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Tuesday, December 20, 2022

जीवन में दृष्टा विधि का स्वरूप

 


प्रश्न: जीवन ही जीवन को कैसे देखता है?


उत्तर: इसके लिए लिख कर दिया है - वृत्ति मन का दृष्टा होता है, मन वृत्ति में अनुभव करता है.  अपने से अधिक में अनुभव करना होता है.  मन का दृष्टा होने का मतलब है, वृत्ति मन का विश्लेषण करने वाला है.  मन क्या करता है, क्या नहीं करता है - इसको वृत्ति मूल्यांकित करता है.  कल्पनाशीलता के ज्ञान सम्पन्नता को छूने की पहली जगह यही है.  इससे पार पाने पर चित्त वृत्ति के दृष्टा होने की बात आती है.  वृत्ति में मूल्यांकन कहाँ तक ठीक हुआ, यह मूल्यांकन चित्त करता है.  वृत्ति में जो तुलन हुआ, वह कहाँ तक न्याय हुआ - कहाँ तक धर्म हुआ - कहाँ तक सत्य हुआ, चित्त की चिंतन क्रिया में इसका मूल्यांकन होता है. इसी तरह चित्त का दृष्टा बुद्धि होता है.  बुद्धि का दृष्टा आत्मा होता है.  


इस तरह मन का दृष्टा वृत्ति, वृत्ति का दृष्टा चित्त, चित्त का दृष्टा बुद्धि और बुद्धि का दृष्टा आत्मा है.  


इस तरह जीवन जीवन को पहचानता है.  इससे पहले कहा था, "ईश्वर ईश्वर को पहचानता है."  "ईश्वर को पहचानने वाला ईश्वर के अलावा दूसरा कोई नहीं है."  "ईश्वर ही ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय है."   - इसको "त्रिपुटी-संगम" नाम दिया.  यहाँ हम कह रहे हैं - जीवन ज्ञाता है, सहअस्तित्व ज्ञेय है, और ज्ञान चार अवस्था स्वरूप में है.  जीवन ज्ञान है - ज्ञाता होने का ज्ञान.  यह अनुभव मूलक विधि से आता है.  मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में अनुभव करता है.  आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करता है.


जब कभी आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करता है तो पूरा जीवन अनुभव मूलक विधि से अनुभव में भीग जाता है या अनुभव संपन्न हो जाता है.


प्रश्न:  मन वृत्ति में कब अनुभव करता है?


उत्तर: वृत्ति जब अनुभव मूलक रहता है तभी मन वृत्ति में अनुभव करता है.  


प्रश्न: उससे पहले क्या होता है?


उत्तर: उससे पहले शरीर की अनुकूलता में मन, वृत्ति, चित्त की क्रियाशीलता साढ़े चार क्रियाओं में रहती है.  चित्रण तक साढ़े चार क्रियाएं व्यक्त रहती हैं, साढ़े पांच क्रियाएं सुप्त रहती हैं - यही है "छुपा हुआ ज्ञान"!  शरीर मूलक विधि से जीवन रूचि मूलक विधि में गिरफ्त हो जाता है.  साढ़े चार क्रिया में जीता हुआ जीवन वीरान रहता है, उसमे तृप्ति नहीं मिलती है, अंततोगत्वा दस क्रियाएं पूरा होने की आवश्यकता बन जाती है.


जाग्रति से पहले मन शरीर के तद्रूप रहता है या शरीर को ही जीवन माने रहता है.  उसमे प्रिय-हित-लाभ का तुलन वृत्ति में होता है, न्याय-धर्म-सत्य छुटा रहता है.  इसी के आधार पर विश्लेषण और चित्रण हो जाता है.  यही भौतिकवाद है, जिसमे जीवन का अधूरा अभिव्यक्ति होती है.  इसको 'जीव चेतना' हम नाम देते हैं.  शरीर को जीवन मानते हुए रूचि ग्रस्त हो कर जितना मानव काम कर सकता था, उतना कर दिया.


