समझदारी के इस लोकव्यापीकरण कार्यक्रम में हर व्यक्ति "स्वेच्छा" से भागीदार हो सकता हैं।
यह कोई "उपदेश" नहीं है।
मैं स्वयं एक वेदमूर्ति परिवार से हूँ। उपदेश देने में मैं माहिर हूँ। उपदेश की विधि है - "जो न मैं समझा हों, और न आप समझोगे - उसको मैं आपको बताऊँ, फ़िर आप मुझे कुछ दे कर खुश हों, मैं आप से वह ले कर खुश होऊं!" इस तरीके को मैंने छोड़ दिया - क्योंकि यह निरर्थक है, इससे कोई प्रयोजन नहीं निकलता। प्रयोजन जिससे निकलता है, उसको अनुसन्धान करने में मैंने २५ वर्ष लगाया, फ़िर और २५ वर्ष लगाया उसको संसार को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए, फ़िर १० वर्ष से इस बात को लोगों के सम्मुख रखने योग्य हुए। आज इस बात को करीब २००० लोग अध्ययन कर रहे हैं। आगे और लोग इसको अध्ययन करेंगे - यह आशा किया जा सकता है। जो चाहें, वे अध्ययन करने में भागीदारी कर सकते हैं।
अध्ययन कराने को लेकर हम प्रतिज्ञा किए हैं - "ज्ञान व्यापार" और "धर्म व्यापार" हम नहीं करेंगे। अध्ययन के लिए कोई दक्षिणा उगाहने की बात नहीं है। अध्ययन के लिए कोई शुल्क नहीं रखा है। ज्ञान जीवन सहज-अपेक्षा है। ज्ञान को टुकडा करके बेचा नहीं जा सकता। अभी जो "बुद्धि-जीवी" कहलाये जाते हैं - वे अपने ज्ञान को "बेच" रहे हैं। उनसे पूछने पर - "ज्ञान को कैसे बेचोगे? 'ज्ञान' को तुम क्या जानते हो?" - उनसे कोई उत्तर मिलता नहीं है। इस बात का कोई उत्तर देने वाला हो तो मैं उसको फूल माला पहना करके सुनूंगा! ज्ञान को "बेचने की विधि" को मुझे बताने वाला आज तक मिला नहीं है। अभी ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार में कितने लोग लगे हैं, उसका आंकडा रखा ही है। सारी दरिद्रता, सारी अपराध-प्रवृत्ति धर्म-व्यापार और ज्ञान-व्यापार से ही है।
समझदार होने के बाद हम धर्म-व्यापार करेंगे नहीं, ज्ञान-व्यापार करेंगे नहीं। मैं यदि "धर्म" को समझता हूँ तो मैं अपने बच्चे को उसके योग्य बनाऊं, अपने अडोस-पड़ोस के व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं, अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं - यही बनता है। मैं वही कर रहा हूँ। मेरे संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के बीच मैं काम कर रहा हूँ। व्यापार से मुक्त - धर्म और ज्ञान का बोध कराने की मैंने व्यवस्था कर दिया।
धर्म-आचार्यों से मैंने इस बारे में (ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार को लेकर) बात-चीत किया। इस बात को छेड़ने से आचार्य-लोग बहुत नाराज होते हैं। मैं उन आचार्यों की बात कर रहा हूँ जो शंकराचार्य पद पर बैठे हैं। एक आचार्य नाराज नहीं हुए। वे थे - श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य! वे अमरकंटक आए थे, उसके बाद उनसे सत्संग हुआ, उन्होंने मेरी बात को अध्ययन करने के बाद बताया - "तुमने एक महत कार्य किया है। हम तो धर्म के लक्षणों को बताकर शिष्टानुमोदन करते हैं, तुमने धर्म का अध्ययन कराने का व्यवस्था किया है।" ऐसा एक ही ऐसे व्यक्ति ने कहा। दूसरा ऐसे व्यक्ति ने अभी तक कहा नहीं है। इन सब बातों से जो मुझे संतोष मिलना था, मिलता रहा। मैं आगे-आगे बढ़ता गया, और इस प्रकार चलते-चलते आज आप लोगों के सान्निध्य में आ गया।
- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (४ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)
