प्रश्न: "समय" या "काल" वास्तव में क्या है? एक तो हम घड़ी में जो टाइम देखते हैं उसको हम समय कहते हैं. शास्त्रों में काल भगवान के बारे में लिखा है. इसकी वास्तविकता क्या है?
उत्तर: काल को पहचानने की अभीप्सा मानव में रहा ही है. काल सही मायनों में नित्य वर्तमान स्वरूपी अस्तित्व ही है. क्रिया की अवधि में काल-खंड की पहचान है. शास्त्रों में जो लिखा है "कालो जगत भक्षकः" - ऐसा कुछ नहीं है.
प्रश्न: काल-खंड की पहचान मनुष्य द्वारा कैसे की गयी?
उत्तर: मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए काल-खण्डों को पहचाना. दूसरे ज्योतिषियों को काल-खंड को पहचानने की आवश्यकता निर्मित हुई. ज्योतिषियों ने क्रिया की अवधि को 'काल' के रूप में पहचाना. अर्ध-सूर्योदय से अर्ध-सूर्योदय तक धरती की (घूर्णन) क्रिया को उन्होंने 'एक दिन' नाम दिया. 'उदयात उदयम दिनम' - यह लिखा. फिर एक दिन को २४ घंटों में भाग किया, एक घंटे को ६० मिनट भाग किया, एक मिनट को ६० सेकंड भाग किया, इस तरह ले गए. किन्तु 'दिन' की परिकल्पना को उन्होंने बनाए रखा.
विज्ञान आने पर उन्होंने काल की परिकल्पना को धरती की क्रिया से अलग कर दिया. काल-खंड का विभाजन करते चले गए, विखंडित करते करते कालखंड को इतना छोटा कर दिया कि वर्तमान है ही नहीं बता दिया. काल को गणितीय संख्या मान लिया. इस तरह गणितीय विधि से वर्तमान को शून्य कर दिया. जबकि अस्तित्व वर्तमान ही है.
प्रश्न: काल या वर्तमान का क्या स्वरूप है?
उत्तर: काल को पहचानने के लिए वर्तमान को पहचानना होगा. मात्रा और क्रिया के संयुक्त रूप में वर्तमान है. वर्तने के मूल में मात्रा होता ही है. वर्तना = स्थिति-गति. हरेक मात्रा के साथ स्थिति-गति बनी रहती है. चाहे इकाई का कितना भी परिवर्तन हो, परिणाम हो, विकास हो या ह्रास हो - इकाई की स्थिति-गति बनी ही रहती है. यह वर्तमान का स्वरूप है. निरंतर मात्रा सहित स्थिति-गति में होना ही वर्तमान है. कोई ऐसा मात्रा नहीं है जो स्थिति-गति के रूप में वर्तमान न हो.
प्रश्न: काल-खंड की गणना की तो व्यवहारिक उपयोगिता है. गणितीय विधि से काल को पहचानने में क्या परेशानी है?
उत्तर: यदि हम काल का आधार दिन से दिन तक मानते हैं, तो उसका आधार धरती की घूर्णन क्रिया है जो निरंतर है. उसके बाद दिन के खंड-खंड करते करते छोटे से छोटे टुकड़े तक पहुँच जाते हैं, क्रिया को भूल जाते हैं और गणित को पकड़ लेते हैं तो वह वस्तुविहीन काल हो जाता है, वर्तमान नहीं रह जाता है. वस्तु विहीन काल को ही हम कहते हैं - वर्तमान को शून्य कर दिया. इस तरह गणित के अनुसार चलते हुए हम वस्तु विहीन जगह में पहुँच जाते हैं. इस तरह गणित कोई बहुत भारी सत्य की गणना करता है - ऐसा मेरा नहीं कहना है. गणित वस्तुओं की गणना करने के लिए उपयुक्त है. वांछित काल की गणना करने के लिए गणित उपयुक्त है. एक दिन, दो दिन, दस दिन, १०० वर्ष... इस तरह की गणना गणित कर सकता है. काल की गणना गणित नहीं कर सकता. काल की परिकल्पना मानव के पास है.
यदि हम काल की गणना करना भी चाहें तो भी क्रिया तो निरंतर रहता ही है. जैसे - यह धरती ठोस है. दूसरा धरती ठोस नहीं है. कालान्तर में वह ठोस होता है. ठोस होने पर भी वह वर्तमान की रेखा में ही होता है. वर्तमान की रेखा को छोड़ करके वह ठोस हो जाए - ऐसा कोई तरीका नहीं है. वर्तमान अभी भी है, कल भी है, उसके आगे भी है. वर्तमान की निरंतरता है. इसी तरह सारे परिणाम वर्तमान की रेखा में ही हैं. अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है - इस आधार पर वर्तमान निरंतर है.