ऐसे में "खूबी" यह रही कि जीव चेतना में जीते हुए भी मानव ने जीवों से अच्छा जीने की सोचा.  इससे विराक्तिवाद और आसक्तिवाद निकला.  विराक्तिवाद ने कामिनी-कांचन में विवश रहने वाले को "गृहस्थ" माना.  कामिनी-कांचन से विरक्त रहने वाले को तपस्वी, साधक, ज्ञानी माना.  इस तरह विरक्त मानव को तो पहचाना, किन्तु विरक्ति से क्या मिला - यह मानव जाति को पता नहीं चला.  


प्रश्न: मानव अनुभव तक कैसे पहुँच सकता है?


उत्तर: इसके लिए अनुभवगामी विधि को मैंने प्रस्तुत किया.  मैंने अनुभव किया, फिर अनुभवगामी विधि से अध्ययन को प्रस्तुत किया.  अध्ययन में लगना आवश्यक है.  अध्ययन किये बिना हम अपने को समझा माने रह सकते हैं, पर समझे नहीं रहते हैं.  अध्ययन नितांत आवश्यक है.  शब्द का अर्थ समझ में आना अध्ययन है.  शब्दों को उच्चारण करना अध्ययन नहीं है.  इस बात को ध्यान में रखने से हम बहुत आगे बढ़ सकते हैं.  स्मरण अध्ययन नहीं है.  शब्द का अर्थ हमारा स्वीकृति है, स्मरण नहीं है.  स्वीकृति बुद्धि में बोध रूप में होता है.  शब्द का अर्थ बोध रूप में हुआ, तब हम समझे.  शब्द के अर्थ की स्वीकृति बुद्धि में ही होती है, उसके पहले भी नहीं उसके बाद में भी नहीं.  अर्थ का बोध जो बुद्धि में हुआ, उसको प्रमाणित करने की प्रवृत्ति होती है, फिर वह अनुभव मूलक विधि से प्रकट होता है.  इसमें किसको क्या तकलीफ है?  यदि बुद्धि में (अवधारणा) बोध होता है तो आत्मा में स्वयंस्फूर्त प्रवृत्ति रहती है, अस्तित्व में अनुभव करने की.  बुद्धि में यदि अवधारणा बोध होता है तो आत्मा में अनुभव होना भावी है.  आत्मा स्वयं अस्तित्व अनुभव करने योग्य रहता ही है, उसके लिए ट्रेनिंग की जरूरत नहीं है.  चैतन्य इकाई (जीवन) के मध्यांश का नाम है आत्मा!  वह एक अंश अस्तित्व में अनुभव कर लेता है.  यह एक अंश अस्तित्व में अनुभव कर लेता है.  यह अंश अस्तित्व में अनुभव योग्य बना ही रहता है, बुद्धि में (अवधारणा) बोध होने के बाद अनुभव होता है.  बुद्धि में अवधारणा बोध होना अध्ययन विधि से ही संभव है.  सर्वसुलभ होने के लिए अध्ययन विधि ही है, अभ्यास विधि (साधना विधि) नहीं है.  अध्ययन में लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है.  


अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान स्वरूप में अवधारणा बोध होने से सहअस्तित्व में अनुभव होना सहज है.  


प्रश्न: आत्मा के अस्तित्व में अनुभव कर लेने के बाद क्या होता है?


उत्तर: आत्मा में अनुभव होने पर अनुभव का प्रमाण को आत्मा में हुआ, उसका बोध बुद्धि में होता है.  प्रमाणित करने के लिए यह चित्त में चिंतन में आएगा, वृत्ति में न्याय धर्म सत्य तुलन स्वरूप में आएगा, उसके बाद विश्लेषण और आस्वादन पूर्वक चयन में आएगा.  इस तरह अनुभव के साथ जीवन के तदाकार होने की बात होती है.  

प्रश्न: अनुभव का तदाकार?


