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Friday, September 8, 2017

अहंकार, प्रत्यावर्तन, आत्म-बोध


  • असत्य बोध जब तक है, तब तक ही बुद्धि की अहंकार संज्ञा है.  अहंकार का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। [पेज ५७]
  • अहंकार और असत्य बोध ये दोनों सत्यता के प्रति अनर्हता के द्योतक हैं.  [पेज ५७]
  • सत्य बोध अध्ययन की अंतिम उपलब्धि है तथा अनुभव का स्वभाव है.  [पेज ५७]
  • स्थूल शरीर और मन के बीच आशा, मन और वृत्ति के मध्य में विचार, वृत्ति और चित्त के बीच में इच्छा, चित्त व बुद्धि के मध्य में संकल्प तथा बुद्धि और आत्मा के मध्य में संकल्प के अस्तित्व की अपेक्षा रहती ही है तथा यह परावर्तन क्रिया है.  [पेज १८२]
  • स्थूल शरीर द्वारा आस्वादन और चयन के लिए मन में आशा, मन की इस आशा के समर्थन के लिए वृत्ति में विचार, वृत्ति के ऐसे विचार के समर्थन के लिए चित्त में इच्छा, चित्त की ऐसी इच्छा के समर्थन के लिए बुद्धि में संकल्प,तथा बुद्धि में ऐसे संकल्प के लिए आत्मा के समर्थन की कामना बनी ही रहती है.   [पेज १८२]
  • इस परस्परता में विषमता बनी ही रहती है.  कारण -  शरीर से मन, मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त, चित्त से बुद्धि, तथा बुद्धि से आत्मा विकसित इकाई सिद्ध है.
    • मन के अनुरूप ही स्थूल शरीर का संचालन है.  जिससे इनके बीच में आशा बनी ही रहती है.  वृत्ति अपने अनुसार मन और शरीर का उपयोग चाहती है.  इसी क्रम से वृत्ति, चित्त, बुद्धि तथा आत्मा में विषमता बनी ही रहती है.  यह विषमता ही श्रम की अनुभूति और विश्राम की तृषा के लिए कारण सिद्ध होती है.  [पेज १८३]
  •  निश्चयात्मक निरंतरता ही संकल्प है.  निश्चय सहित चित्रण ही योजना है तथा योजना सहित विचार ही अभिव्यक्ति है.  [पेज १८९]
  • पूर्वानुषन्गिक संकेत ग्रहण योग्यता का प्रादुर्भाव शक्ति की अंतर्नियामन प्रक्रिया से ही है.  यह व्यवहार का विचार में, विचार का इच्छा में, इच्छा का संकल्प में, संकल्प का आत्मा में अथवा मध्यस्थ क्रिया में प्रत्यावर्तन ही है.  [पेज १८९]
  • मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि की एकसूत्रता से (परानुक्रमता से) न्यायपूर्ण व्यवहार एवं धर्मपूर्ण विचार के लिए सत्य भासित होता है.  ऐसी स्थिति में 'अल्प बोध' होता है, जिसका विकल्प (बदलना) ही स्वभाव है.  इसी की अहंकार संज्ञा है.  [पेज १८९]
  • बुद्धि जब आत्मा का संकेत ग्रहण करने योग्य विकास को पाती है तब 'स्व बोध' होता है - जिसे 'आत्म-बोध' भी कहते हैं.  आत्म-बोध से सत्य संकल्प होता है.  सत्य संकल्प मात्र सत्य पूर्ण ही है.  [पेज १८९]
  • ज्ञानावस्था में बुद्धि तीन अवस्थाओं में परिलक्षित होती है: -
    1. अल्प-विकसित: - मन में इच्छा पूर्वक विचार व आशावादी प्रवृत्ति हो तो उसे अल्प-विकसित की संज्ञा दी जाती है.  इस दशा में मन और वृत्ति चित्त-तंत्रित होते हैं.
    2. अर्ध-विकसित: - आत्म-बोध रहित संकल्प पूर्वक इच्छा, विचार व आशा की प्रवृत्ति को अर्ध-विकसित की संज्ञा है.  इस दशा में मन, वृत्ति व चित्त बुद्धि-तंत्रित होते हैं.
    3. पूर्ण-विकसित: - आत्म-बोध सहित संकल्प पूर्वक इच्छा, विचार व आशा प्रवृत्ति को पूर्ण-विकसित की संज्ञा है.  इस दशा में मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि आत्मा द्वारा नियंत्रित व अनुशासित होते हैं.  [पेज १८४-१८५]
  • केवल वृत्ति और मन के संयोग की स्थिति में मनुष्य में निद्रा एवं स्वप्न का कार्य ही संपादित होता है. [पेज १८५]
  • आत्म-बोध पर्यंत मनुष्य के द्वारा जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्था में कायिक, वाचिक तथा मानसिक साधनों से समस्त क्रियाकलाप के मूल में अहंकार ही है.  [पेज १८५]
  • असत्य बोध सहित जो बुद्धि है, उसे 'अहंकार' की संज्ञा है.  आत्म-बोध होने तक अहंकार का अभाव नहीं है. [पेज १८५]
  • अपराध के अभाव में आशा का प्रत्यावर्तन, अन्याय के अभाव में विचार का प्रत्यावर्तन, आसक्ति के अभाव में इच्छा का प्रत्यावर्तन, तथा अज्ञान के अभाव में संकल्प का प्रत्यावर्तन होता है.  
