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Monday, May 22, 2017

मानव के अध्ययन का आधार

मनुष्य जो कुछ भी करता है - उसके मूल में "अच्छा लगने" की इच्छा है। सबसे पहले मनुष्य को संवेदनाओं में ही अच्छा लगता है। यही मानव की कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता का पहला प्रभाव है। इसी आधार पर मानव को ज्ञान-अवस्था में कहा है। मनुष्य का सारा क्रिया-कलाप सुख की अपेक्षा में है - यहीं से मानव का अध्ययन शुरू होता है। इस विधि से जब हम मानव का अध्ययन करने जाते हैं - तो यह विगत के इतिहास में जो कुछ भी हुआ, उससे जुड़ता नहीं है। इसके साथ विगत का सारा screen ख़त्म।

मानव के अध्ययन का reference यह हुआ, न कि विगत का कोई अवशेष!

विगत से आपके पास मानव-शरीर है, और भाषा (शब्द-संसार) है। और विगत का कोई पुच्छल्ला इस प्रस्ताव के अध्ययन के लिए आपको नहीं चाहिए। शब्द/भाषा विगत से है - परिभाषाएं इस प्रस्ताव की हैं। परिभाषाएं ज्ञान के अर्थ में हैं।

यहाँ से आप अध्ययन शुरू करिए।

शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध इन्द्रियों का जो ज्ञान है - वह किसको होता है? शरीर को होता है, या शरीर के अलावा और किसी को होता है? विगत में ज्ञान, ज्ञाता, और ज्ञेय ब्रह्म को ही बताया। साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता दिया। उसके विकल्प में यहाँ प्रस्तावित है - ज्ञान व्यक्त है और ज्ञान वचनीय भी है। ज्ञान को हम समझ सकते हैं, और समझा भी सकते हैं। ज्ञान का मतलब ही यही है - जिसे हम समझ भी सकें, और समझा भी पाएं। ज्ञान शरीर को नहीं होता। ज्ञान जीवन को होता है। जीवन ही ज्ञाता है। इन्द्रियों से भी जो ज्ञान होता है वह जीवन को ही होता है। जीवन ही समझता है। जीवन ही जीवन को समझाता है।

यहाँ एक समीक्षा हो सकती है - विगत ने हमको क्या दिया फ़िर? विगत से आयी आदर्शवाद और भौतिकवाद (बनाम विज्ञान) ने हमको क्या दिया? आदर्शवाद ने हमको शब्द-ज्ञान दिया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है। भौतिकवाद (विज्ञान) ने सभी तरह के time और space के नाप-तौल की विधियां दी, जिससे कार्य (work) को पहचाना गया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है।

 इन दोनों से मनुष्य को जो ज्ञान हुआ वह पर्याप्त नहीं हुआ। कुछ और समझने की ज़रूरत बनी रही। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना।

धरती क्यों और कैसे बीमार हो गयी, और यह ठीक कैसे होगी - इसके लिए जो ज्ञान चाहिए वह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों के पास नहीं है।

यही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का reference point है। तर्क-संगत होने के लिए, व्यवहार-संगत होने के लिए, अपने-आप का मूल्यांकन करने के लिए, और स्वयं का अध्ययन करने के लिए - यही reference point है। अध्ययन के लिए इस reference point को अपने में अच्छे से स्थिर बनाना चाहिए, वरना हम बारम्बार वही पुराने में गुड-गोबर करने लगते हैं।

इस तरह - इस विकल्प को सोचने के लिए, अध्ययन करने के लिए हमारे पास एक आधार-भूमि तैयार हुई।

(अगस्त २००६)

प्रश्न:  हम आपको कैसे सुनें?  किस तरह आपसे अपनी जिज्ञासा व्यक्त करें?  कैसे आपकी बात का मनन करें ताकि उसको हम पूर्णतया सही-सही ग्रहण कर सकें और किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकें?

