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Wednesday, February 13, 2008

बोध तक अध्ययन है - उसके बाद अनुभव स्वयंस्फूर्त है।

प्रिय, हित, लाभ के साथ तुलन रहते प्रिय, हित, लाभ का ही चित्रण रहता है। इस आधार पर वह चिंतन-क्षेत्र में जाता ही नहीं है। शरीर मूलक बात को चित्रण से आगे बढाया नहीं जा सकता। उसमें केवल संवेदनाएं हैं, और संवेदनाओं को राजी करने की प्रवृत्ति है। इसी को संवेदनशीलता कहा। 'वेदना' इसलिए कहा - क्योंकि सुख भासता है, सुख निरंतर रहता नहीं है। यह कष्ट बना है। यह वेदना अतृप्ति का कारण है। इसीलिए चित्रण में बार - बार दुःख दखल करता है। बिगाड़ का संकेत चित्रण में आता ही है। वह मानव के लिए संकट है। उससे मुक्ति पाना मानव का काम है। भय, प्रलोभन वश हम कुछ करते भी हैं - उससे कुछ सही हो जाता है, कुछ ग़लत हो जाता है। इसमें से जो "सही" वाला भाग है - वह शरीर से संबंधित है। "गलती" वाला भाग चारों अवस्थाओं से संबंधित है। (क्योंकि "सही" की पहचान शरीर मूलक विधि से ही की गयी थी।  ) इस ढंग से हम सही-पन के बारे में हम केवल शरीर तक ही सीमित हो गए। 'सही-पन' को पहचानने का क्षेत्र इस तरह सिकुड़ गया। 'गलती' का क्षेत्र बढ़ गया। गलती का क्षेत्र बढ़ने से गलती की आदत बढ़ती गयी। कल्पनाशीलता, कर्म-स्वतंत्रता रहा ही। मनाकार को साकार करने के लिए हम हर अपराध को वैध मान लिए।

अब इस तरह हम चलते-चलते यहाँ तक पहुंचे - जब आपके सामने यह मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आ गया। इससे आप रोमांचित हुए। क्योंकि आपकी बुद्धि की चित्रण से सहमति मिली।

बुद्धि की चित्रण के साथ सहमति होने पर रोमान्चकता तो है - पर तृप्ति नहीं है।

तृप्ति कैसे लाई जाए?

तुलन में न्याय, धर्म, सत्य को प्रधान माना जाए। न्याय-धर्म-सत्य को हम चाहते तो हैं ही। यह हर व्यक्ति में है। मन में भी न्याय-धर्म-सत्य के साथ सहमति है। इस तरह हम जितना भी जाने हैं - उससे यह देखना शुरू करते हैं, कि यह कहाँ तक न्याय है, कहाँ तक यह समाधान है, यह कहाँ तक सच्चाई है? यह जिज्ञासा करने से हम अपनी वरीयता को न्याय-धर्म-सत्य में स्थिर कर देते हैं। यही तरीका है - न्याय-धर्म-सत्य को स्वयं में प्रभावशील बनाने का। स्वयं की न्याय, धर्म, सत्य के आधार पर जाँच करने का। यह जाँच होने पर हम स्वयं में न्याय-धर्म-सत्य की प्राथमिकता को स्वीकार लेते हैं। यह स्वीकारने के बाद - हम न्याय क्या है, सत्य क्या है, धर्म क्या है? - इस जिज्ञासा में जाते हैं।

इसमें जाने पर पता चलता है - सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व ही परम-सत्य है। यह बुद्धि को बोध होता है। इससे बुद्धि के स्वयं में संतुष्ट होने की सम्भावना बन जाती है। बुद्धि को कल्पनाशीलता से सन्देश पहुँचा कि सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व ही सत्य है, समाधान ही धर्म है, और मूल्यों के रूप में ही न्याय है। यह बुद्धि को स्वीकार होता है। बुद्धि को जब यह स्वीकृत हुआ तो वह तुरंत अनुभव में आ जाता है। इस तरह सहअस्तित्व में अनुभव होना हो जाता है।

बोध तक अध्ययन है। उसके बाद अनुभव स्वयंस्फूर्त है।

अब अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध होने लगता है। प्रमाण बोध होने लगता है, तो हमारे आचरण में आने लगता है।

अब तुम्ही बताओ - इसको मैं सत्य मानूं या और कुछ को सत्य मानूं?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

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