उत्तर: जैसे मनाकार होता है, वैसे ही अनुभव का तदाकार होता है.  मानव बहुत तरह की वस्तुओं को बनाया - जैसे ये टेबल है, कुर्सी है, कैमरा है, ये सब के मूल में मनाकार रहा जो साकार हुआ.  अनुभव में जैसा आकार हुआ वैसा पूरा जीवन का हो जाना = तदाकार.  आकार नाम इसलिए दिया क्योंकि यह होता है.  जैसे, हमारे बीच रिक्त स्थली अपने में आकार है.  आँखों के लिए यह आकार है.  होने के क्रम में यह पारगामी है.  यहाँ अपनी बुद्धि को नियोजित नहीं करोगे तो सत्य को कैसे पहचानोगे?  इसके लिए जिज्ञासात्मक बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा, हमको समझना है - यह तत्परता चाहिए, नहीं तो यह हाथ नहीं लगेगा.  diversity यदि है तो यह नहीं बनेगा.  दूसरे के साथ तौलोगे, दूसरों के स्मरण से इसको सोचोगे तो यह हाथ लगने वाला नहीं है.  तदाकार-तद्रूप होना ही इसका सिद्धांत है.  तद्रूप-तदाकार नाम की प्रक्रिया है.  


प्रश्न: तदाकार-तद्रूपता को और बताइये.


उत्तर:  (परम्परा में) सत्तामयता में तद्रूपता की अवस्था को समाधि कहते हैं.  परम्परा में उसी को ज्ञान माना है.  जबकि ज्ञान सहअस्तित्व में होता है.  इसलिए तदाकार और तद्रूप दोनों होने की आवश्यकता है.  अनुभव एक घटना है जिसमे पूरा जीवन के तद्रूप होने की  (उसी के स्वरूप में होने की) व्यवस्था है.  


तदाकार में हर क्रिया होता है, तद्रूप में व्यापक वस्तु आता है.  अनुभव पूर्वक तदाकार तद्रूप दोनों पूरा हो जाता है.  


ज्ञान व्यापक स्वरूप में फैला है.  सत्ता व्यापक स्वरूप में फैला है.  इसमें तद्रूप होना - यही ज्ञान संपन्न होना है.  जीवन में ज्ञान फैला हुआ स्वरूप में स्वीकार होता है, जो सर्वत्र विद्यमान वस्तु है.  व्यापक वस्तु में सभी चरों अवस्थाएं संपृक्त स्वरूप में हैं, फलस्वरूप पदार्थावस्था की वस्तुएं अस्तित्व संपन्न, प्राणावस्था की वस्तुएं पुष्टि संपन्न, जीवावस्था की वस्तुएं आशा-संपन्न, और ज्ञानावस्था में ज्ञान संपन्न होने की बात है.  सहअस्तित्व में अनुभव होने से व्यापक वस्तु के साथ प्रकृति की चारों अवस्थाओं के होने का ज्ञान होता है.  इसी को कहा सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान.  सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान होता है तो जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान होता ही है.  


ज्ञान संपन्न होने पर प्रकृति का अविनाशी होना समझ में आता है.  इसी को हमने कहा - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत".  इसके पहले आदि शंकराचार्य ने लिखा - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या".  फिर तैत्तिरीय उपनिषद् में कहे - "सत्यम ज्ञानं अनंतम ब्रह्मम"  फिर सत्य को ही ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय होना बताये.  जबकि सहअस्तित्व में अनुभव करने पर सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान हुआ, सहअस्तित्व में दृष्टा पद में जीवन ज्ञान हुआ, ऐसे जीवन के शरीर के साथ संयुक्त रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान हुआ.  इस पर हमको ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है.  इसमें जो तकलीफ का भाग है उसको trace कर लेना, उसको समझ के अभ्यास करके सुगम बना लेना.  


शब्द का अर्थ समझ में आता है

समझ में आता है तो अनुभव होता ही है

अनुभव होता है तो प्रमाण होता ही है.


