सह-अस्तित्व में अध्ययन के फलस्वरूप जीवन जो अनुभव करता है, वह अपने में पूर्ण ही होता है - लेकिन उस अनुभव का प्रकटन क्रमिक रूप से होता है। जब कभी न्याय समझ में आता है, साथ में धर्म और सत्य भी समझ में आता है। सत्य की रोशनी में ही न्याय और धर्म प्रकाशित है। सत्य अपने में प्रकाशित है ही। न्याय समझ में आ जाए, धर्म और सत्य समझ में नहीं आए - ऐसा कुछ होता नहीं है। इस तरह अनुभव पूर्वक दृष्टा पद में हो जाते हैं।
इस अनुभव का प्रकटन पहले मानव-चेतना के रूप में है, फ़िर देव-चेतना के रूप में, फ़िर दिव्य-चेतना के रूप में है। मानव-चेतना में हम न्याय प्रधान विधि से तीनो ईश्नाओं के साथ धर्म और सत्य को प्रमाणित करने की बात होती है। देव-चेतना में पुत्तेष्णा और वित्तेष्णा गौण रहती हैं, और लोकेष्णा के साथ - धर्म प्रधान विधि से न्याय और सत्य को प्रमाणित करने की बात होती है। दिव्य-चेतना में सत्य प्रधान विधि से न्याय और धर्म को प्रमाणित करने की बात होती है। दिव्य-चेतना में लोकेष्णा भी गौण हो जाती है।
"प्रमाणित होना" और "प्रमाणित करना" दो भाग हैं। "प्रमाणित होना" अनुसन्धान या अध्ययन रुपी साधना का फल है। "प्रमाणित करना" - अनुभव की जीने में अभियक्ति है, सम्प्रेष्णा है, प्रकाशन है।
प्रश्न: लोकेष्णा से क्या आशय है? दिव्य-चेतना में लोकेष्णा गौण होने का क्या मतलब है?
उत्तर: लोकेष्णा से आशय है - व्यक्ति के रूप में स्वयं की पहचान दूर दूर तक फैलना।
दिव्य-चेतना में व्यक्ति के रूप में पहचान की बात गौण रहती है। वस्तु (चिंतन, दर्शन, विचार, शास्त्र) प्रधान हो जाती है। दिव्य-चेतना में व्यक्ति नहीं रहेगा - ऐसा नहीं है। व्यक्ति के साथ ही वस्तु है। व्यक्ति ही दिव्य-मानवीयता का प्रमाण होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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