भ्रम-मुक्ति का प्रमाण अपराध-मुक्ति है। अपना-पराया से मुक्ति है। इस जगह पर आने के लिए यह प्रस्ताव रखे हैं। वह प्रस्ताव आपको ठीक लग रहा है। यहाँ आने से पहले आप जैसे भी जिए, उससे संतुष्टि नहीं मिली - पर अच्छी तरह जीने के अरमान में आप जिए।
अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।
अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।
प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?
उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।
प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?
उत्तर: गलत है! जीवचेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।
अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको बैठाने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।
आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिऐ!
अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीवचेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।
आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!
अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिऐ। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दुसरे की पहचान में आना चाहिऐ। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।
अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।
देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।
यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।
अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया।
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।
अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।
प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?
उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।
प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?
उत्तर: गलत है! जीवचेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।
अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको बैठाने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।
आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिऐ!
अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीवचेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।
आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!
अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिऐ। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दुसरे की पहचान में आना चाहिऐ। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।
अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।
देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।
यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।
अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया।
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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