उत्तर: जीने में इसको प्रमाणित करना चाहते हैं, तभी यह जिज्ञासा बनता है.  सुनने का तरीका, सोचने का तरीका, सोचने में कहीं रुकें तो प्रश्न करने का तरीका, प्रश्न के उत्तर को पुनः अपने विचार में ले जाने का तरीका, अंततोगत्वा निश्चयन तक पहुँचने का तरीका - ये सब इसमें शामिल है.  यह संवाद की अच्छी पृष्ठ-भूमि है, इस पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है.

इसमें पहली बात है जो सुनते हैं उसी को सुनें, उसमें मिलावट करने का प्रयत्न न करें।  भाषा को न बदलें।  भाषा से इंगित होने वाली वस्तु को न बदलें।  अभी लोगों पर इस बात की गहरी मान्यता है कि "जिससे बात करनी है, उसी की भाषा में हमको बात करना पड़ेगा।"  जबकि उस भाषा के चलते ही वह सुविधा-संग्रह के चंगुल में पहुँचा है.  सुविधा-संग्रह को पूरा करने के उद्देश्य से ही उस सारी भाषा का प्रयोग है, जबकि वास्तविकता यह है कि सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा होता नहीं है.  इस संसार में सुविधा-संग्रह से मुक्त कोई भाषा ही नहीं है.  चाहे १० शब्दों वाली भाषा हो या १० करोड़ शब्दों वाली भाषा हो.  इस बात को सम्प्रेषित करने के लिए भाषा को बदलना होगा (ऐसा मैंने निर्णय किया).  जिस भाषा से अर्थ बोध होता हो वह भाषा सही है.  जिस भाषा में अर्थ बोध ही नहीं होना है, सुविधा-संग्रह का चक्कर ही बना रहना है, उस भाषा में इसको बता के भी क्या होगा?  ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी तीन जात में सारे आदमी हैं.  ये तीनों जात के आदमी सुविधा-संग्रह के चक्कर में पड़े हैं.

तो मूल बात की भाषा को न बदला जाए, उससे इंगित वस्तु को न बदला जाए.  वस्तु (वास्तविकता) स्थिर है.  यदि भाषा के साथ तोड़-मरोड़ करते हैं तो अर्थ बदल जाएगा, अर्थ बदला तो उससे वस्तु इंगित नहीं होगा।

मैंने जब इस बात को रखा तो कुछ लोगों ने कहा - "आप ऐसा कहोगे तो हम कुछ भी अपना नहीं कर पाएंगे?"

मैंने उनसे पूछा - इस भाषा को छोड़ के, कुछ और भाषा जोड़के आप क्या कर लोगे?  सिवाय संसार को भय-प्रलोभन और सुविधा-संग्रह की ओर दौड़ाने के आप क्या कर लोगे?  मूल बात की भाषा को बदलोगे तो आपका कथन वही सुविधा-संग्रह में ही जाएगा।  धीरे-धीरे उनको समझ में आ गया कि जो कहा जा रहा है उसको उसी के अनुसार सुना जाए, समझा जाए और जी के प्रमाणित किया जाए.  जी के प्रमाणित करने में कमी मिले तो इसको बदला जाए.  जिए बिना कैसे इसको बदलोगे?  इसको जिए नहीं हैं, पहले से ही इसमें परिवर्तन करने लगें तो वह आपकी अपनी व्याख्या होगी, मूल बात नहीं होगी।

परिवर्तन के साथ घमंड होता ही है.  मूल बात का reference point छूट गया फिर.  reference point छोड़ के हम संसार को सच्चाई बताने गए तो सवाल आएगा ही - इसका आधार क्या है?  स्वयं अनुभव हुआ नहीं है तो क्या हालत होगी?

