जीव चेतना में हम जितना भी करते हैं, उसका गम्य-स्थली सुविधा-संग्रह ही है। सुविधा-संग्रह में पहुँचना अच्छा तो लगता है, किन्तु इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु न अभी तक किसी को मिला है, न आगे मिलने की कोई सम्भावना है। इस निष्कर्ष पर यदि हम पहुंच जाते हैं - तो समझो मानवचेतना की हममें अपेक्षा बन गयी।
मानव-चेतना को पाने के लिए जो हमारा मन लगता है, उसे हम ध्यान कहते हैं। ध्यान देना = मन लगाना। अध्ययन में यदि मन लगता है, शनै: शनै: हम मानव चेतना के प्रति स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन एक ऐसा बिन्दु आता है, जब वह हमारा स्वत्व के रुप में हो जाता है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है।
ध्यान और अभ्यास आदि कि परंपरागत जो भी विधियाँ हैं - वे इसको छूती भी नहीं हैं। उन विधियों से स्वयम का प्रयोजन और दूसरों के लिए उपकार दोनों सिद्ध नहीं होता।
अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी के साथ हो जाता है - तो यह पूरा हो जाता है। मानव चेतना में प्रवृत्त होने के लिए पूरा रास्ता बना देता है। उसका प्रमाण है - दसों क्रियाओं का प्रमाणित होना।
अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन करते समय अभी आप जो कर रहे हो - उसके प्रति कोई त्याग, वैराग्य का बात आता नहीं है। आप अध्ययन यदि करते रहो, कोई ऐसी जगह आयेगी, कोई ऐसा क्षण आएगा - जब मानव-चेतना आपके लिए स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है।
जिस तरह पत्ता पकने के बाद वृक्ष से स्वतः ही गिर जाता है - उसी प्रकार हमारी सारी निरर्थकतायें अपने आप गिर जाती हैं। पत्ता तोड़ने और पत्ता गिरने में कितना फर्क है - आप ही बताओ? यह एक woundless process है।
खाना, पीना, जीना आदि कुछ नहीं बदल जाता - खाने, पीने, जीने आदि के लिए जो करते हो - उसका डिजाईन बदल जाता है। खाने-पीने में आप यहाँ देख ही रहे हो - कोई कमी नहीं है। थोडा ज्यादा ही है, कम नहीं है!
समझदारी के बाद यह समीक्षा होती है - हम जिस तरह से दाना-पानी पैदा करते हैं, उससे संतुष्ट हो सकते हैं या नहीं? समीक्षा के बाद यदि हम पाते हैं कि वर्तमान का हमारा दाना-पानी अर्जित करने का तरीका ठीक है, तो किसको क्या तकलीफ है? यदि अनुकूल नहीं पाते तो जीने का दूसरा डिजाईन अपने आप से ही हो जाता है। दूसरा डिजाईन कोई नया आदमी नहीं करेगा। समझने के बाद जीने का डिजाईन अपने आप से उभर आता है।
दूसरे डिजाईन बनने के उदाहरण के लिए देखो यौगिक विधि से प्राण-सूत्रों में कैसे अपने आप से नया डिजाईन उभर आती है! हम जब तृप्त होते हैं, तो तृप्त हो कर जीने का डिजाईन अपने आप से हम में उभर के आ जाता है। एक ही डिजाईन से हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! एक डिजाईन में सभी आदमी जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगी। इसमें एक चीज ध्रुव रहेगी - स्वावलंबन की स्थिति = अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना = परिवार के दसों व्यक्तियों के शरीर पोषण, संरक्षण, शिक्षा, दीक्षा, और समाज-गति में भागीदारी का प्रबंध हो। इतने के लिए ही तो साधन चाहिऐ! उतने के लिए साधन हर परिवार में श्रम पूर्वक पैदा किया जा सकता है।
श्रम पूर्वक स्वावलंबन का डिजाईन आप अपने आप से ही निर्मित करोगे। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह भी मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहते हैं - फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित हो सकते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इस सूत्र को यदि हम ठीक तरह से उपयोग कर लेते हैं - तो संसार के उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।