शब्द का अर्थ पूरा पूरा जानना और उसके प्रति निष्ठा होना 

शब्द का अर्थ ही अवधारणा है.

अवधारणा जब व्यवहार में प्रमाणित करते हैं तब वह धारणा है.

धारणा = समाधान = सुख.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)






Monday, July 4, 2022

सत्ता और मध्यस्थ क्रिया

सत्ता की प्रेरणा प्रकृति में मध्यस्थ क्रिया रूप में ही है.  परमाणु, अणु, वनस्पति संसार, जीव संसार में संतुलन इसी आधार पर है.  मानव के भी मध्यस्थ क्रिया के आधार पर संतुलित होने की व्यवस्था है.  


मध्यस्थ सत्ता में प्रेरणा से मध्यस्थ क्रिया है.  वस्तु प्रेरणा पाता है.  प्रेरणा स्वीकृति के रूप में है.  मध्यस्थ सत्ता में जड़-चैतन्य वस्तुओं को मध्यस्थ क्रिया के लिए प्रेरणा है.  


पूर्णता की प्रेरणा मध्यस्थ क्रिया रूप में है.  


प्रश्न: तो क्या जीवन में आत्मा का कोई रोल है उसको पूर्णता (अनुभव) की ओर गतित करने में?


उत्तर: है.  भौतिक संसार में भी मध्यस्थ क्रिया का रोल है, पूर्णता की ओर प्रेरित करने का.  आत्मा की रौशनी में मानव का क्रियाशील होना अभी शेष है.


प्रश्न: आत्मा की रौशनी में मानव के क्रियाशील होने से पूर्व आत्मा का क्या रोल है?


उत्तर: ज्ञानार्जन के अर्थ में, अध्ययन के अर्थ में.


प्रश्न: क्या जीवन की अन्य क्रियाओं में भी पूर्णता के लिए प्रेरणा है?


उत्तर: आशा को आशा की गम्य स्थली के लिए प्रेरणा है.  विचार को विचार की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है.  इच्छा को इच्छा की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है.   संकल्प को संकल्प की गम्यस्थली के लिए प्रेरणा है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक) 



सत्ता और ज्ञान

सहअस्तित्व में मानव समाहित है.  सहअस्तित्व से चारों अवस्थाओं में संतुलन भी इंगित है, सत्ता में सम्पृक्त्ता भी इंगित है.  व्यव्हार रूप में चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रूप में जीना और अनुभव में सम्पृक्त्ता/पारगामीयता का ज्ञान होना.  पारगामीयता के आधार पर ही सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान है.  व्यापक वस्तु के प्रतिरूप का नाम है ज्ञान.  व्यापक वस्तु को अभिव्यक्त करना, संप्रेषित करना, आचरण में लाना का नाम ज्ञान है.  ज्ञान का प्रमाण केवल मानव है.  व्यापक वस्तु ही मानव द्वारा ज्ञान के नाम से प्रकाशित होता है.

मानव में ऊर्जा सम्पन्नता ज्ञान है.  मानव में जो कुछ भी ऊर्जा है, उसका नाम है 'ज्ञान'.  चार विषयों का ज्ञान, पांच संवेदनाओं का ज्ञान, तीन एषणाओं का ज्ञान, उपकार का ज्ञान.  चार विषयों और पांच संवेदनाओं के ज्ञान से शरीर संवेदनाओं की सीमा में जीना बनता है.  जिसको जीव चेतना नाम है.  तीन एषणाओं और उपकार का ज्ञान होने पर विशालतम स्वरूप में जीना बनता है.  जिसको मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना नाम है.  जिस सीमा में जीना है, जियो!  हम तो आग्रह नहीं करेंगे, आप ऐसे ही जियो.  

ज्ञान के बिना कोई मानव मिलेगा नहीं.  ज्ञान को हम संकीर्ण बनाते हैं तो दुखी होते हैं, विशाल बनाते हैं तो सुखी होते हैं.  