या तो इस घोषणा के साथ शुरू करो कि मैं अनुभव-संपन्न हूँ, प्रमाण हूँ.  नहीं तो reference point से शुरू करो.  अनुभव यदि हो भी गया तो किस आधार पर हुआ - यह प्रश्न आएगा।  उसके उत्तर में जाएंगे तो मूल बात का reference ही आएगा।

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

अस्तित्व को समझने के लिए आधार (reference) को मानव ही प्रस्तुत करेगा।  अभी तक जिनको भी आधार  (reference) मानते हैं, वे मानव द्वारा ही प्रस्तुत किये गए हैं। उन आधारों पर चलने से तथ्य कुछ मिला नहीं।  प्रचलित आधारों को छोड़ करके यह प्रस्ताव है।  मैं इस नए आधार (reference) का प्रणेता हूँ।   इसको जांचने की आवश्यकता है कि यह पूरा पड़ता है या नहीं।  जांचने का अधिकार सभी के पास है।

प्रश्न: अध्ययन का यह नया आधार क्यों आया?

उत्तर: परंपरागत आधारों पर चलने से अपराध-मुक्ति का कोई स्वरूप निकला नहीं.  परंपरागत आधार न्याय, धर्म, सत्य का लोकव्यापीकरण कर नहीं पाए.  न्याय, धर्म, सत्य के लोकव्यापीकरण और अपराध-मुक्ति के लिए यह अध्ययन का नया आधार आया है.

(अप्रैल २००८, अमरकंटक)

"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" विधि से शिक्षा-तंत्र, संविधान-तंत्र, न्याय-तंत्र, उत्पादन-तंत्र, विनिमय-तंत्र, और स्वास्थ्य-संयम तंत्र के पक्ष में कार्य-व्यवहार के स्वरूप का प्रस्ताव प्रस्तुत हो चुका है। इन सभी मुद्दों पर मानव-परम्परा में पूर्णतया ध्यान देने की आवश्यकता है। इस मुद्दे पर अस्तित्व-मूलक मानव-केंद्रित चिंतन के मूल प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान, योजना) को प्रस्तुत किया जा चुका है। इन मुद्दों पर ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी के संतुष्ट होने के पश्चात मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद में इंगित अनेक मुद्दों पर प्रबंध, उप-प्रबंध, लघु-प्रबंध लिखा जा सकता है। जिनका आगे जो कक्षा १ से कक्षा १२ तक की पाठ्य-पुस्तकें बनेंगी - उनमें उपयोग होने का स्थान रहेगा।

मूल प्रबंध जो दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान के रूप में तैयार हुआ है - आरंभिक रूप में इसी के आधार पर पारंगत होने की आवश्यकता है। इसमें पारंगत व्यक्ति ही इन मूल प्रबंधों के आधार पर उप-प्रबंध, और लघु-प्रबंधों को प्रस्तुत करेगा। ऐसा प्रावधान आगे जो इस विचारधारा में प्रवेश चाहते हैं, उनके लिए सहायक होगा। मेरा विश्वास है - आगे आने वाले विद्वान, मनीषी, प्रतिभाशाली, विवेकी अपने स्वयं-स्फूर्त विधि से सर्व-शुभ के लिए ही अपने मंतव्यों को व्यक्त करेगा। इस विधि से उपकार होना स्वाभाविक है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

(अप्रैल २००६, अमरकंटक)

भाषा को बदलना विद्वता नहीं है। जो आपने सुना उसको दूसरे शब्दों में बदल दिया तो आप समझे कहाँ? जो मैंने कहा, उसको आपने बदल दिया – वहाँ भ्रान्ति होता ही है। बदली हुई भाषा से वह अर्थ इंगित ही नहीं होता है, तो भ्रान्ति के अलावा क्या होगा? मूल शब्द का छूटने को ही विद्वता मान लिया। जैसा भाषा है, उसको सुना जाए, उससे जो अर्थ इंगित है, उसको अपनाया जाए। इसमें किसको क्या तकलीफ है?

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

प्रश्न: आपकी भाषा शैली के बारे में कुछ बताइये.  हम दर्शन को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय किन बातों का ध्यान रखें?

