हर क्रिया का फल होता है। कोई क्रिया ऐसी नहीं है, जिसका फल नहीं होता हो। मनुष्य भी एक क्रिया है। मनुष्य की हर क्रिया का भी फल होता है। मनुष्य के हर कर्म (कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित) का फल होता है। मनुष्य के हर व्यवहार का फल होता है।
पहला सिद्धांत है - "हर कर्म फलवती है।"
हम कुछ भी करेंगे, सोचेंगे, बोलेंगे - उसके फल के रूप में समाधान होगा या समस्या होगा। समाधान भी न हो, न समस्या हो - ऐसा कोई कर्म-फल नहीं है।
आदर्शवाद ने विगत में प्रतिपादित किया संसार के साथ असंग या निर्लिप्त विधि से रहने से कर्म का फल नहीं होता है। वह ग़लत है। ऐसी 'असंगता' या 'निर्लिप्तता' का मनमानी में ही अंत होता है।
दूसरा सिद्धांत है -
भ्रमित मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, पर उसका फल भोगने में परतंत्र है।
जागृत मनुष्य कर्म करने में भी स्वतन्त्र है, और उसका फल भोगने में भी स्वतन्त्र है।
जागृति के बाद मनुष्य के कर्म, और उससे होने वाले फल-परिणाम दोनों निश्चित हो जाते हैं। इसीलिये जागृति-पूर्वक मनुष्य कर्म करने और फल भोगने दोनों में स्वतन्त्र हो जाता है। निश्चित होने के बाद स्वतंत्रता नहीं होगी तो क्या होगा?
भ्रमित-मनुष्य अपने कर्म-फल के प्रति अनिश्चयता-वश कुकर्म कर जाता है। भ्रमित मनुष्य अपने कर्म-फल के प्रति निश्चित नहीं है, इसलिए वह फल भोगने में परतंत्र है।
जागृति की ओर दिशा पकड़ लेने पर जीवन श्राप, ताप, और पाप तीनो से मुक्त हो जाता है। गलतियों की तरफ़ हमारी प्रवृत्ति जब तक है, हम गलतियों का फल भोगने के लिए बाध्य रहते हैं। जिस क्षण से हम सही की तरफ़ प्रवृत्त होते हैं, गलतियों का प्रभाव हम पर से हट जाता है। दूसरी तरह से देखें तो - अपनी गलतियों का फल भोगने के बाद ही सही की ओर प्रवृत्ति बनती है।
तीसरा सिद्धांत - सुकर्मो का फल ही वितरित होता है।
कुकर्मो का फल वितरित नहीं होता। सुकर्म वे हैं - जो नियति-सहज कर्म हैं। कुकर्म वे हैं - जो नियति-विरोधी हैं। सुकर्मो के फल को हर व्यक्ति स्वीकारना चाहता है। कुकर्मो के फल किसी को स्वीकार नहीं होते। नियति उनको छोटा बना कर ही छोड़ती है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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