स्वकृपा के बिना ज्ञानप्राप्ति संभव नहीं है. हमारे चाहे बिना हमको अनुभव कैसे हो सकता है? अनुभव होने का अधिकार हमारे पास है, यह तो मेरा पहले से ही कल्पना था. किन्तु अनुभव की वस्तु क्या है, यह स्पष्ट नहीं था. अब (अनुसन्धान पूर्वक) यह स्पष्ट हो गया कि जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान अनुभव में आता है. अनुभव के बाद प्रमाणित होना स्वाभाविक ही है.
अनुभव के लिए पीड़ा नहीं है तो शोध काहे को करेंगे? इस पीड़ा-मुक्ति का आधार शोध ही है.
ज्ञान में अनुभव हर व्यक्ति का अधिकार है.
ज्ञान में अनुभव तक कैसे जियें? इसका उत्तर है - अनुकरण विधि से.
अभी संसार में जितनी तरह की रूढ़ियाँ हैं, उनको अलग रख कर हम निष्कर्ष पर आने के लिए यहाँ प्रयास कर रहे हैं. धरती के बीमार होने से इस प्रस्ताव की आवश्यकता बनता जा रहा है. ऋतु परिवर्तन हो चुका है, बहुत प्रजाति की वनस्पतियाँ लुप्त हो चुकी हैं, कई प्रकार की जीव प्रजातियाँ समाप्त हो चुकी हैं. लेकिन मनुष्य सुविधा-संग्रह के अलावा दूसरा कुछ सोच नहीं पा रहा है.
अब आगे का कार्यक्रम है - यदि साक्षात्कार नहीं हुआ है तो अध्ययन से साक्षात्कार का रास्ता बनाया जाए. यदि साक्षात्कार हो रहा है तो उसके अनुसार जीने का डिजाईन तैयार किया जाए. इसमें दूसरा पुराण-पंचांग कुछ नहीं है.
पहले यह पता चल जाता तो समय बच जाता, ऐसा सोचने की जगह - जब जागे तभी सवेरा हुआ मान लो!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
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