भाषा अपने में स्वतन्त्र नहीं है, मानव द्वारा रचित शैली द्वारा नियंत्रित है.  शैली का एक आयाम है - कर्ता, कारण, कार्य, फल-परिणाम इनमे से किसको महत्त्व या प्राथमिकता देनी है उसको पहले रखना.
दर्शन में कारण को महत्त्व दिया है.  वाद में कर्ता को महत्त्व दिया है.  शास्त्र में कार्य को महत्त्व दिया है.  संविधान में फल-परिणाम को महत्त्व दिया है.

लिंग के आधार पर विभक्तियों को कम या समाप्त कर दिया.  इस प्रस्ताव को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय इस बात का ध्यान रहे.

प्रश्न:  शैली क्या समय के साथ बदलती है?

मूल वस्तु बदलता नहीं है, उसको बताने का तरीका समय के साथ बदल जाता है.

प्रश्न:  आपने अपनी समझ को बताने के लिए शब्दों का चुनाव कैसे किया?

उत्तर:  मैंने जब वस्तु को देखा तो उसको बताने के लिए नाम अपने आप से मुझ में आने लगा.  शब्द को मैंने बुलाया नहीं, शब्द अपने आप से आने लगा.  उसमें से एक शब्द को लगा दिया.

मैंने प्रयत्न पूर्वक इस दर्शन को व्यक्त किया, ऐसा नहीं है.  यह स्वाभाविक रूप में हुआ.  समझने के बाद सबको ऐसा ही होगा.  समझ के लिखा जाए तो लाभ होगा.

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

भविष्य में जब मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्व-वाद की परंपरा स्थापित होती है, तो क्या वैदिक विचार बना रहेगा या विलय हो जाएगा?

वैदिक विचार में की गयी शुभकामना स्वीकार होगा। शुभ-कामना के अनुरूप जो शिक्षा मिलनी चाहिए, वह मिलेगा। इसमें किसको क्या तकलीफ है? शुभ को प्रमाणित करने का स्वरूप मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद दिया है। यह किसी का विरोध नहीं है। विरोध करके हम आगे चल नहीं पायेंगे। मैंने किसी विरोधाभास को अपनाया नहीं है। यदि मेरी प्रस्तुति में कोई विरोधाभास है तो आप बताइये - मैं उसको ठीक कर दूंगा।

आदर्शवाद से हमे भाषा मिला। वे भी इसको "श्रुति" ही कहे हैं। भौतिकवाद से दूर-संचार मिला। ये दोनों (भाषा और दूर-संचार) मानव-जाति के लिए देन हैं - सटीक जीने के लिए। इनको परंपरा में बनाए रखने की आवश्यकता है।

भाषा जो हमे आदर्शवाद से मिला वह 'धातु' के आधार पर ध्वनित था। यहाँ मैंने ध्वनि के आधार पर परिभाषा दे दिया। इसकी आवश्यकता है या नहीं? - इसको आप विद्वान लोग सोचें!

आदर्शवाद से जो हमको प्रेरणा मिला, और भौतिकवाद से जो हमको प्रेरणा मिला - उसका विकल्प है यह! यह प्रस्ताव आदर्शवाद और भौतिकवाद के लक्ष्य से सम्बद्ध नहीं है। आदर्शवाद (रहस्यात्मक अध्यात्मवाद) में 'अस्तित्व-विहीन मोक्ष' के लक्ष्य की बात की गयी है। उससे मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव सम्बद्ध नहीं है। यहाँ 'अस्तित्वपूर्ण मोक्ष' की बात है। क्या लक्ष्य चाहिए - आप ही सोच लो! हमको उससे कोई परेशानी नहीं है। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' चाहिए तो रहस्यात्मक अध्यात्मवाद के पास जाओ। आदर्शवाद रहस्यमूलक होने से 'अस्तित्व-पूर्ण मोक्ष' को बता नहीं पाया। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' से मनुष्य संतुष्ट हो नहीं सकता। रहस्य विधि से अध्ययन हो नहीं सकता। रहस्य-विधि से हम शुभकामना ही व्यक्त कर सकते हैं। वही आदर्शवाद किया। रहस्य-विधि से हम प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते। शुभकामना व्यक्त करने मात्र से प्रमाण कहाँ हुआ?

