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Monday, February 18, 2008

सम्प्रेष्णा का गुरु मंत्र

मानव का मन तीन दिशाओं में एक साथ काम करता है। मन जो तीन दिशाओं में दौड़ता है - उसको कल्पना भी कह सकते हैं, मन की गति भी कह सकते हैं। चयन करने के लिए दौड़ता है मन। अन्य व्यक्ति क्या कर रहा है, कैसा दिखता है, क्या चाहता है - यह मन द्वारा चयन में आता है। यह हमारे मन पर प्रतिबिम्बित होता है। उसी के आधार पर हम दूसरे व्यक्ति से मंगल-मैत्री पूर्वक बात कर सकते हैं।

दूसरे व्यक्ति को सटीक पढ़ पाने की क्षमता में व्यक्ति-व्यक्ति में अन्तर रहता है। दूसरे व्यक्ति के आशय को पढ़ पाना एक perfection की बात है। उसमें पैना-पन है। हमारी अपेक्षाओं से लदा हुआ हमारा मन पूरा जिज्ञासा नहीं कर पाता। अपने मन को खाली करने पर ही सामने वाले का मन पढने में आएगा। सामने वाले क्या चाहता है - यह पता चलता है। क्या करता है - यह पता चलता है। क्या होता है - यह भी पता चलता है। खाली मन में विचार का भी प्रतिबिम्ब रहता है। खाली मन ही प्रतिबिम्बन के लिए नेगेटिव (फोटोग्राफी जैसे) है। उससे हमारे लिए सामने व्यक्ति को समझने के लिए मदद हो जाता है। उसके पहले से हमारे पास यह योग्यता रहती है - की होना क्या चाहिए? करना क्या चाहिए? और रहना क्या चाहिए? इसको साथ में लेकर दूसरे की अपेक्षा के अनुसार अपनी योग्यता कों भाषा स्वरूप में पहनाने जाते हैं। जिससे दूसरे कों सटीक बात पहुँच जाती है।

यही सम्प्रेष्णा का गुरु मंत्र है। यही सूक्ष्म संवेदना है। इन संवेदनाओं के साथ यदि हम सोचने लगते हैं, प्रवृत्त होते हैं - तो हमारा बहुत सारा सम्प्रेष्णा सफल होने लगता है।

अनुभवमूलक विधि से जीने में यह स्वाभाविक हो जाता है। अनुभवगामी विधि में भी ध्यान देने की आवश्यकता है - ताकि सूचना ठीक ग्रहण हो सके।


श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007)

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