यह कोई "उपदेश" नहीं है।
मैं स्वयं एक वेदमूर्ति परिवार से हूँ। उपदेश देने में मैं माहिर हूँ। उपदेश की विधि है - "जो न मैं समझा हों, और न आप समझोगे - उसको मैं आपको बताऊँ, फ़िर आप मुझे कुछ दे कर खुश हों, मैं आप से वह ले कर खुश होऊं!" इस तरीके को मैंने छोड़ दिया - क्योंकि यह निरर्थक है, इससे कोई प्रयोजन नहीं निकलता। प्रयोजन जिससे निकलता है, उसको अनुसन्धान करने में मैंने २५ वर्ष लगाया, फ़िर और २५ वर्ष लगाया उसको संसार को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए, फ़िर १० वर्ष से इस बात को लोगों के सम्मुख रखने योग्य हुए। आज इस बात को करीब २००० लोग अध्ययन कर रहे हैं। आगे और लोग इसको अध्ययन करेंगे - यह आशा किया जा सकता है। जो चाहें, वे अध्ययन करने में भागीदारी कर सकते हैं।
अध्ययन कराने को लेकर हम प्रतिज्ञा किए हैं - "ज्ञान व्यापार" और "धर्म व्यापार" हम नहीं करेंगे। अध्ययन के लिए कोई दक्षिणा उगाहने की बात नहीं है। अध्ययन के लिए कोई शुल्क नहीं रखा है। ज्ञान जीवन सहज-अपेक्षा है। ज्ञान को टुकडा करके बेचा नहीं जा सकता। अभी जो "बुद्धि-जीवी" कहलाये जाते हैं - वे अपने ज्ञान को "बेच" रहे हैं। उनसे पूछने पर - "ज्ञान को कैसे बेचोगे? 'ज्ञान' को तुम क्या जानते हो?" - उनसे कोई उत्तर मिलता नहीं है। इस बात का कोई उत्तर देने वाला हो तो मैं उसको फूल माला पहना करके सुनूंगा! ज्ञान को "बेचने की विधि" को मुझे बताने वाला आज तक मिला नहीं है। अभी ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार में कितने लोग लगे हैं, उसका आंकडा रखा ही है। सारी दरिद्रता, सारी अपराध-प्रवृत्ति धर्म-व्यापार और ज्ञान-व्यापार से ही है।
समझदार होने के बाद हम धर्म-व्यापार करेंगे नहीं, ज्ञान-व्यापार करेंगे नहीं। मैं यदि "धर्म" को समझता हूँ तो मैं अपने बच्चे को उसके योग्य बनाऊं, अपने अडोस-पड़ोस के व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं, अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं - यही बनता है। मैं वही कर रहा हूँ। मेरे संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के बीच मैं काम कर रहा हूँ। व्यापार से मुक्त - धर्म और ज्ञान का बोध कराने की मैंने व्यवस्था कर दिया।
धर्म-आचार्यों से मैंने इस बारे में (ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार को लेकर) बात-चीत किया। इस बात को छेड़ने से आचार्य-लोग बहुत नाराज होते हैं। मैं उन आचार्यों की बात कर रहा हूँ जो शंकराचार्य पद पर बैठे हैं। एक आचार्य नाराज नहीं हुए। वे थे - श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य! वे अमरकंटक आए थे, उसके बाद उनसे सत्संग हुआ, उन्होंने मेरी बात को अध्ययन करने के बाद बताया - "तुमने एक महत कार्य किया है। हम तो धर्म के लक्षणों को बताकर शिष्टानुमोदन करते हैं, तुमने धर्म का अध्ययन कराने का व्यवस्था किया है।" ऐसा एक ही ऐसे व्यक्ति ने कहा। दूसरा ऐसे व्यक्ति ने अभी तक कहा नहीं है। इन सब बातों से जो मुझे संतोष मिलना था, मिलता रहा। मैं आगे-आगे बढ़ता गया, और इस प्रकार चलते-चलते आज आप लोगों के सान्निध्य में आ गया।
- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (४ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)
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