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Wednesday, April 6, 2022

मानव-मानव में समानता की पहचान

 मानव-मानव में समानता की पहचान के साथ ही उनका "साथ में रहना" प्रमाणित होता है.  समानता की पहचान अधूरा रहता है तो उनका "सहवास में रहना" ही बनता है.  "साथ में रहना" में निरंतरता बनता है.  "सहवास में रहना" में निरंतरता बनता नहीं है.  रूप-गुण-स्वभाव-धर्म में विषमता ही सहवास में रहने की बाध्यता है.  इसमें से रूप और गुण कभी दो मानवों के समान नहीं हो सकते.  आपका रूप और मेरा रूप एक नहीं हो सकता.  रचना की खूबी मौलिक रूप में हरेक में अलग-अलग हम देखते है.  गुणों के आधार पर काम करने की जगह में हम और आप अलग-अलग ही रहेंगे.  समान रूप से काम करके हम तृप्ति नहीं पाते हैं.  स्वभाव और धर्म में एकरूपता होने पर मानव का "साथ में रहना" या "जीना" बन जाता है.  मानव में ज्ञान ही स्वभाव और धर्म में एकरूपता का आधार है.  स्वभाव और धर्म के आधार पर मानव जाति एक हो सकती है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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