भ्रमित स्थिति में भी आप सत्य की अपेक्षा करते रहे। सत्य की अपेक्षा आप में समाई रही। उसके बाद आपको सूचना मिली की यह अपेक्षा जीवन में है। जीवन में सहअस्तित्ववाद की सूचना का परिशीलन करने गए तो यह आपके तुलन में आ गया। इस तरह सूचना के रूप में न्याय, धर्म, और सत्य आपके तुलन में आ गया। आपका तुलन इस प्रकार शुरू हुई तो आपके चित्त में साक्षात्कार होना शुरू हो गया। चित्त में साक्षात्कार पूरा होना बोध के पहले ज़रूरी है। साक्षात्कार पूरा होने के बाद ही बोध होता है। सहअस्तित्व बोध हो गया, तो अनुभवमूलक विधि से वह प्रमाण रूप में आने लगता है।
अनुभव का रोशनी सदा सदा जीवन में रहता ही है। शरीर का क्रिया-कलाप जीवन के साढ़े चार क्रिया में ही समाप्त हो जाता है, अनुभव तक पहुँचने का इसमें कोई वस्तु रहता नहीं है। न्याय-धर्म-सत्य सूचना के रूप में पहुँची तो साक्षात्कार का प्रोजेक्ट शुरू हो गया। अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण सहित हम पुनः प्रस्तुत हो पाते हैं।
भ्रमित अवस्था में इतना तक रहता है - कि तुलन होता है। हर व्यक्ति प्रिय-हित-लाभ का तुलन करता ही है। इसी लिए हम को यह स्वीकार होता है की न्याय-धर्म-सत्य का भी तुलन हो सकता है। यह बात हम-में मान्यता के रूप में रहता है। जब हम प्रमाणित होने लगते हैं, तो इसमें हमें विश्वास होता है।
न्याय-धर्म-सत्य को मान्यता के आधार पर शब्द के द्वारा जब हम स्वीकारते हैं - तो उसका साक्षात्कार अपने आप से चित्त में होता है। चित्त में साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के फलस्वरूप प्रमाण, फलस्वरूप प्रमाण-बोध। यहाँ तक पहुँचने के बाद हम चिंतन पूर्वक हम प्रमाणित करने योग्य हो जाते हैं।
प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।
अनुभव के बिना समझ पूरा नहीं होता। तब तक शब्द ही रहता है।
मान्यता और आस्था के साथ हम अध्ययन शुरू करते हैं।
प्रमाण के आधार पर हम प्रमाणित हो जाते हैं।
- श्री ए नागराज के साथ हुए संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
अनुभव का रोशनी सदा सदा जीवन में रहता ही है। शरीर का क्रिया-कलाप जीवन के साढ़े चार क्रिया में ही समाप्त हो जाता है, अनुभव तक पहुँचने का इसमें कोई वस्तु रहता नहीं है। न्याय-धर्म-सत्य सूचना के रूप में पहुँची तो साक्षात्कार का प्रोजेक्ट शुरू हो गया। अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण सहित हम पुनः प्रस्तुत हो पाते हैं।
भ्रमित अवस्था में इतना तक रहता है - कि तुलन होता है। हर व्यक्ति प्रिय-हित-लाभ का तुलन करता ही है। इसी लिए हम को यह स्वीकार होता है की न्याय-धर्म-सत्य का भी तुलन हो सकता है। यह बात हम-में मान्यता के रूप में रहता है। जब हम प्रमाणित होने लगते हैं, तो इसमें हमें विश्वास होता है।
न्याय-धर्म-सत्य को मान्यता के आधार पर शब्द के द्वारा जब हम स्वीकारते हैं - तो उसका साक्षात्कार अपने आप से चित्त में होता है। चित्त में साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के फलस्वरूप प्रमाण, फलस्वरूप प्रमाण-बोध। यहाँ तक पहुँचने के बाद हम चिंतन पूर्वक हम प्रमाणित करने योग्य हो जाते हैं।
प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।
अनुभव के बिना समझ पूरा नहीं होता। तब तक शब्द ही रहता है।
मान्यता और आस्था के साथ हम अध्ययन शुरू करते हैं।
प्रमाण के आधार पर हम प्रमाणित हो जाते हैं।
- श्री ए नागराज के साथ हुए संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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