यथास्थिति को बनाए रखते हुए, अध्ययन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आवेश में आने से अध्ययन स्थगित हो जाएगा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
मानव-चेतना को पाने के लिए जो हमारा मन लगता है, उसे हम ध्यान कहते हैं। ध्यान देना = मन लगाना। अध्ययन में यदि मन लगता है, शनै: शनै: हम मानव चेतना के प्रति स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन एक ऐसा बिन्दु आता है, जब वह हमारा स्वत्व के रुप में हो जाता है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है।
ध्यान और अभ्यास आदि कि परंपरागत जो भी विधियाँ हैं - वे इसको छूती भी नहीं हैं। उन विधियों से स्वयम का प्रयोजन और दूसरों के लिए उपकार दोनों सिद्ध नहीं होता।
अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी के साथ हो जाता है - तो यह पूरा हो जाता है। मानव चेतना में प्रवृत्त होने के लिए पूरा रास्ता बना देता है। उसका प्रमाण है - दसों क्रियाओं का प्रमाणित होना।
अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन करते समय अभी आप जो कर रहे हो - उसके प्रति कोई त्याग, वैराग्य का बात आता नहीं है। आप अध्ययन यदि करते रहो, कोई ऐसी जगह आयेगी, कोई ऐसा क्षण आएगा - जब मानव-चेतना आपके लिए स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है।
जिस तरह पत्ता पकने के बाद वृक्ष से स्वतः ही गिर जाता है - उसी प्रकार हमारी सारी निरर्थकतायें अपने आप गिर जाती हैं। पत्ता तोड़ने और पत्ता गिरने में कितना फर्क है - आप ही बताओ? यह एक woundless process है।
खाना, पीना, जीना आदि कुछ नहीं बदल जाता - खाने, पीने, जीने आदि के लिए जो करते हो - उसका डिजाईन बदल जाता है। खाने-पीने में आप यहाँ देख ही रहे हो - कोई कमी नहीं है। थोडा ज्यादा ही है, कम नहीं है!
समझदारी के बाद यह समीक्षा होती है - हम जिस तरह से दाना-पानी पैदा करते हैं, उससे संतुष्ट हो सकते हैं या नहीं? समीक्षा के बाद यदि हम पाते हैं कि वर्तमान का हमारा दाना-पानी अर्जित करने का तरीका ठीक है, तो किसको क्या तकलीफ है? यदि अनुकूल नहीं पाते तो जीने का दूसरा डिजाईन अपने आप से ही हो जाता है। दूसरा डिजाईन कोई नया आदमी नहीं करेगा। समझने के बाद जीने का डिजाईन अपने आप से उभर आता है।
दूसरे डिजाईन बनने के उदाहरण के लिए देखो यौगिक विधि से प्राण-सूत्रों में कैसे अपने आप से नया डिजाईन उभर आती है! हम जब तृप्त होते हैं, तो तृप्त हो कर जीने का डिजाईन अपने आप से हम में उभर के आ जाता है। एक ही डिजाईन से हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! एक डिजाईन में सभी आदमी जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगी। इसमें एक चीज ध्रुव रहेगी - स्वावलंबन की स्थिति = अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना = परिवार के दसों व्यक्तियों के शरीर पोषण, संरक्षण, शिक्षा, दीक्षा, और समाज-गति में भागीदारी का प्रबंध हो। इतने के लिए ही तो साधन चाहिऐ! उतने के लिए साधन हर परिवार में श्रम पूर्वक पैदा किया जा सकता है।
श्रम पूर्वक स्वावलंबन का डिजाईन आप अपने आप से ही निर्मित करोगे। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह भी मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहते हैं - फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित हो सकते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इस सूत्र को यदि हम ठीक तरह से उपयोग कर लेते हैं - तो संसार के उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।
यथास्थिति को बनाए रखते हुए, अध्ययन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आवेश में आने से अध्ययन स्थगित हो जाएगा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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