    • अतः अपराधहीन व्यवहार के लिए व्यवस्था का दबाव, अन्यायहीन विचार के लिए सामाजिक आचरण का दबाव, तथा अज्ञान रहित बुद्धि के लिए अंतर्नियामन अथवा ध्यान का दबाव आवश्यक है, जिससे ही प्रत्यावर्तन क्रिया सफल है अन्यथा असफल है.
    • अतः निष्कर्ष निकलता है कि मानवीयता पूर्ण व्यवस्था, सामाजिक आचरण, अध्ययन और संस्कार के साथ ही अंतर्नियामन आवश्यक है, जिससे चरम विकास की उपलब्धि संभव है.  [पेज १८९]
  • बौद्धिक पक्ष में मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि की क्रियाएं हैं.  मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि मनुष्य के प्रत्येक क्रियाकलाप के साथ हैं ही, फिर भी मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि द्वारा आशित कामना की पूर्ति देखने में नहीं आती.  अर्थात मन द्वारा सुख की, वृत्ति द्वारा शांति की, चित्त द्वारा संतोष की, और बुद्धि द्वारा आनंद की अनुभूति की सतत आशा है, फिर भी यह पूर्ण नहीं होती।  मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि की आशित कामना की अपूर्ति ही 'रहस्य' के रूप में प्रकट होती है, जो कि दुःख का कारण बनती है.  [पेज १९०-१९१]
  • इस रहस्य के मूल में अहंकार है.
    • बोध के अभाव में बुद्धि द्वारा लिए गए संकल्प में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष का रहना अनिवार्य है.  फलतः काल्पनिक आरोप संकल्प में होगा ही.  संकल्प में यह काल्पनिक आरोप जो होता है, उसी की 'अहंकार' संज्ञा है.  [पेज १९१]
  • आत्म-बोध ही आध्यात्मिक उपलब्धि है.
    • अंतर्नियामन प्रक्रिया द्वारा ही आत्म-बोध होता है, जो ध्यान की चरम उपलब्धि है.  यह ही पूर्ण विकास है.  ऐसे आत्म-बोध से पूर्ण विकसित इकाई को पूर्ण चैतन्य की संज्ञा है तथा इन्हें ही देवता की भी संज्ञा है.  [पेज १९१]
  • आत्मा की ओर बुद्धि का प्रत्यावर्तन होते ही आत्म-बोध तथा ब्रह्मानुभूति (व्यापक सत्ता की अनुभूति) एक साथ प्रभावशील होती है.  प्रभावित हो जाना ही उपलब्धि है.  ऐसी उपलब्धि बुद्धि को आप्लावित किये रखती है.  [पेज १९२]
  • स्व-स्वरूप (आत्मा या मध्यस्थ क्रिया) मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि से अधिक विकसित है.  फलस्वरूप ही आत्मा के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित होने तक बुद्धि में आनंदानुभूति, चित्त में संतोषानुभूति, वृत्ति में शांति की अनुभूति तथा मन में सुखानुभूति नहीं है.  [पेज १९५]
  • बुद्धि एवं आत्मा के बीच में आत्मा का ही वातावरण पाया जाता है क्योंकि आत्मा मध्यस्थ है.  यह वातावरण दबावपूर्ण और प्रभावपूर्ण दोनों रहता है.  आत्मविमुख बुद्धि आत्माकृत वातावरण के दबाव में अनानंद तथा आत्माभिमुख बुद्धि आत्मकृत वातावरण के प्रभाव में आनंद की अनुभूति करती है.  [पेज १९८]
  • मन में आवेश, वृत्ति में हठ, चित्त में भ्रम तथा बुद्धि में अहंकार ही परावर्तन क्रिया है.  और मन में मित्र-आशा, वृत्ति में विचार, चित्त में इच्छा, और बुद्धि में संकल्प ही प्रत्यावर्तन क्रिया है.  [पेज १९८]
  • स्वशक्ति से दूसरे पर प्रभाव डालना परावर्तन है और ग्राहकता द्वारा वातावरण को प्रभावशील बनाना प्रत्यावर्तन क्रिया है.  [पेज १९८]
  • परावर्तन क्रिया में आत्म-सत्ता का बुद्धि में, बुद्धि सत्ता का चित्त में, चित्त सत्ता का वृत्ति में, तथा वृत्ति सत्ता का मन में पूर्णतया अवगाहन करने का प्रयास है.  चूँकि मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त, चित्त से बुद्धि, बुद्धि से आत्मा विकसित है, अतः भ्रम पर्यंत पूर्ण अवगाहन नहीं हो पाता, जो परावर्तन क्रम अनुसार अनानंद, असंतोष, अशांति और दुःख का कारण बनता है. [पेज १९९]
  • आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने के कारण प्रभाव ही रहता है क्योंकि दबाव सम-विषम के मध्य में ही है.  प्रभाव मध्यस्थ होने के कारण शून्य है.  शून्य मात्र प्रभाव ही है.  दबाव केवल क्रिया में है.  [पेज १९९]
  • व्यापकता की अनुभूति आत्मा करती है तभी बुद्धि का प्रत्यावर्तन संभव होता है.  [पेज २१०]
  • प्रत्यावर्तन ही विकास का कारण है. [पेज २१०]
- मानव व्यवहार दर्शन (१९७८ संस्करण से)


