास रहता है। गुरु की प्रेरणा ही अनुभव की रोशनी है। "गुरु" का मतलब ही है - अध्ययन कराने वाला। "जिज्ञासा" अध्ययन करने वाले (शिष्य) के पास रहता है। शिष्य "अनुभव की रोशनी" पर विश्वास करता है। इसका मतलब - शिष्य गुरु के अनुभव-संपन्न होने पर विश्वास करता है। अध्ययन करने वाला अनुभव की रोशनी में कल्पनाशीलता के प्रयोग से वास्तविकताओं को पहचानता है। अध्ययन करने वाला प्रभावित होता है। अध्ययन कराने वाला प्रभावित करता है। अध्ययन कराने वाला (अनुभव मूलक विधि से) चिंतन पूर्वक अध्ययन कराता है। अध्ययन करने वाला (अनुभवगामी विधि से) साक्षात्कार करता है। अध्ययन पूर्ण होने के बाद अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले में समानता हो जाती है।
अध्ययन व्यक्ति में, से, के लिए होते हुए भी व्यक्तिवादिता नहीं है। मौन होना अध्ययन नहीं है। अध्ययन जागृत व्यक्ति के साथ "सार्थक संवाद" पूर्वक होता है।
(४) "संक्षिप्त" हो कर अनुभव होता है। जो "विस्तृत" हो कर फैलता है। अनुभव पूर्वक कल्पनाशीलता अनुभव-मूलक हो ही जाती है। इसके आधार पर अनुभव का विस्तार हो जाता है। अनुभव में बीज रूप बनने के बाद वह सर्व-देश और सर्व-काल में जीवन के प्रमाणित होने का स्त्रोत बन जाता है। इस तरह "अनुभव की रोशनी" में हर बात को स्पष्ट करने का अधिकार बन जाता है।
(५) सह-अस्तित्व में व्यापक स्वरूप में सत्ता और चार अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकृति समाहित है। चारों अवस्थाओं के साथ मानव सह-अस्तित्व को कैसे प्रमाणित करे, इसके लिए मानव को "अनुभव" की ज़रूरत आयी। नहीं तो अनुभव की ज़रूरत ही नहीं थी। सह-अस्तित्व में प्रमाणित होने के लिए ही हमको अनुभव की आवश्यकता है। अनुभव स्थिति में "सूत्र" है, जीने में "व्याख्या" है।
प्रश्न: आप कहते हैं - "समझ के करो!" हम जब इस प्रस्ताव को "समझने" के क्रम में हैं, उस दौरान अपने "करने" का क्या किया जाए?
उत्तर: अनुभव के लिए समझना है। अनुभव के बाद "समझ के करना" ही होता है। "समझने" की अन्तिम-बात अनुभव में है। अनुभव से कम दाम में किसी भी मुद्दे में संतुष्टि नहीं होता - न किसी सम्बन्ध में, न मूल्यों में, न लेन-देन में। तब तक "करने" के लिए बताया है - अनुकरण। अपने जीने के डिजाईन में अनुकरण विधि से आप परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ। आप उसको अनुकरण कर सकते हैं। यदि ऐसा कर पाते हैं, तो अपने लिए काफी सहूलियत हो गयी। हर दिन अपने वातावरण में कमियों के प्रति शर्मिंदा होने के स्थान पर आगे अनुभव के लिए हम प्रयत्न कर सकते हैं। ऐसा अनुकरण अध्ययन के लिए सहायक है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)