सत्ता को समझने के लिए मनुष्य में जो ज्ञान है, वहां से शुरू करना होगा.  ज्ञान को छोड़ के सत्ता को समझना किसी से होगा नहीं, चाहे कुछ भी कर लो!  ज्ञान को स्वयं में पहचानना ही स्वनिरीक्षण है.  स्वनिरीक्षण विधि से हम निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, और किसी विधि से नहीं.  स्वनिरीक्षण पर ध्यान नहीं जाना ही fallacy है.  चार विषय और पांच संवेदनाएं पर-सापेक्ष हैं.  जीवन के लिए शरीर "पर" है.  शरीर की निवृत्ति होती है.  जीवन शरीर को चलाता है, छोड़ देता है.   चार विषय और पांच संवेदनाएं पर-सापेक्ष होने के कारण इनमे स्वनिरीक्षण हो नहीं सकता.  स्वनिरीक्षण मानवीय और अतिमानवीय विषय (तीन एषणा और उपकार) की सीमा में ही संभव है.  स्वनिरीक्षण होने पर पता चलता है, ज्ञान जीवन का है.  सहअस्तित्व ज्ञान के बिना जीवन ज्ञान होता नहीं है.  अभी तक तो हुआ नहीं!  सारा सिर कूट लिया, साधना कर लिया, यज्ञ कर लिया, तप कर लिया, योग कर लिया - क्या नहीं किया!  चारों अवस्थाओं के साथ सहअस्तित्व को अनुभव करना = सहअस्तित्व ज्ञान होना.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक) 

Wednesday, May 11, 2022

विचार और तर्क

विचार का एक छोटा सा भाग तर्क है.  स्वीकृति के लिए निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए तर्क है.  निष्कर्ष को जीने में उतारने के लिए तर्क है.


अभी हम विचार को प्रश्न में उलझाने के लिए तर्क को लगाते हैं.  फिर तर्क के लिए तर्क का प्रयोग करते हैं.  वह कभी निष्कर्ष तक पहुँचता नहीं है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०११, अमरकंटक)

Sunday, May 8, 2022

स्व-मूल्यांकन

स्वयम पर विश्वास समझदारी से होता है.  विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) समझदारी का स्वरूप है.  जीव चेतना समझदारी नहीं है.  विकसित चेतना में पारंगत होने पर हम स्वयं का मूल्यांकन कर सकते हैं.  उसके पहले हम दूसरों से शिकायत ही करते रहते हैं.  विकसित चेतना से पहले हमारा हर व्यक्ति, हर सभा, हर न्यायालय के साथ शिकायत ही बना रहता है.  शिकायत कभी स्वमूल्यांकन का आधार नहीं बनता.  समाधान ही स्वमूल्यांकन का आधार बनता है.  समाधान पाए बिना स्वमूल्यांकन करना बनता नहीं है.  जीव चेतना में हम समाधान नहीं पायेंगे, समस्या ही पायेंगे, समस्या को ही गायेंगे, समस्या को ही गुनेंगे, समस्या में ही हम पंडित कहलायेंगे, दक्षिणा पायेंगे - सभी बात होगा, पर स्वमूल्यांकन होगा नहीं.  स्वमूल्यांकन के लिए समाधान को पाना ही होगा.  समाधान के अर्थ में स्वमूल्यांकन होगा.


स्वमूल्यांकन है - मैं जैसा समझा हूँ, वैसा करता हूँ या नहीं, वैसा जीता हूँ या नहीं, वैसा बोल पाता हूँ या नहीं?  इस check-balance में मूल्यांकन होता है.  यदि हम समझने में, करने में, जीने में, बोलने में एकसूत्रता को पा जाते हैं तो समाधान होगा या समस्या होगा?  एक व्यक्ति में संतुलन यही है.  कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित भेदों से जो हम कर्म करते हैं, इनमे एकसूत्रता बन जाए तो हमारा स्वमूल्यांकन होता है.  एकसूत्रता नहीं आता है तो स्वमूल्यांकन नहीं होता.    इसके बाद समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व स्वरूप में हम जी पा रहे हैं या नहीं - यह दूसरा मूल्यांकन है.  तीसरा - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीता हूँ या नहीं - यह तीसरा मूल्यांकन है.  चौथा - स्वधन, स्वनारी-स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य-व्यव्हार स्वरूप में जीता हूँ या नहीं.  हर व्यक्ति समझदार होने पर अपने ऊपर ये कसौटियां लगा सकता है.  शिक्षा इसी के लिए है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