  • स्वस्वरूप (आत्मा) स्वयं ही ज्ञाता है क्योंकि उसे अनवरत साम्य शक्ति अनवरत व्यवधान के रूप में प्राप्त है, इसीलिये उसके बोध मात्र से ही सम्पूर्ण संसार के सर्वस्व को समझने की क्षमता, योग्यता, पात्रता बुद्धि को स्वभावतः उत्पन्न होती है.  [ पेज ७३, मानव व्यव्हार दर्शन १९७२ संस्करण]

  • आत्मबोध ही सत्य जिज्ञासा का प्रधान लक्षण है.  इसलिए - अवधारणा ही अनुगमन तथा अनुशीलन के लिए प्रवृत्ति है, जो शिष्टता के रूप में प्रत्यक्ष होती है.  प्रगति के लिए अवधारणा अनिवार्य है.  जागृति के लिए अवधारणा एवं ह्रास के लिए आसक्ति प्रसिद्द है.  यही क्रम से निवृत्ति व प्रवृत्ति है.  अवधारणा ही सदविवेक है.  सदविवेक स्वयं में सत्यता की विवेचना है जो स्पष्ट है.  मूलतः यही शुभ एवं मांगल्य है.  अनुभव की अवधारणा सत्य बोध के रूप में; अवधारणा (सम्यक बोध) ही सत्य-संकल्प है.  यही परावर्तित हो कर शुभकर्म, उपासना, तथा आचरण के रूप में प्रत्यक्ष है.  इसी का परावर्तित मूल्य ही धीरता, वीरता, उदारता, दया,   कृपा और करुणा के रूप में प्रत्यक्ष है. [ पेज ७१, मानव कर्म  दर्शन, २००४  संस्करण]

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