प्रश्न: रासायनिक-भौतिक परिणितियां होने से हमको विगत और भविष्य का भास होता है, इस तरह हम भूतकाल और भविष्य काल को पहचानते हैं. क्या रासायनिक-भौतिक परिणितियां होने से वर्तमान में कोई अंतर नहीं आता?
उत्तर: क्रियाएं परिणित हो कर दूसरी क्रियाओं के रूप में ही होते हैं. परिणिति से मात्रा का अभाव नहीं हो जाता. जैसे - लोहा परिणित हो कर मिट्टी हो गया, तो मिट्टी का वर्तमान है ही. मिट्टी परिणित हो कर पत्थर हो गया, तो पत्थर का वर्तमान है ही. पत्थर परिणित हो कर मणि हो गया, तो मणि का वर्तमान है ही. मणि परिणित हो कर धातु हो गया, तो धातु का वर्तमान है ही. वर्तमान कभी भी समाप्त नहीं होता.
एक समय ठोस रूप में वर्तमान है, दुसरे समय विरल रूप में वर्तमान है - वर्तमान कहाँ पीछे छुटा? वर्तमान कहाँ पीछे छूट सकता है? वस्तु का तिरोभाव होता ही नहीं है. भौतिक संसार और रासायनिक संसार में परिणितियां होती ही हैं. ये दोनों परिणामवादी हैं ही. इसी परिणामवादी भौतिक-रासायनिक संसार को ही जड़ प्रकृति कहते हैं.
परिणित होने के बाद भी वस्तु दुसरे स्वरूप में कार्य करता ही रहता है. कार्य मुक्ति वस्तु का कभी होता ही नहीं है. मात्रा का वर्तने का काम नित्य है - परिणित हो या यथास्थिति में हो. कई वस्तुएं लम्बे समय तक यथास्थिति में रहते हैं, तो कई शीघ्र परिणाम को भी प्राप्त कर लेते हैं. इसी क्रम में जीवन अपरिणामी हो जाता है. जीवन के साथ परिणाम का सम्बन्ध छूट जाता है. जीवन में गुणात्मक विकास होता है, जबकि भौतिक-रासायनिक संसार में मात्रात्मक विकास और ह्रास होता है. भौतिक-रासायनिक संसार में विकास और ह्रास की गणना को ही 'परिणाम' कहते हैं.
परिणाम को यदि हम काल का आधार बनाने जाते हैं तो हम फंस जाते हैं. काल का कोई निश्चित स्वरूप उससे नहीं बनता.
प्रश्न: परिणाम से मुक्त वस्तु को क्या "काल" को पहचानने का आधार बनाया जा सकता है?
उत्तर: जीवन परिणाम से मुक्त है. मानव जीवन ही काल को नित्य वर्तमान स्वरूप में अनुभव करता है. जीवन के लिए तो कालखंड होता नहीं है. शरीर चलाओ या न चलाओ, जीवन तो रहता ही है. जीवन में परिणितियां होती ही नहीं हैं, उसमे काल का बाधा होता नहीं है. काल की बाधा से मुक्त होने के साथ-साथ और भी बहुत सी बाधाओं से जीवन मुक्त है. रासायनिक-भौतिक रचना (शरीर) की पुष्टि या असहयोग की बाधा से भी जीवन मुक्त है. शरीर को छोड़ करके भी जीवन रहता ही है. जीवन शरीर के साथ भी वैसे ही रहता है, शरीर के बाद भी वैसे ही रहता है. इस आधार पर जीवन की निरंतरता है ही. जीवन में गुणात्मक परिवर्तन (चेतना विकास) की बात हम प्रस्तुत किये. जीवों में जीवन के कुछ गुण प्रमाणित हुए, मनुष्य में कुछ गुण अभी तक प्रमाणित हुए, इसके आगे और गुणों को प्रमाणित होने की आवश्यकता है - जिसे हम 'जागृति' नाम दे रहे हैं. जीवन की यथास्थिति जागृति की हो तो उसकी निरंतरता सुखद होगी, सुंदर होगी, सौभाग्यमय होगी - यह हम अपने अनुभव और परिकल्पना में जोड़ कर चल रहे हैं.
इस तरह काल की सही व्याख्या वर्तमान ही है. हर परिणाम की यथास्थिति वर्तमान की रेखा में ही है. इस तरह वर्तमान की निरंतरता को हम अच्छी तरह से स्वीकार सकते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)
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