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Sunday, May 8, 2022

स्व-मूल्यांकन

स्वयम पर विश्वास समझदारी से होता है.  विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) समझदारी का स्वरूप है.  जीव चेतना समझदारी नहीं है.  विकसित चेतना में पारंगत होने पर हम स्वयं का मूल्यांकन कर सकते हैं.  उसके पहले हम दूसरों से शिकायत ही करते रहते हैं.  विकसित चेतना से पहले हमारा हर व्यक्ति, हर सभा, हर न्यायालय के साथ शिकायत ही बना रहता है.  शिकायत कभी स्वमूल्यांकन का आधार नहीं बनता.  समाधान ही स्वमूल्यांकन का आधार बनता है.  समाधान पाए बिना स्वमूल्यांकन करना बनता नहीं है.  जीव चेतना में हम समाधान नहीं पायेंगे, समस्या ही पायेंगे, समस्या को ही गायेंगे, समस्या को ही गुनेंगे, समस्या में ही हम पंडित कहलायेंगे, दक्षिणा पायेंगे - सभी बात होगा, पर स्वमूल्यांकन होगा नहीं.  स्वमूल्यांकन के लिए समाधान को पाना ही होगा.  समाधान के अर्थ में स्वमूल्यांकन होगा.


स्वमूल्यांकन है - मैं जैसा समझा हूँ, वैसा करता हूँ या नहीं, वैसा जीता हूँ या नहीं, वैसा बोल पाता हूँ या नहीं?  इस check-balance में मूल्यांकन होता है.  यदि हम समझने में, करने में, जीने में, बोलने में एकसूत्रता को पा जाते हैं तो समाधान होगा या समस्या होगा?  एक व्यक्ति में संतुलन यही है.  कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित भेदों से जो हम कर्म करते हैं, इनमे एकसूत्रता बन जाए तो हमारा स्वमूल्यांकन होता है.  एकसूत्रता नहीं आता है तो स्वमूल्यांकन नहीं होता.    इसके बाद समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व स्वरूप में हम जी पा रहे हैं या नहीं - यह दूसरा मूल्यांकन है.  तीसरा - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीता हूँ या नहीं - यह तीसरा मूल्यांकन है.  चौथा - स्वधन, स्वनारी-स्वपुरुष, दया पूर्ण कार्य-व्यव्हार स्वरूप में जीता हूँ या नहीं.  हर व्यक्ति समझदार होने पर अपने ऊपर ये कसौटियां लगा सकता है.  शिक्षा इसी के लिए है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

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