Wednesday, April 6, 2022

मानव-मानव में समानता की पहचान

 मानव-मानव में समानता की पहचान के साथ ही उनका "साथ में रहना" प्रमाणित होता है.  समानता की पहचान अधूरा रहता है तो उनका "सहवास में रहना" ही बनता है.  "साथ में रहना" में निरंतरता बनता है.  "सहवास में रहना" में निरंतरता बनता नहीं है.  रूप-गुण-स्वभाव-धर्म में विषमता ही सहवास में रहने की बाध्यता है.  इसमें से रूप और गुण कभी दो मानवों के समान नहीं हो सकते.  आपका रूप और मेरा रूप एक नहीं हो सकता.  रचना की खूबी मौलिक रूप में हरेक में अलग-अलग हम देखते है.  गुणों के आधार पर काम करने की जगह में हम और आप अलग-अलग ही रहेंगे.  समान रूप से काम करके हम तृप्ति नहीं पाते हैं.  स्वभाव और धर्म में एकरूपता होने पर मानव का "साथ में रहना" या "जीना" बन जाता है.  मानव में ज्ञान ही स्वभाव और धर्म में एकरूपता का आधार है.  स्वभाव और धर्म के आधार पर मानव जाति एक हो सकती है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, February 17, 2022

स्वकृपा आवश्यक है


स्वकृपा के बिना ज्ञानप्राप्ति संभव नहीं है.  हमारे चाहे बिना हमको अनुभव कैसे हो सकता है?  अनुभव होने का अधिकार हमारे पास है, यह तो मेरा पहले से ही कल्पना था.  किन्तु अनुभव की वस्तु क्या है, यह स्पष्ट नहीं था.  अब (अनुसन्धान पूर्वक) यह स्पष्ट हो गया कि जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान अनुभव में आता है.  अनुभव के बाद प्रमाणित होना स्वाभाविक ही है.

अनुभव के लिए पीड़ा नहीं है तो शोध काहे को करेंगे?  इस पीड़ा-मुक्ति का आधार शोध ही है.  

ज्ञान में अनुभव हर व्यक्ति का अधिकार है.  

ज्ञान में अनुभव तक कैसे जियें?  इसका उत्तर है - अनुकरण विधि से.  

अभी संसार में जितनी तरह की रूढ़ियाँ हैं, उनको अलग रख कर हम निष्कर्ष पर आने के लिए यहाँ प्रयास कर रहे  हैं.  धरती के बीमार होने से इस प्रस्ताव की आवश्यकता बनता जा रहा है.  ऋतु परिवर्तन हो चुका है, बहुत प्रजाति की वनस्पतियाँ लुप्त हो चुकी हैं, कई प्रकार की जीव प्रजातियाँ समाप्त हो चुकी हैं.  लेकिन मनुष्य सुविधा-संग्रह के अलावा दूसरा कुछ सोच नहीं पा रहा है.

अब आगे का कार्यक्रम है - यदि साक्षात्कार नहीं हुआ है तो अध्ययन से साक्षात्कार का रास्ता बनाया जाए.  यदि साक्षात्कार हो रहा है तो उसके अनुसार जीने का डिजाईन तैयार किया जाए.  इसमें दूसरा पुराण-पंचांग कुछ नहीं है.  

पहले यह पता चल जाता तो समय बच जाता, ऐसा सोचने की जगह -  जब जागे तभी सवेरा हुआ मान लो! 


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)