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Saturday, May 9, 2009

संगीत का सार्थक स्वरूप

भारतीय संगीत परम्परा का अपना एक इतिहास है।

काल-खंड को 'ताल' कहा। काल-खंडो की श्रृंखला को 'लय' कहा। ताल के अनुसार राग होगा, और राग के अनुसार लय होगा - ऐसा सोचा गया। स्वर-सहित राग, और स्वर-विहीन राग - इन दोनों के बारे में सोचा गया। सप्त स्वरों को पहचाना गया। स्वरों के मूल-स्त्रोत के बारे में सोचा गया। जैसे - कोई स्वर का मूल-स्त्रोत वृषभ (सांड), तो दूसरे स्वर का मूल-स्त्रोत मयूर (मोर)... हर स्वर में तीन स्थायियों को पहचाना गया - उच्च, मध्यम, और मंद। तीनो स्थायियों पर सातों स्वरों के साथ उच्चारण/गायन कर पाने वाले व्यक्ति को संगीत में "पूर्ण विद्वान" माना।

पंडित ओमकार नाथ ठाकुर - जो राष्ट्रीय संगीतकार के रूप में पहचाने जाते थे - यहाँ अमरकंटक आए थे। यह १९६० दशक के अन्तिम भाग की बात होगी। उस समय मैं साधना-काल में ही था। मैं उस सामने मन्दिर के पीछे कुटी में रहता था। किसी से मेरे बारे में सुन कर वे मुझ से मिलने पहुंचे। उन्होंने मेरे सामने सातों स्वरों को तीनो स्थाइयों पर तीन-तीन स्थितियों पर गा कर सुनाया। जैसे - "सा" स्वर को मंद-स्थायी पर तीन स्थितियों पर गाना। और उनमें distinction मुझको समझ में आया। वह पहला व्यक्ति था, जिसको मैंने ऐसा सुना है। यह अधिकार घोर-अभ्यास के बिना आ नहीं सकता। उनको सुनने से पहले मेरा मानना था - संगीत केवल मजमा जमाने की चीज है। ओमकारनाथ ठाकुर को सुनने के बाद मैंने पाया - संगीत इतना हल्का चीज भी नहीं है!

भारतीय संगीत में सातों स्वरों प्रयुक्त होने वाले राग को 'जनक-राग' कहा, और उससे कम को 'जन्य राग' कहा। जैसे - "तोडी" एक जनक-राग है। हर 'जनक-राग' के साथ एक देवी-देवता को जोड़ा गया। तोडी राग के देवी-देवता का ओमकारनाथ ठाकुर को साक्षात्कार हुआ है, यह किंवदंती थी। मैंने उनसे पूछा - आपके बारे में ऐसा सुनते हैं, आपका क्या कहना है इस बारे में? उन्होंने बताया - "हर किंवदंती के साथ अतिशयोक्ति जुडी रहती है। तोडी गाते हुए मैं तल्लीन हो जाता हूँ - यह सही है।"

तल्लीन या तन्मय हो जाने को संगीत में "आनंद" या "पूर्णता" माना गया। संगीत का मतलब है - पूर्णता के अर्थ में गीत। पूर्णता को यहाँ अद्वैत-मोक्ष ही माना था। इसी अर्थ में गीतों को गाना ही भारतीय परम्परा में संगीत माना गया था। स्वर, ताल, लय, राग जो पहचाने - उनमें कोई परेशानी नहीं है। लेकिन संगीत के बारे में सिद्धि-चमत्कार जो जोड़ दिए - जैसे दीपक-राग से दीपक जल जाना, मल्हार-राग से वर्षा हो जाना - वह सब ग़लत है।

मध्यस्थ-दर्शन के इस प्रस्ताव के आने के बाद संगीत की परिभाषा हुई - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के अर्थ में गीत-गायन। पूर्णता को यहाँ क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के रूप में पहचाना गया है। यही संगीत का सार्थक स्वरूप है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
- रसोवयी ईशा का अंत

1 comment:

Ashok K Gopala said...

Very nice article, maybe somebody with in depth knowledge of music should have a more elaborate discussion on music with Baba.