आदर्शवाद में ज्ञान को सर्वोच्च बताया। ज्ञान क्या है? पूछा तो बताया - ब्रह्म ही ज्ञान है। ब्रह्म क्या है? -पूछा तो बताया - दृष्टा, दृश्य, दर्शन ये तीनो ब्रह्म ही हैं। कार्य, कारण, कर्ता - ये तीनो ब्रह्म ही हैं। यदि केवल ब्रह्म ही है - तो आप-हम क्यों बने हैं? किस प्रयोजन के लिए आपका नाम अलग है, मेरा नाम अलग है - सबका नाम 'ब्रह्म' ही क्यों नहीं हुआ? रहस्य से हम पार नहीं पाए। आप पार पाते हों, तो बताते रहना। आप रहस्य से पार नहीं पाओगे - यह मैं क्यों कहूं? इसीलिये अपनी बात को विकल्प रूप में प्रस्तुत किया।

प्रमाण को प्रस्तुत करने के लिए विकल्प दिया। इस विकल्प से किस ज्ञानी, किस विज्ञानी, किस अज्ञानी को तकलीफ है? प्रमाण चाहिए तो अध्ययन करके देखो! अध्ययन पूर्वक प्रमाण होता है तो आप उसको अपनाओगे, नहीं तो आप उसको अपनाओगे नहीं।

 (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

यहाँ आने से पहले - मुझे विज्ञान विधि से तर्क ठीक है, यह स्वीकृत रहा। और वेद-वेदान्त का "मोक्ष" शब्द मुझको स्वीकृत रहा। मोक्ष तो होना चाहिए - पर मोक्ष सब कुछ को छोड़ कर होना चाहिए - यह मेरा स्वीकृति नहीं हुई। विरक्ति छोड़े बिना हो नहीं सकती। विरक्ति-विधि बिना साधना हो नहीं सकती। यह तो शास्त्रों में भी लिखा हुआ है। इसी आधार पर मैंने अपने आप को साधना के लिए setup किया। हर अवस्था में चल के देखा। चलकर यही हुआ - यंत्रणा हमको पहुँचा नहीं। दो-चार हाथ दूर से ही चला गया। समस्या हमको छुआ नहीं। संसार का तर्क हमको परास्त नहीं कर पाया। यह सब उपकार नियति-विधि से ही होती रही। इसके अलावा मैं कहाँ thanks pay करूँ - बताओ?

इस ढंग से चल कर के जो अंत में निकला - उसको मैंने मानव का पुण्य माना। अपनी साधना का फल मैंने नहीं माना। इसीलिये निर्णय किया - मानव को इसे पकडाया जाए। पकडाने में ही सारा चक्कर है - पापड बेल रहे हैं! आप सभी जो मेरे साथ इस टेबल पर बैठे हो - आप सभी के साथ ऐसा ही है। "हमारा विचार" कह कर अपनी बात रखते हो - तो मैं क्या तुमको बताऊँ? "आपका विचार" क्या हुआ? मानव का विचार यह है! देवमानव का विचार यह है! दिव्यमानव का विचार यह है! पशुमानव का विचार यह है! राक्षसमानव का विचार यह है! इन पाँच विचार शैलियों को पढ़ लो! यदि इच्छा हो तो! नहीं इच्छा हो तो बिल्कुल कृपा करो! यह जो विचारों को demarcate करने का अधिकार (मुझमें) आया - उसको अदभुत मानो! यह चेतना विधि से किया - जीवचेतना, मानवचेतना, देवचेतना, और दिव्यचेतना के अनुसार विचार हैं। अब उसमें आप कहते हो - तुम्हारा भाषा कठिन है! कैसे मैं इसका व्याख्या करूँ, बड़ा मुश्किल है! केवल आपका सम्मान करने के अलावा हम कुछ कर नहीं पाते हैं।

(अमरकंटक, अगस्त २००६)

बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर

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