सत्ता मूल ताकत है. जो सभी वस्तुओं में पारगामी है. सत्ता में भीगे होने के आधार पर हर वस्तु बल संपन्न है और कार्यशील होने के लिए प्रवृत्त है. कार्यशील होने के लिए वस्तु में आकर्षण और प्रत्याकर्षण का योग होना आवश्यक है.
परमाणु में क्रिया का मतलब ही श्रम-गति-परिणाम है. श्रम-गति-परिणाम पूर्वक प्रत्येक परमाणु में आकर्षण-प्रत्याकर्षण के योगफल में उत्सव होता ही रहता है. हर इकाई के अंग-अवयवों के बीच ऐसा आकर्षण-प्रत्याकर्षण होता ही रहता है. जैसे - आपके शरीर में आँख के साथ हाथ, हाथ के साथ पाँव - इनके बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण पूर्वक ही उनकी कार्य गति है. जबकि आपका शरीर एक ही है. उसी तरह परमाणु एक ही है, पर उसमें श्रम, गति और परिणाम - ये तीनो उसकी क्रिया की व्याख़्या करते हैं. श्रम और गति के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने पर कार्य-गति का स्वरूप (परिणाम) बनता है. गति और परिणाम के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने से कार्य-गति का स्वरूप (श्रम) बनता है. श्रम और परिणाम के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने से कार्य-गति का स्वरूप (गति) बनता है. क्रिया नित्य अभिव्यक्ति है, नित्य प्रकाशमान है - यह कहीं रुकता ही नहीं है. इसकी रुकी हुई जगह को कहीं/कभी पहचाना नहीं जा सकता। यह निरंतर है. परस्परता में ही गति की बात है. परस्परता नहीं तो गति की कोई बात ही नहीं हो सकती। विकासशील परमाणुओं में कम से कम दो अंशों का गठन है, जिनमे आकर्षण-प्रत्याकर्षण और उसके फलन में कम्पनात्मक गति और वर्तुलात्मक गति बना ही रहता है. कम्पनात्मक गति और वर्तुलात्मक गति परमाणु की कार्यशीलता का ही स्वरूप है. हर परमाणु कार्यरत है - ऊर्जा सम्पन्नता वश, बल सम्पन्नता वश, चुम्बकीय बल सम्पन्नता वश. परमाणु में क्रियाशीलता के लिए स्वयं में ही प्रेरणा-विधि और कार्य-विधि बनी है. जड़ परमाणुओं में श्रमशीलता भी है, गतिशीलता भी है, परिणामशीलता भी है. ये तीनो - श्रमशीलता, गतिशीलता, परिणामशीलता - एक दूसरे के लिए प्रेरक हैं.
मात्रा (इकाई) की पहचान क्रिया सहित ही है. क्रिया के बिना मात्रा की पहचान नहीं है. कुछ भी निष्क्रिय मात्रा आप नहीं पाओगे. क्रिया का व्याख्या जड़ संसार में श्रम-गति-परिणाम है. चैतन्य संसार में भ्रम और जागृति स्वरूप में क्रिया है. श्रम, गति, परिणाम स्वरूप में जड़-क्रिया और भ्रम-जागृति स्वरूप में चैतन्य क्रिया है. और कुछ होता नहीं। इस अनंत संसार की सम्पूर्ण क्रिया मूलतः इतना ही है.
क्रिया ऊर्जा-सम्पन्नता वश है. सत्ता ऊर्जा है. सत्ता पारगामी है. सत्ता को अवरोध करने वाली एक भी वस्तु नहीं है. पहले इस सत्य को अपनी अवधारणा में लाओ. क्रिया एक-एक इकाइयों के रूप में है. एक-एक होने से आशय है, उसके सभी ओर सत्ता है. प्रत्येक एक के सभी ओर सत्ता का होना ही 'सीमा' है. हरेक एक सीमित रूप में रचित है. इकाई के सभी ओर सत्ता का होना ही उस इकाई की नियंत्रण रेखा है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी आश्रम, सितम्बर १९९९)
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